रविवार, दिसंबर 12, 2010

पटना पुस्तक मेला २०१०

पटना के गांधी मैदान में किताबों का महाकुंभ लगा है। जबर्दस्त भीड़ जुट रही है। तरह-तरह की किताबें बिक रही है। स्कूली किताब से लेकर साहित्य, रोमांस, इतिहास की किताबें। अगर आप रोमांटिक आदमी हैं और उम्रदराज होकर कुछ कर गुजरना चाहते हैं तो जूली-मटूक की डायरी भी मिल रही है। हां, गीता की बिक्री कम या नहीं के बराबर है। एक विदेशी हाथ में लेकर घूम घूम कर बेच रहा था। एक लेखक देश की भी चिंता है। वैसे इश्क लड़ाने वालों के लिए भी कम मनमाफित जगह नहीं है। आईलवयू करने वाले लोग भी खूब घूम रहे हैं। किताब देखने वालों से ज्यादा किताब देखने वाले को देखनेवालों की भीड़ है। पुस्तक मेला में हर तरह के प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं। किताबों के साथ-साथ पॉपकॉर्न भी खूब बिक रहे हैं। दिसम्बर महीने में भी कोकाकोला की बिक्री है। एक बात और ख़ास है। यहां पर 12 दिनों में पत्रकार बना दिये जाते हैं। इंजीनियरिंग, मेडिकल, और समान्य कंपिटिशन के लिए प्राइवेट इंस्टीट्यूटों के बीच जबर्दस्त कंपिटिशन है। कुछ तस्वीरों के जरिये हम आपको दिखाते हैं।










सोमवार, दिसंबर 06, 2010

लॉज का रोमांस

लोगों ने प्राइवेट हॉस्टल के नाम को ओवरहॉलिंग करते-करते लॉज बना दिया। जो छोटे बड़े हर शहर के गली मुहल्ले में मिल जाएंगे। जहां रेगिस्तान के वक्ष पर हराभरा सुनहरा जंगल बसाने की ख्वाहिस लिए लाखों बच्चे रहते हैं। वही बच्चे जो बगिया से टूटकर मुरझाये हुए फुलों की तरह सालों तक निर्वासित जीवन व्यतित करते हैं।

शुरू-शुरू में ये किसी सज़ा से कम नहीं होता। लेकिन मजबूरी इसे मजा में बदल देती है। शुरू होता है ज़िंदगी का एक नया ड्रामा। उस ड्रामे में सबकुछ है। इमोशन है। प्यार है। एक्शन भी और सबसे ज्यादा भविष्य के गर्भ में छुपा ज़िंदगी का सस्पेंस भी। जहां कई कठोर निर्णय खुद लेने पड़ते हैं। जहां हर कदम फिसलनदार ज़मीन पर रखना पड़ता है। खुद को खुद से संभालना पड़ता है।

धीरे-धीरे बच्चे इस लॉज को अपना सबकुछ बना लेते हैं। 12 बाइ 12 के रूम की तुलना मुकेश अंबानी के एंटिलिया से होने लगती हैं। एक ही कमरा में पूरा फ्लैट। एक तरफ मां सरस्वती का फोटो तो दूसरी ओर बलखाती, इतराती, मुस्कुराती अर्धनग्नावस्था में किसी हिरोइन का पोस्टर। जो आशिकिया मिज़ाज को पुख्ता करता है। रूम पार्टनर पारिवारिक सदस्य हो जाते हैं। जिससे कभी रोटी की दोस्ती तो कभी भात का बैर। जो भी हो, बीमार पड़ने पर दवा तो वही लाकर देता है।

इस सब के बावजूद एक बात ख़ास होती है। वो ये कि यहां हर कोई एक दूसरे को निकृष्ट जीव समझता है। हर कोई एक दूसरे से आगे बढ़ना चाहता है। एक ऐसी सोच जनती है जहां खुद को क्रेजी साबित करने की होड़ लगी रहती है। फ्लर्ट करने की हसरत लिए सच्ची झूठी कहानी गढ़ी जाती है।

यहां के रहन-सहन में कोई बंधे बंधाये नियम नहीं होते। कोई कसाव नहीं होता। हर काम में स्वच्छंदता रहती है। एक बिखरी हुई सी अनियमितता रहती है। जहां हर दिन एक रूटीन चार्ट बनता है। शाम होते-होते उसमें परिवर्तन होना शुरू हो जाता है, अगले दिन रुटीन खत्म और अगले सप्ताह फिर से नया चार्ट बनकर तैयार हो जाता है।

मीडिल क्लास फैमिली के बच्चे यहां आकर मनी मैनेजमेंट में पक्के हो जाते हैं। दो हज़ार रुपये में पूरा महीना मैनेज करने की कला कोई इनसे सीखें। मेस चलाना है। ट्यूशन फी देना है। कॉपी और किताब भी खरीदनी है। और फिल्म का खर्चा भी निकालना है। पैसा जोड़-जोड़ इकट्टा करके फिल्म देखने का उत्साह, इंसा अल्लाह। रिलिजिंग डेट पर फिल्म देखने का मजा यहां के बच्चों से ज्यादा भला कौन जान सकता है। जेब में पैसा रहे ना रहे, रूतबा तो मुमताज के शाहजहां वाला चाहिए ही। तभी लड़की भी पटेगी।

लॉज में दिन की शुरुआत बड़े ही मजेदार तरीके से होती है। आंख मलते हुए ट्वायलेट जाना। नंबर लगाना पड़ता है। क़िस्मत अच्छी रही तो जल्दी, वरना कभी-कभी फिर से एक नींद सोकर उठ जाइये, तब नंबर आयेगा। तभी तो स्वयंभू स्मार्ट लड़के आठ बजे के बाद ही सोकर उठने की चालाकी करते हैं। लेकिन स्नान करने के समय तो यहां पूरा समाजवाद दिखता है। सिक्स पैक बॉडी की तमन्ना रखने वाले तमान बच्चे जब एक साथ नहाने के लिए जमा होते हैं तो देखते ही बनाता है।

गैस ने हॉस्टल में नई क्रांति ला दी। स्टोव की सनसनाहट बंद हो गये। हां, कुकर की सिटी जरूर आवाज लगाती है। एक ही साथ कई कमरे से आवाज निकलती है। एक ही बार में बीडीसी बनकर तैयार। बीडीसी, यानी भात, दाल, चोखा की छात्रप्रियता में आज भी कोई कमी नहीं आई है। ये आज भी छात्रों का फेवरेट है। फटाफट एक ही साथ बनकर तैयार। मन किया तो छौंका लगा दिया, नहीं तो थाली भरकर भात, उसके उपर आलू का चोखा और बाटी में दाल। खाते समय किसी फाइव स्टार होटल से कम स्वादिष्ट नहीं लगता। यहां के खाने में एक और ख़ासियत होता है कि यहां कुछ भी ज्यादा नहीं बनता। जो भी बनता है, सबका उदरभाजन हो जाता है।

खैर, जो भी हो इस सब के बावजूद यहीं बुना जाता है जिंदगी का तानाबाना, सपनों में लगते हैं पंख। कोई इंजीनियरिंग की परीक्षा पास करता है। कोई मेडिकल की परीक्षा पास करता है। यहीं कोई मैनेजमेंट की तैयारी का निर्णय लेता है तो कोई जेनरल कंपिटिशन में क़िस्मत आजमाने के लिए घुस जाते हैं।

मंगलवार, नवंबर 23, 2010

राहुल और सोनिया पर घोटाले का आरोप नहीं है....

इस साल देश में कुछ ही दिनों के अंतराल में एक एक कर पांच घोटालों का पर्दाफाश हुआ। ख़ास बात है कि पांच में से चार घोटलों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कांग्रेस शामिल रही है। वही कांग्रेस जिसका नारा है "कांग्रेस का हाथ,आम आदमी के साथ"। वही कांग्रेस जिसके नेता राहुल गांधी युवाओं के जरिये कुर्सी पर काबिज होकर देश को नई दशा और दिशा तय करने में जुटे हैं। काबिल-ए-गौर है कि इन तमाम घोटालों में तथाकथित युवा नेताओं का नाम आ रहा है।
         सबसे पहले बात करते हैं देश के अब तक के सबसे बड़े टू जी स्पेक्ट्रम घोटाला मामले की। कांग्रेस की सरकार में संचार मंत्री रहे ए राजा पर एक लाख सत्तर हजार करोड़ रूपयों के घोटाले का आरोप है। विपक्ष के दबाव में राजा को इस्तीफा देना पड़ा। हलांकि राजा डीएमके के नेता हैं, लेकिन वो मंत्री कांग्रेस सरकार में हैं। साथ ही जब विपक्ष इस मुद्दे पर सरकार को घेर रहा था तो कांग्रेसी नेता राजा का बचाव कर रहे थे।
        इस साल का दूसरा सबसे बड़ा घोटाला कॉमन वेल्थ गेम्स में सामने आया है। जो लगभग 87 हजार करोड़ के आसपास का है। इसमें भी कांग्रेसी नेताओं पर आरोप लगे हैं। ख़ासकर सुरेश कलमाड़ी पर। जो भारतीय कॉमन वेल्थ गेम्स के अध्यक्ष भी हैं। और कांग्रेस के सांसद भी। यहां भी किरकीरी होने पर कांग्रेस, कलमाड़ी पर कार्रवाई कर चुकी है।
      ऐसे ही खेल से ही जु़ड़ा दूसरा मामला है इंडियन प्रीमियर लीग का। इस मामले में फंसकर कांग्रेस के तेजतर्रार नेता और मंत्री शशि थरूर अपना इस्तीफा दे चुके हैं। पार्टी को इस मामले में कितनी फजीहत हुई, इसे कहने की ज़रूरत नहीं है।
        और सबसे ताज़ा मामला आदर्श सोशाएटी घोटाले का है। जिसका आरोप महाराष्ट्र के तत्कालिन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर लगे हैं। चव्हाण को भी इस्तीफा देना पड़ा। ख़ास बात ये है कि चव्हाण महाराष्ट्र के पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री नहीं हैं, जिन पर घोटाला का आरोप लगा है। ए आर अंतुले, सुशील कुमार शिंदे जैसे कई दिग्गजों के दामन घोटलों के आरोप में दागदार हो चुके हैं।
           गिनती यहीं पर आकर खत्म नहीं होती है। फेहरिस्त काफी लंबी है। अगर थोड़ा और भी पुराने फाइलों को खंगालें तो कई और नाम कांग्रेस को शर्मसार करते नज़र आएंगे। पहले बात बोफोर्स घोटाले की। जिसमें कांग्रेस के सबसे युवा और सशक्त प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर आरोप लगा था। उसके बाद हवाला कांड सामने आया तो उसमें पूर्व प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हा राव पर आरोप लगे। इतना ही नहीं, नरसिम्हा राव पर तो सरकार बचाने के लिए खरीद फरोख्त का भी आरोप है। इसके अलावा पूर्व संचार मंत्री पंडित सुखराम घोटाले के आरोप जेल जा चुके हैं। पहली बार सुखराम के बेड के नीचे से ही पैसा निकला था। इराक का तेल के बदले डॉलर घोटाले में काग्रेस के वरिष्ठ मंत्री नटवर सिंह और उनके परिजन पर आरोप हैं। जिसके बाद नटवर सिंह को विदेश मंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी। अर्जुन सिंह सरीखे कई नेताओं पर भी घोटालों के आरोप है।
    इनके अलावा वर्तमान राजनीति के और भी कई दिग्गज हैं जो घोटाले को अपने दामन में छुपाये सत्ता के सहारे आदर्शवाद का मुखौटा पहने घूम रहे हैं या इस दुनिया से विदा हो गये हैं। वैसे आरोप तो यहां तक है कि पूर्व केन्द्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हत्या इसलिए हुई थी क्योंकि उन्हें जानकारी थी कि संजय गांधी ने कहां हेरफेर किया है। हलांकि इसका कोई लिखित तौर पर पुख्ता प्रमाण नहीं हैं।
     अब थोड़ा इससे आगे बढ़ते हैं। बात चारा घोटाला का करते हैं। जिसके नायक लालू प्रसाद यादव थे। उन्हें कांग्रेस का समर्थन हासिल था। हलांकि चारा घोटाले में पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा भी आरोपी हैं।
     इसी तरह 2009 में सामने आया कोड़ा घोटाला मामला। एक नवनिर्मित और गरीब राज्य के मुख्यमंत्री ने तब घोटालों का सारा रिकॉर्ड तोड़ दिया था। मधु कोड़ा ने पूरे दस हजार करोड़ का गबन कर लिया था। एक निर्दलीय मुख्यमंत्री को कांग्रेस का समर्थन था। वैसे भी जिस तरह कोड़ा ने विदेशों में पैसा भेजा वो केन्द्र सरकार के जानकारी के बिना संभव नहीं है। और केन्द्र में कांग्रेस की सरकार थी।
        इन तमाम बातों से इतना तो साफ है कि जितने भी बड़े घोटाले हुए हैं उसमें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कांग्रेस शामिल रही है। लेकिन इस सब के बावजूद देश की सबसे पुरानी और बड़ी पार्टी के लिए एक राहत की बात ये है कि राहुल और सोनिया गांधी पर घोटालों के आरोप नहीं लगे हैं। लेकिन विपक्ष ये भी कहने से गुरेज नहीं कर रहा है कि कई घोटाले इन दोनों के संरक्षण के बिना संभव नहीं हुआ।

सोमवार, नवंबर 22, 2010

मां की याद

धुओं से तरबतर
चुल्हे को फूंकती
रोटी बेलती
और फिर उसे सेक कर खिलाती
भूख नहीं रहने पर भी
कौआ, मेना का कौर बनाती
मना करने पर
प्यार से डांटती
ज़िद करने पर
दुलार कर खिलाती
अब जब भूखा सो जाता हूं
तो सब कुछ याद आता है
उसका वो डांटना
अब रूलाता है.....

शनिवार, नवंबर 20, 2010

ये किसी की हक़ीकत है


मुलाकात
बातें
प्यार
विश्वास
समर्पण
धोखा
ब्लैकमेलिंग
दर्द
फरियाद
फजीहत
बेबसी
खुदकुशी ।।
                पहली बार उन दोनों की नज़रें शर्माते हुए मिली थी। फिर शुरू हुआ बातों का सिलसिला। ये बातें दोस्ती में बदल गई। दोनों चहचहा कर मिलने लगे। फिर शुरू हुआ प्यार का खेल। दोनों के दोस्ती के बीच विश्वास का जो पुल बना,वो भीतर से खोखला था। लेकिन लड़की उसे समझ नहीं पाई। उस पुल के सहारे वो जिंदगी की नहर को पार करने की ठान ली। लड़की ने अपना सबकुछ लड़के को समर्पित कर दिया। लेकिन लड़का तो फरेबी निकला। उन्होंने लड़की का एमएमएस बना डाला। और फिर ब्लैकमेल करने लगा। एक हंसती खेलती ज़िदगी की फजीहत हो गई। वो बेबस हो गई। उन्होंने कई जगहों पर फरियाद की। लेकिन कुछ नहीं हुआ। अब उसकी ज़िंदगी बोझ लगने लगी। वो बेबस होकर खुदकुशी कर ली। ज़िंदगी खत्म कर ली। ये सिर्फ उसकी व्यथा नहीं है। फरेबी इस संसार में कईयों की कथा है। बस,कुछ दब जाते हैं। कुछ सामने आ जाते हैं।

मंगलवार, नवंबर 16, 2010

ज़िंदगी की क़ीमत

भ्रष्टाचार की नींव पर खड़ी इमारत ने कइयों को लील लिया। खूबसूरत महल मलबों की ढेर में तब्दील हो गया। मकान कब्रिस्तान बन गया। ज़िंदगी दफ्न हो गई। कई परिवार कभी ना उबरने वाले ज़ख्म के समंदर में डूब गये। तबाही कभी बता कर नहीं आती। अचानक आती है। ये सब कुछ भी अचानक हुआ। अचानक ही मौत ने दस्तक दी। अचानक इमारत गिरी और अचानक ही सालों का ख्वाब पलभर में बिखर गया।
     जिस घर में रहकर ज़िंदगी का तानाबाना बुना करते थे, वही मौत का कारण बन गया। सपनो का महल हकीकत में भरभरा कर गिर गया। देखते ही देखते सब कुछ खत्म हो गया। ठहाकों की गुंज चीख में बदल गई। दिल का दर्द आँसू बहकर निकलने लगा। किसी का बाप नहीं रहा, किसी का भाई, किसी की मां तो किसी की पत्नी नहीं रही। किसी किसी का तो पूरा परिवार ही असमय काल के गाल में समा गया। सुबह होते होते कई जिंदगी दस्तावेज में सिमट कर रह गयी। अस्पतालों में लोग अपने परिजनों को फोटे के ज़रिये पहचानने की कोशिश करने लगे। अस्पतालों में अब भी लाशों की ढेर लगी है। कुछ मुर्दा है तो कुछ ज़िंदा लाश। जिनकी आंखें सूनी है। आँसू सूख चुका है। घाव बेदर्द हो चुका है। ज़िंदगी जिल्लत लग रही है। क्योंकि इनमें से कई लोग ऐसे हैं जिनका अब अपना कोई नहीं रहा।
        मौत की कोई मुकम्मल तादाद सामने नहीं आई। बस, एक अनुमान आया। मौत का अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस मकान में ये हादसा उसमें चालीस परिवार अपने बाल बच्चों के साथ रहते थे। ये कोई पहला या आखिरी मकान नहीं था। शहर में ऐसे कई मकान हैं जहां ऐसे सैकड़ो परिवार रहते हैं। जब उनलोगों ने टीवी इस हादसे की पहली तस्वीर देखी, तो कलेजा हाथ में आ गया। छत की ओर देखने लगे। सासें थम गई। सोच में पड़ गये। एक अनहोनी दिमाग में दौड़ने लगा। लेकिन मजबूरी और जरूरी के बीच सबकुछ भूलकर सो गये।
       अब जब सबकुछ खत्म हो गया, तो जांच का ऐलान हुआ। हर बार की तरह ज़िंदगी की कीमत लगा दी गई। मर गये तो दो लाख। घायल हो गये तो पचास लाख। जिस समय ये ऐलान हो रहा था, उस समय शासक का आत्मविश्वास देखने लायक था। वो इस अंदाज़ में अपनी बात कह रही थी, मानों मरने वालों को ज़िंदगी लौटा रही हो। शायद उन गरीबों के लिए ये रकम बहुत ज्यादा हो। लेकिन क्या उनके साथ अगर ऐसा हो तो......नहीं भगवान ना करें। क्योंकि जिंदगी सबको एक ही जगह से मिलती और अपने परिवार के लिए उसकी अहमियत भी उतनी ही......

गुरुवार, अक्तूबर 28, 2010

बेपर्दा होती जुबान

राजनीति में मर्यादाओं की लकीरें पतली होती जा रही है। जुबानी जंग में आगे निकलने की होड़ आ पड़ी है। द्वेष और खेद के बीच हर दिन नई सीमाएं बनती है और फिर उसे तोड़ दी जाती है। इसमें सबसे आगे वे स्वयंभू समाजवादी हैं,जो खुद को जेपी का अनुयायी बताते हैं। बिहार विधान सभा चुनाव के गहमागहमी के बीच पहले शऱद यादव ने और फिर रामविलास पासवान ने समाजवादियों की उम्मीदों को तार-तार कर दिया।
         सवाल उठता है कि नेताओं के बयानों का स्तर गिरता क्यों जा रहा है। दरअसल जब विचारों में मिलावट और शब्दों में कमी हो जाती है तो भाषा का स्तर गिर जाता है। आज के दौर में ज्यादातर नेता कमोबेश इसी स्थिति से गुजर रहे हैं। उनके पास ऐसी कोई रणनीति नहीं है, जिससे वो विपक्षी को घेर सके अथवा जनता के मन में खुद के लिए विश्वास पैदा कर सके। वो समाज के वास्तविक मुद्दों को छूना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हर किसी का घर शीशे का है। ऐसे में उन्हें चर्चा में बने रहने के लिए तल्ख मिजाज होना जरूरी है और मजबूरी भी। नहीं तो आधुनकि राजनीति में नई मिसाल पेश करने वाले यूथ आईकॉन राहुल गांधी को ना तो शरद यादव गंगा में फेंकने की बात कहते और ना ही रामविलास पासवान, उस बीजेपी और आडवाणी को पाप की पोटली करार देते, जिसकी सरकार में रहकर वो पांच सालों तक राजनीति की दिशा तय करते रहे।
       इन बातों से साफ है कि राजनीति सिर्फ विलासिता का माध्यम बनकर रह गया है। ऐसे में कुर्सी की चाहत उसे हर स्तर तक पहुंचने को मज़बूर कर देती है। नेताओं की जुबान की धार उस समय और तेज़ हो जाती है, जब कोई ख़ास मौक़ा हो। और अभी बिहार में चुनावों का दौर जारी है। यहां पर नेताओं का जमाबड़ा लगा हुआ। ऐसे में कोई चूकना नहीं चाहता है। अगर इसी तरह सियासी तापमान गरमाता रहा तो ना जाने और कितने समाजवादियों की जुबान बेपर्दा होगी।

मंगलवार, अक्तूबर 26, 2010

वो...

गली के मोड़ पर

पहलीबार
वो मुझे
दिखी थी
बिल्कुल शर्मिली शी,
एक-दूसरे की
नज़रें मिली
और वो आगे बढ़ गई..
लेकिन वो
नींद में रंगीन ख्वाब बनकर
मेरी आंखों में तैरने लगी,
मेरी उम्मीदें
उससे मिलने को बेताब थी,
इंतजार...
एक दिन फिर
वो मुझे अचानक
उसी मोड़ पर मिली,
हिचकिचाते हुए
मैंने उसका नाम पूछा...
बस
यूं ही हम दोनों में
शुरू हुआ बातों का सिलसिला
दोस्ती तक पहुंच गई,
अक्सर हम दोनों मिलने लगे,
कब हम दोनों की दोस्ती
प्यार में बदल गई
हमें भी नहीं पता चला,
लेकिन जब जाना
तो जाना कि
हम खुद के भी नहीं रहे,
मैं उस राजा के जैसा हो गया
जिसकी जान
एक चिड़िया में बसती थी,
मेरी ज़िंदगी भी
उसी की होकर रह गई थी,
मेरा लहू
उसके नसों में दौड़ने लगा
हम दोनों
दो जिस्म मगर
एक जान हो गए,
वो रोज मुझसे मिलती थी
घंटों प्यार की बातें होती थी
वो अपना सबकुछ
हमारे पास छोड़ जाती थे,
हां, मैंने उससे कभी
चांद तारे तोड़ लाने का
झुठा वादा नहीं किया,
सात जनमों तक साथ निभाने की
कसमें भी नहीं खाई
बस प्यार ही प्यार करता रहा
एक-दूसरे से.......

सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

धुआं-धुआं लोकतंत्र

बिहार में सियासी पारा 200 डिग्री सेल्सियस के पार है। विरोध की तपिश से पार्टी दफ्तरों में आग लगने लगी है। धू-धू कर जला रहा है पार्टी ऑफिस और धुआं-धुआं हो रहा है लोकतंत्र। समय के साथ जुमला और उसका अर्थ बदल जाता है। अब राजनीति में सबकुछ जायज़ होने लगा है। लोगों की मानसिकता बदली है। विरोध का स्वरूप भी। बात नहीं सुनी तो आग लगा दी। भले ही आग की लपटें लगाने वालों के इर्द गिर्द ही क्यों ना रह जाए। हलांकि ख़बरिया चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ के साथ चेहरा भी दिखाया जाता। दो शब्द बोलने का मौक़ा भी। फिर ये मौक़ा मिले ना मिले। तभी तो इसे कोई गंवाना नहीं चाहता। मैथिली में एक कहावत है-सुकर्मे नाम या कुकर्मे नाम (कुछ अच्छा करो तभी नाम होगा या बुरा करो तभी)। अच्छा करने के लिए पार्टी टिकट नहीं दे रही तो भला क्या करे। कुछ तो करना है। नाम और पहचान में बहुत गहरा संबंध है।
              विरोध के कई रंग हैं। कोई आग लगाता है। कोई तोड़फोड़ करके। कोई नारेबाजी से काम चलाता है, तो किसी का गुस्सा ज्यादा बढ़ा तो पार्टी अध्यक्ष पर हमला तक कर दिया। लेकिन विरोध की एक और तस्वीर भी है। ज़रा इसे भी समझिए। लोग इसे नंग धड़ंग प्रदर्शन कहते हैं। जब अगलगी और तोड़फोड़ से कुछ होता नहीं दिखा तो अंतिम प्रयास कर लिये। कपड़े तक उतार डाले। दिन में ही सबके सामने बेलिबास हो गये। कपड़ा खोल कर प्रदर्शन करने लगे। टिकट तो लेकर ही जायेंगे।
          गांधीजी लोगों को कम वस्त्र पहने का उपदेश देते-देते चले गये। किसी ने नहीं माना। लेकिन टिकट ने ज़मीन पर ला खड़ा किया। काश ये नुस्खा गांधी बाबा को पहले पता होता तो आज देश में कोई नंगा नहीं घुमता। हलांकि बड़े लोगों के परिवार में बहु बेटियों का कम कपड़े में घुमना फैशन ज़रूर है। लेकिन पुरुषों में नहीं। यहां तो घर के मर्दों ने ही कपड़े उतार दिये थे। टिकट के लिए। सरेआम। बेपर्दा हो गये थे। कपड़ो का पर्दा सबके लिए ज़रूरी होता है। चाहे वो औरत हो या मर्द। क्योंकि बात शर्म, हया, मान और सम्मान की होती है। लेकिन जहां बात नेता और टिकट की हो तो बीच में इन सब बातों की गुंजाइश कहां बचती है। नेताजी आपको सलाम।
       ये हंगाम करने वाले लोग कौन थे। मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तय था कि ये प्रोजेक्टेड नेता थे। हंगामा करने वाले, नेताजी के शुभचिंतक हैं या नेताजी ने इन्हें खर्चा-पानी देकर भेजा है। मैं ये भी नहीं जानता। लेकिन ज़रा सोचिए। जो आदमी टिकट के लिए अपने दफ्तर में आग लगा सकता है,  नंगा नाच सकता है तो उसका नेता अगर जीत गया तो क्या-क्या करेगा। 

रविवार, अक्तूबर 03, 2010

आंधी

एक आंधी
अचानक उठी,
उजड़ गए
सैकड़ों घर,
बेकाम हो गए
हज़ारों हाथें,
उड़ा ले गई
आंखों की नींदें,
गायब हो गए
शहर से
एक-एक परिंदे,
आंधी थमने पर,
धूल छटने के बाद,
एक रात मैंने देखा,
चमचमाते शहर में
बेलिबास,
भूखे पेट,
डिवाइडर पर सोये
मज़दूरों की टोली,
आंधी का
ये रूप देखकर
थम गई
मेरी सांसें,
मैं सोचने लगा,
ये कैसी आंधी ?
तभी पीछे से
एक आवाज़ आई
ये आंधी कोई आइला,
कैटरीना या सुनामी नहीं थी,
ये आंधी प्रगतिवादी थी ।।

रविवार, सितंबर 26, 2010

दिल्ली बदनाम हुई

दिल्ली बदनाम हुई

कॉमन वेल्थ तेरे लिए

गंदगी भरमार दिखी
डेंगू का ख़तरा बढ़ा
आतंकी हमला हुआ
सुरक्षा की पोल खुली
बेइज़्ज़ती सरेआम हुई
कॉमन वेल्थ तेरे लिए

अरमानों पर पानी फिरा
बनते ही ओवरपुल गिरा
फ्लैट में सांप मिला,
बॉक्सर का बेड टूटा,
देश का नाक कटा
कॉमन वेल्थ तेरे लिए

खेल में खेल हुआ
कलमाड़ी माला माल हुआ
शीला की पोल खुली
दिल्ली लाचार हुई
कॉमवेल्थ तेरे लिए

शुक्रवार, सितंबर 24, 2010

मर्ज बढ़ाने वाले मित्र ‎

मेरे एक सहकर्मी के पिताजी की तबियत ख़राब थी। उनको पीएमसीएच में भर्ती कराया गया। जान पहचान ‎वाले सभी देख आये थे। मेरी भी जिम्मेवारी बनती थी उन्हें देखने की। सो एक दिन मैं भी उनका हालचाल ‎पूछने हॉस्पिटल पहुंच गया। वहां जब मैं अपने सहयोगी को देखा तो वो खुद अपने पिताजी से ज्यादा ‎बीमार दिख रहे थे। चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था। क्योंकि उनके पिताजी उम्र के उस दहलीज पर ‎थे, जहां बीमार होना किसी अनहोनी की अंदेशा को जन्म दे देता था। ‎
               मेरे मित्र ने बताया कि कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया। ठीक से सो नहीं पाया। ‎बताया कि आज वो बहुत दिनों के बाद खुलकर बातें कर रहा है। लग भी रहा था। बातचीत के दौरान ‎उन्होंने एक क़ायदे की कहानी, जिसे उन्होंने पिछले सात दिनों में अनुभव किया था। ‎
                   बीमारी की ख़बर मित्र से लेकर नाते, रिश्तेदारों तक आग की तरह फैल चुकी थी। लगातार ‎फोन कॉल्स आ रहे थे। चारो तरफ से दिलासा। भरोसा। दुआ। फोन से उपर उठकर धीरे-धीरे नजदीकी लोग ‎हॉस्पिटल तक पहुंचने लगे थे। कुछ देर रूकते। किसी बीमार रिश्तेदार की पुरानी दास्तान सुनाते, सबकुछ ‎ठीक हो जाने का भरोसा दिलाते और चले जाते। कई स्वयंभू तो वकायदा बेहतर डॉक्टर से दिखाने, ‎देखभाल के अच्छे तौर तरीके के बहुमुल्य सुझाव मुफ्त में दे जाते। जैसे जैसे समय बीत रहा था, वैसे वैसे ‎लोगों के आने जाने का सिलसिला भी बढ़ता जा रहा था। सभी शुभचिंतकों की ओर से वही रटी रटायी ‎संवेदना। शुरू शुरू में तो ठीक ठाक लगता था। लेकिन बाद में लोगों की इन बातों से चिर चिराहट बढ़ती ‎जा रही थी। अब तो जैसे कोई हालचाल पूछता तो मानों चिढ़ा रहा हो। ‎
                बीमारी की ख़बर पटना से बाहर भी पहुंच चुकी थी। पटना के रिश्तेदार भी जुटने लगे थे। ‎कई लोग तो अपनत्व दिखाते हुए पूरे परिवार के साथ पहुंच गये। जिन्हें देखभाल करने की जिम्मेवारी भी ‎बढ़ गयी। इतना ही नहीं इन लोगों को पता नहीं था कि मेरे घर से पीएमसीएच का रास्ता कहां है। लेकिन ‎मुझसे प्यार इतना कि वो पापा को देखने के लिए आतुर थे। सो उन्हें घर से हॉस्पिटल तक लाने और ‎पहुंचाना मेरे दिनचर्या में बढ़ गया। इस सब के बीच अगर अचानक पापा की तबियत ज्यादा बिगड़ गयी ‎तो फिर डॉक्टर, दवा के लिए दौड़ना पड़ता था। हमारे देश में अतिथि देव माने जाते हैं। ऐसे में उन्हें आने ‎से मना भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन.................‎
               ख़ैर समय बीतता गया। मेरे मित्र के पीताजी स्वस्थ हो गये। घर वापस लौट आये। ‎हलांकि अब जब मैं किसी बीमार व्यक्ति को देखने जाता हूं तो एक बार ये भी ख्याल जरूर में उठता है कि ‎कहीं मैं किसी और को तनाव देने तो नहीं जा रहा हूं । ‎



गुरुवार, सितंबर 23, 2010

हाईटेक बाबा

पिछले कुछ दिनों में साईं बाबा का जबर्दस्त क्रेज बढ़ा है। आधुनिकता के दौर में अपने आप को नास्तिक ‎कहलाने से बचने वालों के लिए साईं बाबा एक बड़ी खोज हैं। रूढ़ीवादी समाज को ठेंगा दिखाने वाले ‎विद्रोहियों का आदर्श हैं। उन पर विश्वास रखने वालों के लिए साईं बाबा भगवान हैं। जिसकी बड़ी तादाद है। ‎और दिन पर दिन बढ़ती ही जा रहा है। ‎
                  साईं बाबा की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वो अपने भक्तों को किसी तरह के बंधन में नहीं ‎बांधते। जाति, धर्म कोई मायने नहीं रखता। रूढ़ीवादी भगवान से बिल्कुल अलग। ज्यादा पूजा-पाठ, प्रपंच ‎करने की कोई ज़रूरत नहीं। सीडी चला कर आरती कर लो, बाबा प्रशन्न हो जायेंगे। गेंदा, बेली, आक, ‎धथूर कुछ नहीं चाहिए। बाबा बिल्कुल मॉडर्न हैं। बाबा को गुलाब का फुल सबसे ज्यादा पसंद है। लाल ‎गुलाब, प्यार और विश्वास का सबसे बड़ा प्रतीक। भक्तों को भी एक फुल से कई काम.....। पुराने ढ़र्रे की ‎कोई बंदिस नहीं है कि स्नान करो, धोती पहनो तब पूजा करो। यहां कपड़ा कोई मायने नहीं रखता। जिंस ‎पैट, टी-शर्ट, मिनी स्कॉर्ट....सब चलता है। बस मन शुद्ध रहना चाहिए। पंडीत जी भी मिलेंगे फर्राटेदार ‎अंग्रेजी बोलने वाले। कोई दिक्कत नहीं होगी। शायद इसीलिए बाबा के फैंस की संख्या दिन पर दिन बढ़ती ‎जा रही है। ‎
                शीरडी के साईं बाबा बहुत फेमस हैं। लेकिन पटना के कंकड़बाग का साईं बाबा भी बड़े शहर ‎वालों को टक्कर देने की स्थिति में अब पहुंच चुके हैं। पांच साल पहले जहां इक्का दुक्का लोग दिखते थे। ‎वहां अब तो बाबा का दर्शन भी मुश्किल से होता है। बाबा बहुत बीजी रहने लगे हैं। ख़ासकर गुरुवार के ‎दिन। इलाके भर का भक्त पहुंचते हैं। मानों जैसे बाबा इसी दिन सब की मुराद पूरी करते हो। स्कूल और ‎कॉलेज के बच्चे तो बंक मार जाते है। भीड़ का आलम ये कि कभी-कभी तो भक्तों के बीच धक्का मुक्की ‎तक हो जाती है। भीड़ को काबू करने के लिए आठ दस पुलिस के जवान लगे रहते हैं। ‎
                मंदिर में गुरुवार शाम को विशेष आरती होती है। शाम का वक्त रहता है, सो हर कोई ‎बाबा का दर्शन कर लेना चाहता है। अगर थाड़ा सा लेट हुआ तो मंदिर कैंपस में बैठने के लिए जगह नहीं ‎मिलेगी। पीछे खड़ा होना पड़ेगा। और अगर ज्यादा देर हो गयी तो फिर समझिये...सिर्फ आरती की आवाज़ ‎ही सुनाई देगी। सो, कई लोगों ने तो टाइम फिक्स कर रखा है। आरती शुरू होने से डेढ़ दो घंटे पहले पहुंच ‎जाते हैं। बच्चे, बुढ़े, जवान। सभी तरह भक्त। कितना भी ज़रूरी काम क्यों ना हो...गुरुवार शाम चार बजे के ‎बाद सात बजे तक नहीं होगा। बाबा का दर्शन पाने के लिए जुगाड़ लगाना पड़ता है। मंदिर के सामने सड़क ‎के किनारे ऊंची जगहों पर खड़े हो कर देखें तो काफी मशक्कत के बाद आगे खड़े कर्मशील भक्तों के बीच से ‎बाबा का एक झलक मिल जायेगा। हम भी यही करते हैं। चलते चलते बाबा को प्रणाम कर आगे बढ़ जाते ‎हैं............ ‎

सोमवार, सितंबर 13, 2010

राहुल के मायने........

राहुल गांधी बिहार को बदलना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि बिहार में युवाओं का राज हो। कांग्रेस की सरकार हो। ताकि केन्द्र जो पैसा भेजता है उसका सदुपयोग हो सके। राज्य का सही मायने में विकास हो सके। राज्यों से पलायन रूक सके। बगैरह, बगैरह,,,। राहुल युवाओं का आइकॉन हैं। एक कर्मशील राजनीतिज्ञ हैं। जो मेहनत के बल पर राजनीति को एक अलग दिशा देने का प्रयास कर रहे है। उन्होंने राजनीति की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश की है। बहुत दिनों के बाद एक ऐसा नेता सामने आया है जिसको चाहने वाले हर कोने में हैं। जर जगह है। दबे मन से ही सही लेकिन हर कोई राहुल की कार्यशैली को पसंद करता है। बिहार में भी एक बहुत बड़ा समुह है जो राहुल को चाहता है। जिन्हें राहुल की राजनीति पसंद है।


                 बिहार में विधानसभा चुनाव होना है। और यहां कांग्रेस मृतप्राय है। 243 विधानसभा क्षेत्रों में अभी महज नौ सीटों पर कांग्रेस है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लंबी रेस लगानी है। कांग्रेस राहुल और सोनिया के ज़रिये ही बिहार में सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहती है। और राहुल युवाओं के ज़रिये। मतलब साफ है। राहुल गांधी जमकर विधानसभा चुनाव में प्रचार करेंगे। और वो इसकी शुरुआत भी कर चुके हैं। क्योंकि राहुल भी जानते हैं कि केन्द्र में अगर मज़बूती के साथ रहना है तो बिहार और यूपी को मज़बूत करना होगा।

              बिहार कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। जहां से कांग्रेस के सबसे ज्यादा सांसद हुआ करते थे। वही बिहार जहां इंदिरा गांधी ट्रैक्टर पर चढ़कर बेलछी गांव पहुंची थी, जहां भीषण नरसंहार हुआ था। उस समय जब इंदिरा ट्रैक्टर और हाथी पर चढ़कर टूटे सड़कों पर पानी को पार करते हुए बेलछी गांव पहुंची थी, तो तानाशाह इंदिरा का एक दूसरा चेहरा सबके सामने आया था। लोगों ने इंदिरा की बाहवाही की थी। सब उनके कायल हो गये थे। इस समय राहुल गांधी कमोबेश उसी नब्ज को टटोलते हुए राजनीति कर रहे हैं। और आज जब सत्ता विलासिता का माध्यम हो गया है, ऐसे में राहुल का पब्लिक आइकॉन बनना स्वभाविक है।

              राहुल यूपी से चुनाव लड़ते हैं। अमेठी के सांसद हैं। वो यूपी में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे है। दलितों के घर में घूमते हैं। ढ़ावे पर जा कर खाना खाते हैं। कभी आंदोलित किसानों के साथ दिखते हैं तो कभी कुछ और। यानी मायावती सरकार के ख़िलाफ वो हर मोर्चे पर खड़े रहने की कोशिश करते हैं।

           लेकिन बिहार में ऐसा नहीं दिखता। ना तो वो बिहार में ज्यादा समय देतें हैं। ना ही दलितों के घर में खाना खाते हैं और ना ही किसानों के साथ खड़े होते हैं। इससे क्या समझा जाए ? राहुल जो राजनीति कर रहे हैं, उसमें दोहरापन का कोई जगह नहीं होता। फिर यूपी की अपेक्षा बिहार में नगण्य ध्यान क्यों देते हैं। बिहार पिछड़े हुए राज्यों में से एक है। यूं कहें तो यूपी से भी......। ऐसे में राहुल गांधी चुनाव के समय ही क्यों बिहार में दिखते हैं। क्या बिहार में युवा नहीं हैं ? क्या बिहार के लोगों को उनकी ज़रूरत नहीं है ? या बिहार को उनकी ज़रूरत नहीं है ? अगर चुनावी क्षेत्र अमेठी होने के कारण वो यूपी पर ज्यादा मेहरबान हैं तो बिहार से क्यों चुनाव नहीं लड़ते। क्योंकि उनकी मां और कांग्रेस के सबसे बड़े सोनिया गांधी यूपी के रायबरेली का प्रतिनिधित्व करती हैं।

                सवाल कई हैं। लेकिन जवाब कौन देगा। इस सब के बीच इतना साफ है कि अगर राहुल सही मायने में बिहार का विकास चाहते हैं। अगर वो बिहार में कांग्रेस को मज़बूत करना चाहते हैं तो उन्हें बिहार में समय देना होगा। बिहारियों के मन में एक ऐसा विश्वास पैदा करना होगा कि राहुल आपके साथ है। सिर्फ चुनाव के समय पांच मिनट भाषण देने से कुछ भी नहीं होगा।

गुरुवार, सितंबर 09, 2010

नक्सली हमले के बाद

आदरणीय मुख्यमंत्री जी,


जिन नक्सलियों का आप पैरोकार बने फिरते थे, उसी ने आपके सीने को छलनी कर दिया है। आपके 8 जवानों की हत्या कर दी। सात को तो मौत से लड़ने का मौक़ा भी दिया। लेकिन उन बेरहमों ने एक को तो तड़पा-तड़पा कर मार डाला। और आप बेबस, लाचार, सबकुछ देख और सुनते रहे हैं।

आप तो सरकार हैं। एक उम्मीद। एक विश्वास और एक आस। लेकिन आपने क्या किया। क्या आपके पास पांच दिनों का समय कम था। जब एक जावन की लाश मिली तब आप वार्ता के लिए आह्वान करते हैं। कौन सी रणननीति आप बना रहे हैं....। चार अगवा जवान के परिजन आपके चौखट पर गुहार लगाते रहे। कोई सिंदूर की दुहाई देती रही। कोई बुढ़ापे के सहारे का तो बच्चे अपने पिता को बचाने की भीख मांगते रहे। आप देखते और सुनते रहे। लेकिन कुछ भी नहीं कर सके। एक परिवार उजर चुका। एक महिला विधवा चुकी। तीन बच्चे अनाथ हो चुके। और तब जाकर आपकी निंद खुली ।

मुख्यमंत्री जी, वो भी किसी के बेटे थे। किसी के पति। किसी के पिता और किसी के भाई। कितनी उम्मीदें थी उनसे उनके परिवार का। क्या जवाब है आपके पास। क्या लौट सकेगी उन घरों की खुशियां। पति का प्यार और पिता का साया। आख़िर क्या गलती थी उन पुलिस जवानों की। वो तो आप पर भरोसा कर देश को बचाने चला था। लेकिन ख़ुद मिट गया। क्यों नहीं कुछ कर सके। कहीं आपने ये सोच कर तो नहीं ठिठक गये कि कुछ पहले दिल्ली में इन्हीं ख़ूनी नक्सलियों की पैरोकारी कर आये थे या कुछ और बात है....।

आपके सुशासन का क्या हो गया। जो अपने ही जवानों की जान नहीं बचा सका। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने पहली बार किसी बड़ी घटना को अंजाम दिया है। आपके सुशासन में ही नक्सलियों ने कोरासी गांव को जला दिया था। कई लोग मारे गये थे। वो आम जन थे। लेकिन इस बार तो पुलिस..।

वो तो शहीद हो गये। हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गये। लेकिन आपके सफेद दामन पर जो लाल छिंटे पड़े हैं, क्या वो मिट पायेंगे। मुख्यमंत्री जी, चुनाव सर पर है। किस मुंह से आप उन आठ जवानों के गांव में वोट मांगने के लिए जायेंगे ?

                                                                                                 ।।   एक जन ।।

शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

लोकतंत्र का चीरहरण

शर्म करूं या गुस्सा। समझ में नहीं आता। राज्य के सबसे बड़े पंचायत में जो कुछ भी हो रहा था वो इतिहास के काले अक्षरों में लिखाता जा रहा था। सदन की गरिमा लुट रही थी। गणतंत्र की जननी कलंकित हो रही थी। लोकतंत्र का चीरहरण हो रहा था। धृतराष्ट्र की तरह हमसब देख और सुन रहे थे। बेबस। लाचार। चाहकर भी हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि हममें से कुछ पार्टी के गुलाम हैं, कुछ जाति तो कुछ मजहब के गुलाम हैं। और बेड़ियों में जकड़ा इंसान सोचता तो बहुत है लेकिन कुछ करता नहीं।और इसी स्थिति में कमोबेश हम सब थे।


                  एक महिला पार्षद ने तो हद कर दी। उनकों जब सदन को शर्मसार करते रोका गया तो बाहर निकलकर तांडव करने लगी। वो कौन सा रूप धारण कर चुकी थी, नहीं बता सकते। वो क्या साबित करना चहाती थी समझ नहीं सके। वो तो ऐसे कुद रही थी जैसे WWF के कोर्ट में प्रतिद्वंदी को चुनौती दे रही हो। कैमरे में कैद होने के लिए बेहोस तक हो गईं। लग रहा था पार्टी ने उन्हें इसी के लिए विधान परिषद में पहुंचाया था। वो किसके लिए इतना कर रही थी। पार्टी में अपनी ताक़त दिखाने के लिए या उन किसानों के लिए जिनकी खेतों में दरारें पड़ चुकी है। या उन लोगों के लिए जिनका घर बाढ़ में बह गया। उन लोगों के लिए जो पानी और बिजली के लिए सड़क पर हंगामा करते हैं या उन मजदूरों के लिए जिन्हें मनरेगा काम नहीं मिला। ऐसे एक-दो नही, कई नेता थे, जो इस अपना सब कुछ लुटाने को तैयार थे। वो मानों तैयार हो कर ही आये थे। ओलंकपिक में क्वालीफाई करना हो।

           दोनों पक्ष लड़ रहे थे। विधायक बाहुबल और ताकत की आजमाइश इस तरह कर रहे थे। जैसे मानों इस बार क्षेत्र में चुनाव लड़कर नहीं, बल्कि सदन में ही लड़कर तय कर लेना है कि कौन सी कुर्सी किसकी होगी। घंटों तक कुश्ती चलती रही।

          सदन में विरोध का स्वरूप बदल गया है। बहस तो बीती बात बन गई है। हंगामा और तोड़फोड़ के बिना कोई नेता अपनी बातें नहीं रख पाता। इसी में बातें बिगड़ जाती है। चप्पलें फेंकी जाती है। कुर्सियां पटकी जाती है। माइक तोड़े जाते हैं। गाली-गलौज होता है। कुर्ता फटता है। और सभी माननीय चारित्रिक रूप से नंगे हो जाते हैं। हां एक बात है। हिन्दी पट्टी के विधायक हों या मराठी या तमील। सभी इसमें एकजुटता दिखाते हैं। कश्मीर भी पीछे नहीं है। यहां तक की देश के सबसे बड़े पंचायत भी इससे अछुता नहीं है।

              मनानियों की इस लड़ाई में जीत किसकी हुई, मैं नहीं समझ पाया। लेकिन हारने वाले बहुत लोग हैं। उसमें हम हैं, आप हैं और निसहाय लोकतंत्र है।

सोमवार, जुलाई 19, 2010

रेलमंत्री के नाम एक पत्र

रेल मंत्री, ममता बनर्जी,
               कहां से शुरू करूं। समझ में नहीं आता। बातें बहुत सारी है। शिकायतों का पुलिंदा है। ज़ख्मों को कुरेदना नहीं चाहता। लेकिन बयां करना जरूरी है। झारड़ग्राम के आंसु सूखे भी नहीं थे कि आपने फिर रूला दिया। इससे पहले कि दर्द दवा बन जाये। आप की ही तरह सब बेदर्द हो जाये। एक बार आप मेरी बातों पर जरूर गौर करें।

ममता दी, मौत की आहट देती रेलवे स्टेशन पर जाने का अब मन नहीं करता। मौत के ट्रैक पर दौड़ती रेल पर चढ़ने का अब दिल नहीं चाहता। भारतीय रेल पर ममता की बरसात करने का दावा करके आपने इसे अपने जिम्मे लिया था। लेकिन आपकी रेल और दावे, दोनों फेल हो गये। पिछले चौदह महीनों में जो कुछ भी हुआ उससे आपका रिपोर्ट कार्ड खून से भींग चुका है।

यकीन जानिये ममता दी, ट्रेन पर चलते समय हर पल मौत के साये में कटता है। अब डर लगता है ट्रेन पर चढ़ने में। ट्रेन की सिटी अब डराने लगी है। बच्चों में जिस रेल छुक छुक आवाज सुनन के लिए कान तसरसते था आज उसी से डर लगने लगा है। लोहे की पटरियों को देखकर सांसे तेज हो जाती है। एक अनहोनी की आशंका हमेशा मन में बनी रही है।

मैं जानता हूं कि राजनीति में जज्बात कोई मायने नहीं रखता। लेकिन इंसान हूं। सुना था कि आप दयावान हैं। उम्मीद थी आप अपने यात्रियों पर ममता बरसायेंगी। लेकिन जमीन की राजनीति करते-करते आप इतनी बेदर्द हो गयी कि इस हादसे से पल्ला झाड़ लिया। आपने तो बड़े ही बेबाकी से कह दिया कि इसमें साजिश है। जख्मों पर मरहम लगाने के लिए मुआवजे का ऐलान कर दिया। विरोधियों को जवाब देने के लिए जांच कमेटी बना दी। लेकिन क्या इतने भर से आपकी जिम्मेवारी खत्म हो जाती है। आंसुओं के समंदर में डूबे उन सैकडों परिवारों को आप क्या जवाब देंगी। क्या गलती थी उन बच्चों की जो असमय हादसे के शिकार हो गये। क्या जवाब देंगे उनके मां-बाप को जिन्होंने अपनी बच्ची को ठीक से प्यार भी नहीं किया था, और वो उससे हमेशा के लिए दूर हो गयी। क्या जवाब है आपके पास उन बच्चों के लिए जो अनाथ हो गये। कैसे उन मां के आंसु को रोक पायेंगी, जिनके बुढ़ापे का सहारा आपने छिन लिया।

ममता दी, आप वेबाक हैं। आप जिद्दी हैं। आप कुछ भी कर सकती है। तो रेल यात्रियों के लिए आप क्यों नहीं कुछ कर पाती हैं। आपकी लाइफलाइन अब डेड लाइन बन चुकी है। कैसे करूं आपकी रेल पर यात्रा। अब हिम्मत नहीं करता रेल पर चढ़ने का।

ये कोई पहली घटना नहीं है, जिसे भूल जाऊं। सिर्फ चौदह महीने में 255 लोगों की जान चली गयी है। दो हादसे तो केवल बंगाल में हुए हैं। इससे पहले पश्चिमी मिदनापुर जिले में 28 मई, 2010 को नक्सलियों की तोड़फोड़ की कार्रवाई के चलते ज्ञानेश्वरी एक्सपेस पटरी से उतर गई थी। इस दुर्घटना में कम से कम 148 लोगों मारे गए थे।

16 जनवरी, 2010 को उत्तर प्रदेश में घने कोहरे के कारण कालिंदी एक्सपेस और श्रमशक्ति एक्सपेस की टक्कर में तीन लोगों की मौत हो गई थी, जबकि लगभग 12 अन्य घायल हो गए। इस साल के शुरू में ही एक ही दिन तीन हादसे हुए थे। 2 जनवरी को घने कोहरे के कारण तीन दुर्घटनाएं हुईं और इनमें 15 जानें गईं।

पिछले साल 14 नवंबर को दिल्ली आ रही मंडोर एक्सपेस ट्रेन जयपुर के पास बस्सी में पटरी से उतर गई। ट्रेन का कुछ हिस्सा एसी बोगी में जा घुसा। दुर्घटना में सात लोगों की मौत हो गई और 60 से अधिक घायल हो गए। 21 अक्टूबर को नॉर्दन रेलवे के मथुरा-वृंदावन के बीच पर गोवा एक्सप्रेस ने मेवाड़ एक्सप्रेस को टक्कर मार दी थी। इस दुर्घटना में 22 लोग मारे गए और 26 घायल हो गए थे।

इतना ही नहीं। दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुए भगदड़ को आखिर कौन भूल सकता है। चारो तरफ बिखरा पड़ा चप्पल और खून के छिंटे। बचाने की पुकार। भागने की चीख। राजधानी एक्सप्रेस में चढ़ने वाले उन लोगों की रूह आज भी कांप जाती है, जब उन्हें नक्सलियों द्वारा बंधक बनाये जाने की बात याद आती है।

ममता दी, आपका रेलवे इतना लापरवाह क्यों हो गया है। एक शेरनी बेबस क्यो हो गयी है। संसद में गुंजने वाली दहाड़ कहां गुम हो जाती है। बहुत हो गया ममता दी। आखिर कब तक चलेगा ये सिलसिला। कब जागेगी आपकी ममता। कब तक लोग ट्रेन से यमलोक जाते रहेंगे और आप इस पर राजनीति करती रहेंगी। अब बस कीजिए।

                                                                                             एक रेल यात्री

मंगलवार, मई 25, 2010

गुनेहगार कौन

बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नीतीन गडकरी ने सबसे बड़ा फैसला झारखंड में सरकार बनाने का लिया था। लेकिन सबकुछ गड़बड़ा गया। बीजेपी और झारखंड विकास मोर्चा के बीच एक महीने से चल रहा खेल खतम हो गया है। दोनों में जीत किसकी हुई, नहीं कह सकते हैं। लेकिन हार आम जनता की हुई है, जिसकी उम्मीद पर पिच बनाकर मैच खेला जा रहा था। कुछ लोग निराश हैं। कुछ गुस्से में हैं। और कुछ शांत बैठे हैं, जिनका ये मानना है कि ऐसा तो होना ही था। लेकिन सब मिलकर गुस्से वाले समुह को आगे बढ़ाकर उन दोषियों को खोज रहे हैं जिनके कारण से ये हार हुई है।


               गुरूजी की गुगली पर गडकरी रिटायरहर्ट हो गये। अर्जुन मुंडा के साथ मिलकर जितना कुछ सोचा था, सब कुछ सत्यानाश हो गया। राजनीति के माहिर खिलाड़ी शिबू सोरेन ने सत्ता के टी ट्वेंटी में ऐसा रोमांचक मैच दिखाया कि सब के सब हक्के बक्के रह गये। मैच कभी जेएमएम के पाले में तो कभी बीजेपी के पाले में रहा। लेकिन कमाल देखिये कि रन-रेट के हिसाब से कांग्रेस ट्रॉफी के करीब दिख रही है।

             कुछ दिनों पहले इंडियन प्रीमियर लीग को लेकर खेल में कुछ ऐसी राजनीति हुई कि विदेश राज्य मंत्री शशि थरुर की कुर्सी चली गई... तो झारखंड में राजनीति में ऐसा खेल हुआ कि गडकरी की किरकिरी हो गयी। शिबू सोरेन ने ये साबित कर ही दिया कि राजनीति में कोई किसी का नहीं होता, बस मौका मिलना चाहिए, जब और जिसके साथ मौका मिला, आगे बढ़ गये। और हां, उन्होंने बीजेपी को भी कहीं का नहीं छोड़ा। सत्ता के प्रति बीजेपी के मोह को भी बेनकाब कर दिया।

                अगर पिछले 9 साल के झारखंड के राजनीतिक इतिहास को देखें तो जेएमएम और बीजेपी दुनों ही पार्टियां हमेशा आमने सामने रही है। दोनों ने हरेक रणनीति, एक दूसरे के खिलाफ बनाई है। बीजेपी को निर्दलीय तो जेएमएम को कांग्रेस रास आई है। लेकिन कुर्सी का खेल देखिये कि विधान सभा चुनाव से पहिले एक दूसरे को गरियाने वाले, गलबहियां कर बैठे। और फिर खंडित जनादेश का हवाला देते हुए जनता के हित की बात कहकर एक दूसरे का हाथ भी पकड़ लिया। लेकिन पांच महिने बाद ही फिर से जनता के हित की बात कहकर तलाक ले लिये। अब आखिरी में भी वही सवाल है कि पहले वाला साथ जनता के हित में था या तालाक वाला। हम भी इसका सही जवाब खोज रहे हैं। आप भी खोजिये। मिल जाये तो जरूर बताइयेगा।

रविवार, मई 09, 2010

मदर्स डे........

तेरे दामन में चांद हैं
तो होंगे ऐ फलक,
मुझको मेरी मां की
मैली ओढ़नी अच्छी लगती है ।।

अभी ज़िंदा है मेरी मां,
मुझको कुछ भी नहीं होगा,
मैं जब घर से निकलता हूं
दुआ भी साथ चलती है।।
                                 मुनव्वर राणा

गुरुवार, मई 06, 2010

एक मां की मजबूरी।

आखिर क्यों एक मां इतनी मजबूर हो गयी कि उसे अपनी जवान बेटी की हत्या के आरोप में पुलिस पकड़ कर ले गयी। क्या धर्म, जाति और समाज इतना निर्मम होता है कि वो न्याय और अन्याय में फर्क मिटा देता है। पत्रकार निरुपमा पाठक मौत मामले ने एक नये बहस को जन्म दे दिया है।


निरुपमा पाठक के साथ, जो भी हुआ, बिल्कुल गलत हुआ। जाति या धर्म के नाम पर इस तरह की कुकृत्य कीसी भी क़ीमत पर बर्दास्त ए काबिल नहीं है। लेकिन ज़रा उस स्थिति को टटोलने की कोशिश कीजिए, जिस क्षण में एक पढ़ा लिखा जिम्मेदार परिवार इतना बहक गया कि उसको अपनी बेटी की एक पसंद नगवार गुजरी। जो मां बाप अपने बच्चे को जन्म देता है, संस्कार देता है, अंगुली पकड़कर चलना सीखाता है। पढ़ना और बढ़ना सीखाता है। आपको आगे बढ़ने की हिम्मत देता है। आपकी ज़रुरत की हर चीज़ पूरा करता है। तो क्या वो आपसे सिर्फ एक सहमति की उम्मीद नहीं कर सकता। आप जिस सोच के हैं, उसके अनुसार वो रुढ़ीवादी हैं। परंपरावादी हैं। यहां तक कि वो ग़लत हैं। लेकिन जो अब तक आपकी सौ गलतियों को माफ किया है, क्या आप उनकी एक गलती को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते हैं।

अगर हमारे मां बाप ऐसा सोचते हैं तो क्या हमारा इतना कर्तव्य नहीं बनता है कि हमें अपने आप को थोड़ा बदलना चाहिए। हमें थोड़ा उनकी नज़र से भी सोचना चाहिए। हर कोई अपनी संतान को लेकर एक सपना देखता है। वो चाहते हैं कि जो हम ना कर सके वो हमारे बच्चे करें। बच्चा जब गर्म में रहता है, तब से ही परिवार वाले उसके साथ एक सपना बुनना शुरू करते हैं। यही कारण है कि वो हमें वो सबकुछ देतें है, जिसकी हमें ज़रूरत है।

 आप अपने मां बाप को नहीं बदल सकते। उन्होंने आपको लेकर कई सपने देखें हैं। उसे पूरा करने के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया है। अगर आपके घरवाले रुढ़ीवादी, परंपराबादी हैं। लेकिन आप बदलाव लाना चाहते हैं तो  खुद से इसकी शुरूआत करना असहज होता  है। अतिकठिन है। अगर हम हिम्मत करते हैं तो हमेशा इसका परिणाम सुखद नहीं होता। जो निरूपमा पाठक के साथ हुआ। अनुपमा एक पढ़ी लिखी होनहार लड़की थी। विद्रोही स्वभाव की युवती थी। वो समाज की रुढ़ीवादी ढ़कोसला को एक ही पल में तोड़ देना चाहती थी। उसमें समाज को बदलने का जज्वा था। लेकिन उससे एक गलती हो गयी। उसकी गलती यही थी कि वो अपने मां बाप की इच्छा के विपरीत समाज को बदला चाहती थी। जो वो नहीं कर सकी। अब वो नहीं रही। उसका सपना सपना ही रह गया। उसकी हत्या हुई या उसने आत्महत्या कर ली। इसका जांच हो रहा है। जो भी हो। लेकिन हकीकत यही है कि देश और समाज ने एक कर्तव्यनिष्ठ, होनहार और विलक्षित युवा प्रतिभा को खो दिया है। वो हम लोगों को छोड़ के चली गयी। लेकिन एक बहस छोड़ गयी। एक निष्कर्षविहीन बहस। निरंतर चलने वाला बहस। अगर आपके पास जवाब है तो तर्क संगत जवाब दीजिए।

बुधवार, अप्रैल 14, 2010

नक्सली हमले के बाद..............

हम कैसे भूल सकते हैं

उस लोहमर्षक मंजर को,
छाती पर बैठकर
दिल में चुभो दिये गये खंजर को,

हमें अपने घाव को
तब तक कुदेरते रहना होगा
जब तक कि उसको
तबाह ना कर दूं ,
उसको बर्वाद ना कर दूं ,

इंतकाम की ज्वाला को
अपने सीने में जलाते रखना होगा,
रंग और ख़ून में फर्क समझना होगा,

आखिर कब तक
हम मौत की सौगात को स्वीकारते रहेंगे,
अपनों की लाशों को ढ़ोते रहेंगे,
अपने परिजनों को खोते रहेंगे,
बंदूक से खेलने वालों के साथ
समझौता की बात करते रहेंगे,

उसे हमको मारने की नियत बन चुकी है,
हमें भूलने की आदत हो चुकी है,

लेकिन अब नहीं,
हम नहीं भूलाना चाहते इस ज़ख़्म को,
क्रुररता से भरे उस क्षण को,
इस बार हमें कुछ करना होगा,
अपनी ज़मीर को जगाना होगा,
अपनी सहानुभूति को ही
अब शस्त्र बनाना होगा,
ताकि जन्म लेने वाला बच्चा
उसके डर से
गर्भ में ही ना दम तोड़ दे ।।

सोमवार, मार्च 29, 2010

उनसे मिलने की तमन्ना है..............

आज वो फिर खुद से रूठ गई होगी


आज वो फिर कहीं तन्हा बैठी होगी

खाते वक्त हिचकियां आती है बहुत

वो दिल से मुझे याद  कर रही होगी।



अरसे बीत गये उनसे मुलाकात हुए

प्यार से प्यार का दीदार हुए

आज भी इंतजार में बैठा हूं मैं

उसकी चाहत की दीया जलाये हुए ।



अपने घर से जब चली थी वो

आखिरी बार तब मिली थी वो

दिल में हमारी जज्बात दबाये हुए

मुझसे बिछड़ गयी थी वो ।



मुझसे दूर रहकर वो कितनी रोई होगी

टूटकर डाल से वो फूल मुरझा गयी होगी

आखिरी बार उसे देखने की हसरत

सालों बाद वो कैसी हो गयी होगी ।।

बुधवार, जनवरी 27, 2010

करप्शन बिल को मंजूरी


बिहार में घूसखोरों के लिए बुरी खबर है। खासकर बाबुओं के लिए। केन्द्र सरकार ने बिहार सरकार के एंटी करप्शन बिल को मंजूरी दे दी है। इसके तहत भ्रष्टाचार के आरोपियों की संपत्ति जब्त कर ली जायेगी। थोड़ी परेशानी की बात है। लेकिन उन्हें ज्यादा घबराने की जरूरत है। क्योंकि ये सब तभी होगा, जब वो दोषी साबित होंगे।


इस बिल को मंजूरी देकर केन्द्र सरकार ने तो आठ महीना पुराना अपना बोझ हल्का किया है। बिहार सरकार ने दोनो सदनो में मंजूरी के बाद इसे केन्द्र सरकार के पास भेज दिया था। केन्द्र की मंजूरी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक शगुफा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचारियों को जेल तो जाना ही होगा साथ ही उनके घर में स्कूल खोल दिये जायेंगे। ठीक है। सब कुछ होगा। लेकिन पहले दोष को तो साबित करना होगा।

जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे तो भारी संख्या में भ्रष्ट अधिकारी पकड़े गये। 2008 में 78 मामलों में 97 लोगों की गिरफ्तारी हुई। जबकि 2009 में पचास मामले सामने आये जिसमें 62 लोग गिरफ्तारी हुई। 2006 में साठ मामले में 66 की गिरफ्तारी हुई। 2007 में 108 मामले सामने आये जिसमें 131 लोगों की गिरफ्तारी हुई।

लेकिन क्या हुआ। पकड़े गये। सस्पेंड हुए। जेल भी गये। और जमानत मिल गई। और आज या तो वो फिर से काम कर रहे हैं या घर पर हैं। मिलाजुला के ठीकठाक हैं। इतना कमा लिये हैं कि नौकरी पर नहीं भी रखे गये तो भी मस्त हैं। और वो इतना बेवकुफ तो हैं नहीं कि सभी संपत्ति अपने नाम से रखे होंगे।

खैर कानून बना है। ऐसे ही कानून और नियम बनते रहते हैं। इससे पहले भी कई कानून बने और वो किताब के पन्नों में दीमक के साथ खेल रहे है। ये कानून भी किताबों में ही धूल फांकेगा या कुछ गुल भी खिलायेगा ये तो उन्हीं अधिकारियों पर निर्भर करता है, जिनके लिए ये कानून बना है । लेकिन एक लॉ के छात्रों को रट्टा मारने के लिए एक और थ्योरी मिल गयी है।


मंगलवार, जनवरी 26, 2010

मैं गणतंत्र हूं

साठ साल का बूढ़ा


शून्यता में भटकता

कराहता, पुकारता

बीच राह पर पड़ा हूं

निशक्त बन निहारता

असमर्थता की भाव से

लोग मुझे देखता

आन, बान, शान हूं

मैं देश का अभिमान हूं

गण का मैं तंत्र हू

पर गन वाले संभालता

अभ्रदता के साथ जब-जब

वो मुझसे खेलता

तब ये दर्द बहुत सालता ।।

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

आईपीएल, पाकिस्तान और सियासत


यह बिल्कुल गलत है। खेल को सियासत से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत-पाकिस्तान के बीच मतांतर के बावजूद खेल जारी रहा। और रहना भी चाहिए। लेकिन आईपीएल की मंडी में पाक क्रिकेटरों की बोली नहीं लगने पर पाकिस्तानियों ने इसे सियासत से जोड़ दिया। वह इसे बडा़ कुटनीतिक मुद्दा मानकर ज़हर उगलना शुरू कर दिया है।

               दरअसल पाकिस्तान पहले से ही वर्ल्ड कप की मेजबानी छिनने का आरोप भारत पर लगा रहा है। अब जब आईपीएल की मंडी उनका खीरीददार नहीं मिला तो वे विफर पड़े। और इसमें उन्हें पाकिस्तान के विभिन्न रजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों का समर्थन मिल रहा है। अफसोस की बात ये है कि वे बीसीसीआई या आईपीएल के फैसले को भारत सरकार के फैसले से जोड़कर देख रहे हैं।
                बीसीसीआई ने खालाड़ियों को बोली के लिए खड़ा कर अपना काम कर दिया। अब ये फ्रेंचाइजी टीम के मालिकों पर निर्भर करता है कि वो किस खिलाड़ी को खरीदे और किसे नहीं। पाकिस्तानी खिलाड़ी की बोली नहीं लगने से एक बात तो साफ है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नहीं चुना जाना, ये वास्तव में 26-11 का टीस है। क्योंकि आईपीएल के सभी मालिक मुम्बई से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। और मुम्बई के बातवरण से प्रभावित होते हैं। ऐसे में कही न कहीं उनके दिल में दर्द आज भी बाकी है। लेकिन इससे बीसीसीआई की मंशा पर प्रश्न चिह्न लगाना सरासर गलत होगा।            
             आईपीएल में अच्छी-खासी कमाई के साथ-साथ नाम भी हो जाता है। लेकिन उन्हें खरीदने के लिए कोई टीम तैयार नहीं हुआ। ऐसे में बौखलाये पाकिस्तानी खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया तो स्वभाविक मानी जा सकती है। पर वहां के हुक्मरानों का बयान बेहद निरशाजनक और शर्मनाक है। एक ऐसे समय जब दोनों देशों के रिश्ते धीरे-धीरे समान्य पटल पर लौटने की कोशिश कर रहा है। उस समय पाकिस्तान सरकार का तीखा बयान तल्खी उत्पन्न कर ही देगा।

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

नस्लवादी आस्ट्रेलिया


आस्ट्रेलिया नस्ली हिंसा की आग में जल रहा है। हर दिन वहां विदेशियों पर हमले हो रहे हैं। साल की शुरूआत होते ही दो भारतीयों को जान से मार दिया गया। आधा दर्जन लोगों पर जानलेवा हमले हुए हैं।
          आस्ट्रेलियाई मानवता को ताक पर रखकर नस्लवाद के पीछे पड़ गये हैं। नस्लवाद के जुनून में अंधे होकर वे इतने क्रूर हो गये हैं कि जान लेने को आतुर हैं। जहां भी मौका मिलता है विदेशियों पर निर्ममतापूर्वक हमला कर देते हैं। घृणा का रूप इतना विकराल है कि इंसानियत शर्मसार हो जाती है। लोगों को जिंदा जला दिया जाता है। चाकुओं से गोद-गोदकर हत्या कर दी जाती है।
    इस तरह घटनाओं में पिछले साल बेहतासा वृद्धि हुई। साल 2009 में एक सौ भारतीयों को जान से मार दिया गया, जबकि 2008 में 17 भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया गया। वहां भारतीयों के साथ-साथ दूसरे देशों के लोगों को भी शिकार बनाया जाता है। जिसमें नेपाल, अफ्रिका और यूनान के नागरिक प्रमुख हैं।
       वहां सिर्फ छात्रों या कामगारों पर ही हमले नहीं होते, बल्कि खिलाड़ियों के साथ भी अभद्रता की जाती है। क्रिकेट खेलने गये भारतीय खिलाड़ी जब फिल्डिंग कर रहे थे तो दर्शकों ने उनके उपर इंटा-पत्थर फेंका था। इतना ही नहीं, श्रीलंका की क्रिकेट टीम जब आस्ट्रेलिया पहुंची तो किसी ने मुथैया मुरलीधरन के मुंह पर अंडा फेक दिया था।
         इतना कुछ हो जाने के बावजूद आस्ट्रेलिया की सरकार मौन है। बेशर्मी का आलम तो यह है कि हिंसा रोकने के बजाय सरकार इसे नस्ली मानने से इंकार कर रही है। वह भारत पर ही मामला तूल देने का आरोप लगा रही है। लेकिन सच तो ये है कि आस्ट्रेलिया का इतिहास नस्लवाद की बर्बरता का गवाह रहा है। दरअसल वहां के बहुसंख्य लोग यूरोप से आये हैं। आस्ट्रेलिया आने के बाद उनलोगों ने वहां के मूल निवासी, जो एबोरिजनल थे, उनका दमन करना शुरू किया। यहां तक की उन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। 1965 तक तो उन्हें वोट देने का अधिकार तक नहीं था। और आज भी वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
      इन तमाम बातों से साफ है कि इस स्थिति में वहां की सरकार से न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है। ऐसे में भारत सरकार को ही यथाशिघ्र ठोस उपाय सोचना होगा और चिर निद्रा में सो रही विश्व शांति समुदाय को जगाना होगा। जिससे आस्ट्रेलिया पर दवाब बने। अन्यथा इस तरह के हमले जारी रहेंगे और लोग नस्लवाद के धमनभट्ठी में जलते रहेंगे।


सोमवार, जनवरी 18, 2010

नेताजी का क्या कहिन

क्या से क्या हो गया। कुछ ही पलों में बहुत कुछ बदल गया। अपने बेगाने हो गये। नेता हैं। प्रोफेशन ही ऐसा है कि ये सब होता रहता है। नेता किसी एक का नहीं होता। वो कब किसका हो जाय, खुद को भी पता नहीं रहता। सब कुछ अचानक होता है। पलभर में दोस्त दुश्मन बन जाते हैं, दुश्मन दोस्त बन जाता है। अलग होने के बहाने कई होते हैं। कोई निकाल दिये जाते हैं. कोई खुद निकल जाते हैं।  कुछ ऐसा ही हुआ नेताजी के साथ।
           सब कुछ लुटने के बाद नेताजी को अब समाजवाद याद आया है। इतने दिनों तक परिवारवाद में उलझे हुए थे। अपनी गलती मान रहे हैं। समाजवादियों को इकट्ठा करेंगे। और इसकी शुरूआत वो क्षत्रिय चेतना रथ को हरी झंडी दिखाकर करेंगे। नेताजी ने पार्टी के लिए क्या कुछ नहीं किया। बड़े-बड़े नेता तक को गरिया दिया। बड़ी-बड़ी हस्तियों को पार्टी से जोड़ा। मुम्बई से लाकर चुनावी मैदान में खड़ा किया। पैसा के साथ-साथ भीड़ भी जुटाई। लेकिन एक बार सच क्या बोल दिये अपने ही बेगाने हो गये। जिसको जो मन हुआ बोलने लगे। नेताजी खुद बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं। उन्हीं के खिलाफ कोई अनाप शनाप बोले तो वो कैसे सहन कर सकते। वो भी जब कोई अपन हो तो टीस ज्यादा होती है। यही हुआ नेताजी के साथ। नेताजी कोई ऐरे-गेरे तो हैं नहीं। क्लिंटन से लेकर शहंशाह तक के किचन में अपनी पहुंच रखते हैं। किसी का रौब कैसे बर्दश्त करते। सो आव देखे ना ताव दे दिया इस्तीफा। मनाने की बहुत कोशिश की गई। पर वो अपने जिद पर अड़े रहे। और आखिरकार इस्तीफा मंजूर कर लिया गया।
           महीनों से जारी किचकिच फिलहाल तो रूक गया है। लेकिन नये समाजावाद के बहाने नेताजी की अगली राजनीतिक पहल के बारे में कयास शुरु हो गया है। नेताजी रंगीन मिज़ाज आदमी हैं। फिल्मी हस्तियों से ज्यादा संपर्क में रहते हैं। जुगाड़ लगा चुके हैं। फिल्मों में काम भी मिल चुका है। हो सकता है बुढ़ापे में कुछ दिन माया नगरी में ही बिताये। कोई बात नहीं। यहां के महफिल में भी किस्मत आजमा के देख लीजिए। हमारा भी शुभकामना आपके साथ है।

शनिवार, जनवरी 16, 2010


हंसते अंधेरे से भयभीत होना छोड़ दो
जीतना है जंग तो आंसू बहाना छोड़ दो।


लूटने आता लुटेरा, आगे बढ़ कर लूट लो़
जिंदा रहने के लिए गिड़गिड़ाना छोड़ दो।


उठने लगता है तो दुश्मन का हाथ काट दो
नपुंसकों की तरह सर झुकाना छोड़ दो।


गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की ठान लो
बलहीन पशुओं की तरह पुंछ हिलाना छोड़ दो।


बेबसी, लाचारी से तुम तोड़ दो रिश्ता
इंसान बन आये हो तो इतिहास लिखकर छोड़ दो।।

मॉडर्न समाज

आजकल इज्जतदारों के भाव गिर गये हैं
औने-पौने दाम पर इमान बिक रहे है।

लगने लगी है रिश्तों की बोलियां
इंसान सरेआम नीलाम हो रहे है।

लंबी-लंबी कार पर चढ़ने की हसरत में
शहर में तेजी से बेइमान बढ़ रहे हैं।

इस मॉडर्न बाजार में जो शिरकत नहीं करते
वो रइसों की सोसाइटी से दरकिनार हो रहे हैं।

बदलने लगी है अब बेशर्मों की परिभाषा
बिकने वाले लोग अब किताब लिख रहे हैं ।।

बुधवार, जनवरी 06, 2010

आंकड़ों का खेल

पिछले कुछ दिनों में बिहार में दो नये आंकड़े आये है। दो अलग-अलग क्षेत्र में। एक बिहार की गरीबी को दिखा रही है तो दूसरे में बिहार को सबसे तेजी से विकास करने वाला राज्य बताया है। लेकिन इस सब के बीच आम जनता कहां हैं। जहां है परेशान हैं।
सर्दी का सितम जारी है। हाड़ कंपकंपा देने वाली ठंड है। कनकनी ऐसी की कलेजा बाहर निकल जाय। ऐसे में भी हजारों लोग सड़क के किनारे रात काटने को मजबूर हैं। लोगों की समस्यायें सिर्फ इतनी ही नहीं है। और भी कई वाजिब कारण है। आंकड़ें भी है। हकीकत भी। महंगाई चरम पर है। सुखाड़ के कारण खेत खाली है। अपने साथ-साथ पशुओं की भी चिंता है। हजारों लोगों की नौकरी छुटी हुई है। जो लोग राज्य से बाहर रहकर रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं वो भी खुश नहीं हैं। पंजाब में पुलिस पीट रही है तो दिल्ली की मुख्यमंत्री उलहाना दे रही हैं। ये स्थिती कमोबेश सभी दूसरे राज्यों का भी है। इसके साथ आंकड़े भी बताते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं है।
यदि सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी स्थिती अच्छी नहीं है। तेंदुलकर की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 75।14 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। आम लोग त्रस्त है।
लेकिन राज्य विकास कर रही है। सरकार खुश है। सरकार इसे साबित करने के लिए नये आंकड़े का सहारा ले रही है। जिसमें कहा गया है कि बिहार का विकास दर 11.03 फीसदी है। यानी देश के विकास दर (8.49) से करीब तीन फीसदी ज्यादा। जबकि देश का सबसे ज्यादा विकसित राज्य गुजरात से महज 0.2 प्रतिशत कम।खैर, जमीनी तौर पर इतनी हकीकत कहीं नहीं दिखती है जिससे इस बात की पुष्टि हो सके कि विकास दर में बिहार दूसरे स्थान पर है। ऐसे में लगता है कि या तो विकास राज्य के महज 25 प्रतिशत लोगों में हुआ है या कागजी है। लेकिन सरकार ढ़िढ़ोरा पिट रही है। कुछ महीनें बाद चुनाव होने वाला है। और वो चुनाव में इस बात को भुनाना चाहते है। और इसी की कोशिश में लगे हैं। क्योंकि नेता जानते हैं कि भूखा सोने को भी तैयार है ये देश मेरा आप परियों का उसे ख्वाब दिखाते रहिये।