गुरुवार, मई 06, 2010

एक मां की मजबूरी।

आखिर क्यों एक मां इतनी मजबूर हो गयी कि उसे अपनी जवान बेटी की हत्या के आरोप में पुलिस पकड़ कर ले गयी। क्या धर्म, जाति और समाज इतना निर्मम होता है कि वो न्याय और अन्याय में फर्क मिटा देता है। पत्रकार निरुपमा पाठक मौत मामले ने एक नये बहस को जन्म दे दिया है।


निरुपमा पाठक के साथ, जो भी हुआ, बिल्कुल गलत हुआ। जाति या धर्म के नाम पर इस तरह की कुकृत्य कीसी भी क़ीमत पर बर्दास्त ए काबिल नहीं है। लेकिन ज़रा उस स्थिति को टटोलने की कोशिश कीजिए, जिस क्षण में एक पढ़ा लिखा जिम्मेदार परिवार इतना बहक गया कि उसको अपनी बेटी की एक पसंद नगवार गुजरी। जो मां बाप अपने बच्चे को जन्म देता है, संस्कार देता है, अंगुली पकड़कर चलना सीखाता है। पढ़ना और बढ़ना सीखाता है। आपको आगे बढ़ने की हिम्मत देता है। आपकी ज़रुरत की हर चीज़ पूरा करता है। तो क्या वो आपसे सिर्फ एक सहमति की उम्मीद नहीं कर सकता। आप जिस सोच के हैं, उसके अनुसार वो रुढ़ीवादी हैं। परंपरावादी हैं। यहां तक कि वो ग़लत हैं। लेकिन जो अब तक आपकी सौ गलतियों को माफ किया है, क्या आप उनकी एक गलती को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते हैं।

अगर हमारे मां बाप ऐसा सोचते हैं तो क्या हमारा इतना कर्तव्य नहीं बनता है कि हमें अपने आप को थोड़ा बदलना चाहिए। हमें थोड़ा उनकी नज़र से भी सोचना चाहिए। हर कोई अपनी संतान को लेकर एक सपना देखता है। वो चाहते हैं कि जो हम ना कर सके वो हमारे बच्चे करें। बच्चा जब गर्म में रहता है, तब से ही परिवार वाले उसके साथ एक सपना बुनना शुरू करते हैं। यही कारण है कि वो हमें वो सबकुछ देतें है, जिसकी हमें ज़रूरत है।

 आप अपने मां बाप को नहीं बदल सकते। उन्होंने आपको लेकर कई सपने देखें हैं। उसे पूरा करने के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया है। अगर आपके घरवाले रुढ़ीवादी, परंपराबादी हैं। लेकिन आप बदलाव लाना चाहते हैं तो  खुद से इसकी शुरूआत करना असहज होता  है। अतिकठिन है। अगर हम हिम्मत करते हैं तो हमेशा इसका परिणाम सुखद नहीं होता। जो निरूपमा पाठक के साथ हुआ। अनुपमा एक पढ़ी लिखी होनहार लड़की थी। विद्रोही स्वभाव की युवती थी। वो समाज की रुढ़ीवादी ढ़कोसला को एक ही पल में तोड़ देना चाहती थी। उसमें समाज को बदलने का जज्वा था। लेकिन उससे एक गलती हो गयी। उसकी गलती यही थी कि वो अपने मां बाप की इच्छा के विपरीत समाज को बदला चाहती थी। जो वो नहीं कर सकी। अब वो नहीं रही। उसका सपना सपना ही रह गया। उसकी हत्या हुई या उसने आत्महत्या कर ली। इसका जांच हो रहा है। जो भी हो। लेकिन हकीकत यही है कि देश और समाज ने एक कर्तव्यनिष्ठ, होनहार और विलक्षित युवा प्रतिभा को खो दिया है। वो हम लोगों को छोड़ के चली गयी। लेकिन एक बहस छोड़ गयी। एक निष्कर्षविहीन बहस। निरंतर चलने वाला बहस। अगर आपके पास जवाब है तो तर्क संगत जवाब दीजिए।

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