सोमवार, दिसंबर 19, 2011

तुम...

तुम्हारे साथ रहता हूं
तो जीता हूं मैं जी भरकर
मैं तुमसे दूर होता हूं
तो याद आती है रह रहकर
इसे चाहत कहो
या तुम इसे कह लो पागलपन
हक़ीक़त ये है कि
तुम बिन कहीं लगता नहीं है मन ।।

शनिवार, दिसंबर 10, 2011

क्रिकेट के ज़रिए नई उम्मीद

इंदौर में जब इतिहास बन रहा था, होलकर स्टेडियम में 22 गज के पिच पर 38 इंच का बल्ला लेकर जब वीरेन्द्र सहवाग गेंद को बॉड्री से बाहर पहुंचा रहे थे, उस वक्त क्रिकेट का रोमांच चरम पर था। भाषावाद, क्षेत्रवाद, देशवाद की तमाम सीमाएं टूट रही थी। महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक और दिल्ली से लेकर तमिलनाडु तक हर कोई सहवाग की कारिस्तानी को जेहन में कैद कर रहा था। दुनियाभर के क्रिकेटप्रेमी टेलीविजन से चिपक गये थे। इंग्लैंड से केविन पिटरसन और ऑस्ट्रेलिया में बैठकर न्यूजीलैंड के खिलाड़ी डेनियल विटोरी मैच का लुत्फ उठा रहे थे। ट्विटर पर शुभकामना दे रहे थे। क्रिकेट प्रेमियों को ये क्षण ना चूकने के लिए कह रहे थे। सहवाग का सबसे तेज़ दोहरा शतक लगते ही दुनियाभर से शुभकामनाएं आने लगी। पाकिस्तान से लेकर ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में भी सहवाग की चर्चा होने लगी। पाकिस्तान के क्रिकेटरों को सहवाग पर ही भरोसा था। यानी एक वक़्त ऐसा लगा मानो दुनिया एक हो गई हो। हर कोई भारतीय क्रिकेट के कायल हो गये थे। सहवाग को शाबासी दे रहे थे। तो इस सब के बीच जेहन में एक सवाल उठने लगा कि क्या अब क्रिकेट के आसरे दुनिया में शांति और सदभाव का भविष्य देखा जा सकता है। क्या क्रिकेट, दुनिया को उस रास्ते पर ले जा सकता है, जहां परमाणु हमले की धमकी की बजाय दूसरे देशों के लोगों को शाबासी और पीठ थपथपाते नज़र आये। ये बात तब और मज़बूती के साथ उभरती है, जब मुम्बई हमले के बाद पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भारत पहुंचते हैं, और फिर मनमोहन सिंह के साथ बैठकर पूरा मैच देखते हैं।
अगर आप इन बातों से इत्तफाक नहीं रखते तो याद कीजिए कोई मसला, वो कोई मुद्दा, वो कोई बात या वो दिन जब पूरी दुनिया एक साथ जश्न मना रही हो। दिल खोलकर दूसरे देश के लोगों को शाबासी दे रहा हो। वो भी उस वक्त जब सबकुछ प्रतियोगिता के बीच आंका जाता है। जब आगे-पीछे, जीत-हार के नज़रिये से सबकुछ देखा जा रहा हो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी धोनी की तारीफ की थी, जिसे भारत के लिए नकारात्मक सोच रखनेवालों की श्रेणी में रखा जाता है। किसी वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि टीम इंडिया की हार पर दाऊद इब्राहिम भी रोता है। यानी क्रिकेट में कुछ तो है, जो बाकी किसी और में नहीं।
आईपीएल के ज़रिए क्रिकेट का भूमंडलीयकरण हुआ। धोनी चेन्नई के कप्तान बन गये। गौतम गंभीर दिल्ली के और शेन वार्न राजस्थान के। तमाम घेराबंदी को तोड़ते हुए ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी राजस्थान के हो गये। इंग्लैंड के खिलाड़ी पंजाब के और वेस्टइंडीज के खिलाड़ी बेंगलुरू की ओर से खेलने लगे। क्रिकेट खेलते खेलते ऑस्ट्रेलिया के एडम गिलक्रिस्ट ने भारतीय बाजार में माल बेचने लगे पता नहीं चला। विज्ञापन के लिए ही सही हिन्दी बोलने लगे। ब्रेट ली ने तो बकायदा गाना तक रिकॉर्ड करवाया। घर बेचने लगे। साइमंड्स दोस्ती की नई परिभाषा गढ़ने आईपीएल के रास्ते बिग बॉस के घर तक पहुंच चुके हैं।
क्रिकेट पहले अंग्रेजों और कंगारुओं की बपौती हुआ करता था। ये उस अंग्रेजों का खेल था, जिसे भारतीय फूटी आंख देखना नहीं चाहते थे। लेकिन समय बदला तो भारत में क्रिकेट धर्म बनता गया। सचिन तेंदुलकर के रूप में क्रिकेट प्रेमियों को नया भगवान मिल गया। अंग्रेज भारतीयों के मुरीद बन गये। क्रिकेट के ज़रिए बंग्लादेश और किनिया जैसे मुल्क विश्व के मानचित्र पर पहचान बनाते हैं। चीन भी क्रिकेट टीम तैयार कर रहा है। हो सकता है कि बाज़ार को भांपते हुए अमेरिका भी जल्द ही अपनी टीम बना ले। यानी क्रिकेट के ज़रिए उम्मीद की नई किरण दिख रही है। जिसे समझने की और परखने की ज़रूरत है।

गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

टेंशन लेने का नहीं...देने का

संसद का शीतकालीन सत्र फिर संकट से जूझ रहा है। पहला हफ्ता महंगाई और कालाधन के नाम। दूसरा हफ्ता प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम। विपक्षी नेता हंगामा कर घर चले जाते। सरकार के मंत्री बैठक में चाय-पानी करते हैं। नतीजा कुछ नहीं निकल रहा। ऐसा कोई पहलीबार नहीं हो रहा। हर सत्र में कमोबेश ऐसी ही स्थिति होती है। सांसद महोदय हंगामा करके घर में सोते हैं। और हम आप माथापच्ची करते रहते। 2010 में 23 दिनों का शीतकालीन सत्र था। महज सात घंटे चल सका। पिछली बार जेपीएससी को लेकर झगड़ा हो रहा था। इस बार एफडीआई पर रगड़ा है। हालांकि झगड़ा और रगड़ा से ज्यादा इसे अगर फ्रेंडली फाइट कहें तो बेहतर होगा।
आंकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 40,000 रुपये से भी ज्या।दा खर्च होता है। यानी एक घंटे में 24 लाख रुपये। और एक दिन में 1.9 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। आप इन आंकड़ों पर मत जाइए। पढ़कर भूल जाइए। नहीं तो शॉक लगेगा। टेंशन होगा। ब्लड प्रेशर बढ़ेगा। पछतावा। और फिर मुंह से निकलेगा- छोड़ो यार। सो पहले ही छोड़ दीजिए। हमारे देश के नेताजी टेंशन लेते नहीं देते हैं। खुद सुबह सदन स्थगित कर घर में मस्ती करते हैं। अखबार वाले लेख छापते रहें। टीवी चैनलवाले बहस करते रहें। आप टीवी चैनल देखकर माथा पच्ची करते रहो। यही वे लोग चाहते हैं।
सरकार के लोग बड़ा चालाक है। कालाधन पर आडवाणी जी चिल्ला रहे थे। महंगाई पर वाम दल बमक रहा था। भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया रोज रोज आंकड़े पेश कर रही थी। सबको एक ही बार में एफडीआई का बम फोड़कर तिलमिला दिया। सब एफडीआई-एफडीआई भौंकते रहे। विश्लेषण करते रहे। इस बीच देश के विकास दर कम होने का आंकड़ा आया। सरकार से इसके बारे में पूछने की फुर्सत किसी को नहीं। करूणानिधि ने एफडीआई के मुद्दे पर सरकार के पक्ष में वोट करने का आश्वासन दिया। चुपचाप कनिमोझी को बेल मिल गया। ना तो मीडिया में इस पर विश्लेषण हुआ। और ना ही इस बार विपक्ष ने सबीआई पर सवाल उठाए।
सो, आप भी सिनेमा हॉल जाकर 'द डर्टी पिक्चर' फिल्म देखिए। या फिर कोलावेरी..कोलावेरी सुनिए। नहीं अगर, आपके भीतर देशभक्ति अकुला रही है। तो संसद के बारे में सोचने की बजाए भारत और वेस्टइंडीज के बीच मैच देखिए। भारत की जीत ताली बजाइए। भारतीय होने पर गर्व करिए। हार जाए तो कोई बात नहीं। क्रिकेट में जीत हार होता रहता है- ये सोचकर सो जाइए। और फिर भी अगर संसद और सांसद के बारे में आपके मन में कुछ कुछ होता है तो 2014 का इंतज़ार कीजिए। कुछ बेहतर करिए...सिर्फ एक बार...और जो नेता आपको पांच सालसे टेंशन दे रहे हैं....उन्हें आप टेंशन दे दीजिए ।

बुधवार, नवंबर 30, 2011

कमाल का कोलावेरी

कोलावेरी...कोलावेरी। हर किसी की जुबां पर है। हर किसी के मोबाइल पर। कम्प्यूटर के हर सिस्टम पर। म्यूजिक की दुकानों में। कोलावेरी, कोलावेरी हो रहा है। कोलावेरी के सामने ऊ ला ला से लेकर देसी ब्वॉयज तक फेल है। युवाओं का एक बड़ा हिस्सा आजकल कोलावेरिया गया है। इस गाने को लेकर युवाओं में एक अजीब तरह की दीवानगी है। पागलपन है। शहर से होते हुए ये गांव के खेत तक पहुंच चुका है। ये अलग बात है कि गांव के गणेशिया इसे केलावारी...केलावारी गाता है। तो धनबाद के कन्हैया इसे कोलियरी...कोलियरी गाता है....लेकिन, कोलावेरिया वे दोनों भी गया है।

इस गाने में तमिल और इंग्लिश के शब्द हैं। हिंदी इलाके के ज़्यादातर लोग इस गाने को समझते नहीं हैं। लेकिन सुनते हैं। सुनकर थिरकते हैं। वो भी इतने मस्त होकर कि ना जाननेवाला शरमा जाए। दूसरों को सुनने के लिए कहते हैं। एक ने कहा अच्छा है। दूसरे ने उसको फॉलो किया। गाना फेमस हुआ। गानेवाला फेमस हो गया। जिस जिसको पता नहीं था, वे सब जान गये कि तमिल एक्टर धनुष गाते भी हैं। अब तक तो फिल्मों में ही डायरेक्टर के इशारे पर धनुष को तीर छोड़ते हुए देखा था। लेकिन गाना गाकर तो धनुष ने ऐसा तीर छोड़ा कि एक ही दिन में 90 लाख लोग घायल हो गये।

कोलावेरी की इतनी बड़ी सफलता न्यूज़ चैनलों के लिए शोध का विषय बन चुका है। कुछ चैनल इस शब्द का मतलब समझा रहा है। कुछ इस पर विशेष कार्यक्रम बना रहा है। शब्द की उत्पत्ति से लेकर सफलता तक की कहानी। आधे घंटे में। रिमोट अपने हाथ में रखे रहिए। जिन्हें गीत और गाने से मतलब नहीं। वे भी समाचार चैनलों को देख देखकर कोलावेरी...कोलावेरी कर रहे हैं। एक अद्भुद रिश्ता बन गया है कोलावेरी के साथ। रात में सपनों मे भी मुंह से कोलावेरी ही निकलता है। अगर आप भी कोलावेरी..कोलावेरी करते हैं तो ठीक है। वरना सीख लीजिए। नहीं तो आगे चलकर मुश्किलें हो सकती है। क्योंकि ये गाना और गाना सुननेवालों की तदाद को देखते हुए जल्द ही सदन में कुछ नेता इसे राष्ट्रीय गीत...मां देवी की स्तुति या फिर स्कूल की प्रार्थना के तौर पर लागू करने की मांग करनेवाले हैं।

मंगलवार, अक्तूबर 11, 2011

आडवाणी की अब तक की यात्रा

लालकृष्ण आडवाणी एक और यात्रा पर निकल चुके हैं। इसी बस पर सवार हो कर आडवाणी निकल पड़े हैं देश को जगाने। जनता के बीच स्वच्छ राजनीति और सुशान का अलख जगाने। भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ केन्द्र की यूपीए सरकार को घेरने। सियासत की छठी देशव्यापी यात्रा आडवाणी लक्जरी बस से कर रहे हैं। अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस इस बस में वो तमाम चीजें मौज़ूद है। जो आडवाणी को देश दुनिया से रू-ब-रू करायेगा। बस में कम्प्यूटर के साथ इंटरनेट की सुविधा है। डीटीएच के साथ टेलीविजन लगा हुआ है। बस में हाइड्रोलिक सिस्टम लगा हुआ है। बस के साथ 18 गाड़ियों का काफिला रहेगा....किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए एम्बुलेंस रहेगा। 20 नवंबर तक चलने वाली यात्रा 6 चरणों में पूरी होगी। इस बस को महाराष्ट्र के पूणे में तैयार किया गया है। पूरी तरह से बातानुकुलित बस में एक छोटा सा बेडरूम, हॉल और बाथरूम है। रथ यात्रा के खांटी खिलाड़ी लालकृष्ण आडवाणी की सवारी इस बार बदल गई है। अब तक रथ के आकार की गाड़ी पर यात्रा करने वाले आडवाणी इस बार लक्जरी बस से सफर कर रहे हैं। राम का नाम लेकर 1990 आडवाणी सोमनाथ से चले थे रथ पर। इसके बाद देश की आज़ादी के पचास साल पूरे होने पर 1997 में आडवाणी ने स्वर्ण जयंती रथ यात्रा निकाली थी। 2004 में आडवाणी ने भारत उदय यात्रा निकाली। एनडीए के शासन काल में निकली इस यात्रा में इंडिया साइनिंग का नारा दिया गया। जिसे देश ने नकार दिया। 2006 में आडवाणी ने आतंकवाद को लेकर भारत सुरक्षा नाम से रथ यात्रा निकाली। 2009 में आडवाणी ने जनादेश यात्रा निकाली। लोगों ने इसे भी नकार दिया। लेकिन वक्त बदला। मुद्दा बदला और सवारी भी। अगले 40 दिनों तक 7600 किलोमीटर तक का सफर आडवाणी इसी बस से करेंगे...

जन चेतना यात्रा

वक्त बदला। निजाम बदला। मुद्दा बदल गया। और सवारी भी। राम मंदिर को छोड़ लालकृष्ण आडवाणी अब भ्रष्टाचार और स्वच्छ राजनीति के लिए लोगों को जगाने चले हैं। रथ को छोड़कर लक्जरी बस में सवार हो चले हैं। राम रथ के बदले इस बार जन चेतना यात्रा है।
आडवाणी एक तीर से कई निशाना साध रहे। सबसे पहली बात, जिस बिहार में उनके रथ को रोक दिया गया। वहीं से उन्होंने रथ की शुरुआत की। 1990 में रथ रोककर रातोंरात राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले लालू को करारा जवाब है। इस बार लालू के ही संसदीय क्षेत्र से यात्रा की शुरुआत हुई है। उस वक्त लालू यादव की सरकार थी। लालू अभी भी कशमशा रहे हैं। पर कटे पक्षी की तरह छटपटा रहे हैं। कोई क्यूं नहीं रोकता आडवाणी की गाड़ी को। लेकिन क्या करें। उनके पास उतनी ताक़त नहीं बची। और जिसके पास ताक़त है, वो खुद सारथी के साथ है।
दूसरी बात, आडवाणी इस यात्रा के ज़रिए भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाकर मिशन 2014 को तय करना चाहते हैं। इसके लिए जननायक जेपी के जन्म दिन और जन्म स्थली से बेहतर जगह नहीं मिल सकता था। सो उन्होंने सीताब दियारा से ही इस यात्रा की शुरुआत की।
तीसरी बात, पीएम इन वेटिंग के लिए नरेन्द्र मोदी कुलबुला रहे थे। उन्हें भी आडवाणी ने मौन जवाब दे दिया। इस मसले पर आडवाणी को जदयू का दिल खोलकर समर्थन मिला। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के दबाव के बावजूद आडवाणी ने हर संभव साबित करने की कोशिश है कि एनडीए का सर्वमान्य नेता अभी तक वही हैं।
देश में भ्रष्टाचार और महंगाई बड़ा मुद्दा है। जनता इसकी आग में झुलस रही है। यूपीए सरकार के खिलाफ आवाम में गुस्सा है। अन्ना हज़ारे के ज़रिए लोग अपनी ताक़त दिखा चुके हैं। आडवाणी उसी ताक़त को अपने पक्ष में लाकर ज़िंदगी की अंतिम ख्वाहिश पूरा करना चाहते हैं।
रथ यात्रा के खांटी खिलाड़ी लालकृष्ण आडवाणी देश को जगाने चले हैं। जनता के मिजाज को टटोलने में जुटे हैं। 23 राज्यों और चार केन्द्र शासित प्रदेशों में पहुंचकर हुंकार भरेंगे। परिवर्तन की भूमि से शुरू की गई इस यात्रा में आम लोगों का उत्साह देखना होगा....क्योंकि 84 साल के आडवाणी की ज़िंदगी की ये अंतिम अंतिम देशव्यापी यात्रा होगी।

मंगलवार, सितंबर 13, 2011

कॉर्पोरेट ग़रीब

कॉर्पोरेट गरीब। यानी बड़ी कंपनी में कम सैलरी पर काम करने वाले कर्मचारी। ऊंची मत्वाकांक्षा। कुछ पाने की हसरत। मेहनत से सपने को हक़ीकत में बदलने का जज़्बा। आइरन किया हुआ शर्ट-पैंट। चमचमाते जूते। आंखों पर चश्मा। जो हर सुबह समय पर ऑफिस पहुंचता है। दिनभर कम्प्यूटर के साथ हाई प्रोफाइल माथापच्ची करता है। बॉस की गालियां सुनता है। दिल में दर्द लिए मुस्कुराते रहता है। महीने के सात तारीख को टाइट होता है। और आठ तारीख को कंगाल हो जाता है।

महीने के एक तारीख के बाद जेब में सिर्फ आईकार्ड और आने-जाने का भाड़ा रहता है। लेकिन रूतबा वैसा ही। ऑफिस के बाहर गार्ड जब सैल्यूट मारता है तो सीना अड़तालीस इंच चौड़ा हो जाता है। लोगों को पता है बड़ी कंपनी में काम करता है। बड़ा आदमी है। अदब से बात करो। बड़ी मुश्किल होती है। जब दुकानों में पर्सनैल्टी देखकर ऊंचा रेंज वाला सर्ट पैंट दिखता है। मन मसोस कर कहना पड़ता है कि पसंद नहीं है। गर्लफ्रेंड से झूठ बोलते-बोलते परेशान है। हर दिन नया बहाना। किसी तरह सात तारीख आ जाए। अभी तक घर का नालायक बेटा बना हुआ है। पापा को क्या बताएगा कि उनका बेटा कॉर्पोरेट गरीब है।

ऑफिस के कैंटीन में तीन सितारा होटल का मजा। खाते वक़्त नहीं। पैसा देते वक़्त महसूस होता है। जितना पैसा कर्च कर बाहर में दोपहर का लंच कर लूं उतने में नास्ता नहीं होता। बड़ी कंपनी का कैंटीन है भाई। प्राइस भी ऊंची है। दोस्तों के साथ बैठकर मुस्कुराते हुए खा लेता है। दोस्तों को कोई फर्क नहीं पड़ता। ऊंचा पोस्ट। ऊंची सैलरी। खाने के लिए बाहर जाना पर्सनैलटी पर पड़ता है। लेकिन गेहूं के साथ घुन भी पिस रहा है। जेब का दर्द रात में सोते समय यादों के जरिए बाहर आता है। दिल को बहलाता है। समझाता है। बेटा, सब ठीक हो जाएगा। लेकिन कब। कब तक कॉर्पोरेट गरीब बना रहूंगा। पता नहीं।

बुधवार, अगस्त 24, 2011

भारत में अनशन


हिन्दुस्तान गांधी का देश है....जहां के लोगों का अनशन सबसे बड़ा हथियार है...अनशन के ज़रिए स्वतंत्रता की लड़ाई से लेकर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ लड़ाई लड़ी जाती रही है....देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले क्रांतिकारी भगत सिंह ने भी अनशन का सहारा लिया था....1929 में भगत सिंह ने जेल में क़ैदियों के लिए बेहतर खाना, ठीक कपड़ा, किताब और अख़बारों की मांग कर रहे थे....63 दिनों तक ये अनशन चला था..इस दौरान भगत सिंह के साथी जतिन दास की मौत भी हो गई....अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी ने अंग्रेजों से भारत की आजादी की लड़ाई के दौरान 1922, 1930, 1933 और 1943 में अनशन किया। 1943 में तो महात्मा गांधी ने 21 दिन तक अनशन किया था......आज़ादी के बाद भी अपनी बात मनवाने के लिए अनशन बड़ा हाथियार बना रहा.....1952 में आंध्र प्रदेश के पोटि श्रीरामुलु ने भाषा के आधार पर मद्रास प्रेजिडेंसी से आंध्र प्रदेश के अलग होने के मुद्दे पर अशन किया...अनशन के 82वें दिन श्रीरामुलु की मौत हो गई....गौरक्षा के लिए 1966 में महात्मा रामचन्द्र वीर ने १६६ तक अनशन किया...को जगद्गुरु शंकराचार्य श्री निरंजनदेव तीर्थ ने ७२ दिन, संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी ने ६५ दिन, आचार्य श्री धर्मेन्द्र महाराज ने ५२ दिनों तक बिना अन्ना जल ग्रहण किये बैठे रहे...1967 में मास्टर तारा सिंह ने पंजाब सूबा बनाने के लिए 48 दिन तक अनशन किया था....आखिरी दिन तारा सिंह की मौत हो गई थी। हालांकि इसके चलते पंजाब को 3 राज्यों में बांट दिया गया....1974 में छात्र आंदोलन के बाद मोरारजी देसाई ने गुजरात विधानसभा भंग करने और उपचुनाव कराने की मांग को लेकर अनशन शुरू किया...उनके अनशन के दबाव में सरकार झुकी और उनकी मांगे मान ली गई....पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी 2006 में 25 दिनों तक अनशन की... ममता सिंगूर के किसानों की ली गई ज़मीन वापिस कराने की मांग कर रही थी....नर्मादा बचाओ आंदोलन से जुड़ी समाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटेकर बीस दिनों तक अनशन पर बैठी रही....तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर सांसद के चेन्द्रशेखर राव ने 2009 में ग्यारह दिनों तक अनशन किया....मणिपुर की इरोम चानू शर्मिला तो पिछले ग्यारह सालों से अनशन कर रही है...इरोम शर्मिला उत्तर पूर्व भारत से आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर ऐक्ट, 1958 को हटाने की मांग कर रही हैं...इसी तरह स्वामी निगमानंद ने राष्ट्रीय नदी गंगा में खनन रोकने के लिए 19 फरवरी 2011 से अनशन शुरू किया,,,लेकिन सरकार ने उनकी मांगों को तवज्जो नहीं दी... अनशन के 68वें दिन निगमानंद कोमा में चले गए और 12 जून 2011 की देर रात निगमानंद की मौत हो गई.....अब बात अन्ना की....गांधीवादी समाजसेवी अन्ना और अनशन का रिश्ता काफी पुराना रहा है....अब तक पंद्रह बार अनशन कर चुके अन्ना जनलोकपाल बिल की मांग को लेकर इसी साल पांच अप्रैल को दिल्ली के जंतर मंतर पर अनशन पर बैठे....97 घंटे बाद 9 अप्रैल, 2011 को सरकार ने लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए जॉइंट ड्राफ्ट कमिटी बनाने की घोषणा की जिसके बाद ही अन्ना ने अनशन तोड़ा। इसके बाद दिल्ली में बाबा रामदेव के आंदोलन के दौरान पुलिस कार्रवाई के विरोध में 8 जून को अन्ना ने राजघाट पर एक दिन का उपवास रखा। इसके पहले भी अन्ना महाराष्ट्र में करप्शन और आरटीआई के सवाल पर 2003 और 2006 में अनशन कर चुके हैं...उसके बाद बाबा रामदेव ने काले धन के मुद्दे पर 9 दिनों तक अनशन किया। तबियत खराब होने के बाद उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया....सरकार ने उनकी मांगें नहीं मानी.....अन्त में उन्हें खुद अपना अनशन तोड़ना पड़ा....

शुक्रवार, अगस्त 05, 2011

इंतज़ार......

अमिताभ बच्चन। सदी के महानायाक। जितना बड़ा कद। जितना बड़ा नाम। वैसे ही देखने की तमन्ना। उनसे मिलने की ख्वाहिश। जब ज़िंदगी का सपना पूरा होने वाला होता है तो चेहरे पर क्या चमक होती है, ये हर किसी को देखकर लगता था। कोई बोलकर अपनी ख्वाहिश जता रहा था। तो किसी की मुस्कान हर लफ़्ज को बया कर रही थी। जिसे सिर्फ सिनेमा के पर्दे पर या टीवी पर देखा था। उसे नजदीक से देखने की हसरत पूरी होने वाली है। हर किसी ने अपने पहचान वालों को फोन कर दिया। आज अमिताभ को देखेंगे। हाथ मिलाएंगे। ऑटोग्राफ लेना है। फोटो खिंचवाना है। ऐसा लग रहा था, जैसे चांद धरती पर उतर रहा हो।
जितनी बड़ी शख्सियत उतनी ही बड़ी इंतज़ार की घड़ियां। पटना में मौर्य के ऑफिस आने की सूचना मिली। सुबह आठ बजे से इंतज़ार शुरू। मौर्य के कर्मचारियों की। उन प्रशंसकों की, जो उनकी एक झलक पाने के लिए मौर्य ऑफिस के बाहर खड़े थे। लोगों में एक अजीब उत्सुकता दिखी। पहलीबार किसी महानायक से मिलने के लिए इतना बड़ा दीवानपन देखा। पागलपन देखा। नजदीक से देखा, महानायक के प्रशंसकों को। कोई वर्ग नहीं। कोई आयु नहीं। साठ पार कर चुकी महिलाएं। सड़क पर स्कूली बच्चों की ऐसी कतार लगी थी, जैसे स्कूल में छुट्टी दे दी गई हो। हर निगाहें शहंशाह को ढूंढ़ रही थी। ना जाने कब आएंगे। सामने छत पर दो लड़के, यूं बैठे थे मानों दीवार का विजय और रवि हो। कौन था पता नहीं। लेकिन दोनों की आतुरता देखते बनती थी।
वक़्त के साथ मन की अकुलाहट भी बढ़ती जा रही थी। आख़िर कब ख़त्म होगी इंतज़ार की घड़ी। छह घंटे तक यूं ही इंतज़ार होता रहा। लेकिन वो नहीं आए। आया तो उम्मीदों को तोड़ने वाला संदेश। अमिताभ दिल्ली चले गये। लंबे इंतज़ार के बाद उम्मीदों का बिखरना क्या होता है, हर चेहरे पर झलक रहा था। क्यों नहीं आए अमिताभ। पांच मिनट के लिए आ ही जाते तो क्या हो जाता। कौन सी आफ़त टूट पड़ती। भूखे प्यासे इंतज़ार करता रहा। ऐसे थोड़े ही होता है। जितनी मुंह, उतनी बातें। लेकिन हक़ीक़त की हवा अपने झोंके के साथ सपनों का आशियाना उड़ा ले गया।

सोमवार, जुलाई 25, 2011

यही राजनीति है.....

कभी खुद को रॉबिन हूड से तुलना करने वाले लालू प्रसाद यादव राजनीति के हाशिए पर खड़े हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद से लालू और उनकी पार्टी मजधार में फंसी है। जो लालू कभी केन्द्र में सरकार बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते फिरते थे, वो आज खुद एक अदद मंत्री बनने के लिए सोनिया गांधी के घर का चक्कर काट रहे हैं। बिहार के जिन नेताओं आसरे लालू हूंकार भरते थे, आज वे एक एक कर उनका साथ छोड़ रहे हैं। जब तक लालू राजनीति के शेर थे। दहाड़ रहे थे। तो तमाम चाटुकार उनके आगे पीछे दूम हिलाते फिरते थे। लेकिन शेर बूढ़ा क्या हुआ, उनके नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाले एक एककर दूम दबाकर भागने लगे।

बिहार में ही राष्ट्रीय जनता दल की ये स्थिति होगी, लालू ने कभी सोचा भी नहीं था। लालू ने बिहार की राजनीति में जो चाहा, जब चाहा, उसे डंके की चोट पर कर दिखाया। जिसको चाहा नेता बना दिया। जिसको चाहा मटियामेट कर दिया। शरद यादव ने बात नहीं मानी तो अलग पार्टी बना ली। विरोधी मिमियाते रहे और लालू राज करते रहे। लेकिन समय बदला। लोगों का मिज़ाज बदला। और लालू का राज बदल गया। एक बार कुर्सी क्या गई, मानों मौक़ापरस्ती की रानजनीति करने वाले बिहार के नेताओं ने रंग बदलना शुरू कर दिया। जिन नेताओं को लालू ने नाम दिया। पहचान दी। राजनीति का पाठ पढ़ाया। आज उन्हीं लोगों को लालू की नीति अच्छी नहीं लग रही है। वे उन्हें ही नसीहतें दे रहे हैं। साथ छोड़ रहे हैं।

दरअसल यही राजनीति है। जिसके पास सत्ता होती है। पावर होता है। उसी का सबकुछ होता है। लोकतंत्र के नाम पर कुर्सी का खेल करनेवालों के लिए ये एक कड़वी सच्चाई है। ये संकेत हैं उन तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के लिए, जो निजी कंपनी की तरह चलाया जाता है। जो पार्टियां एक ही परिवार के आसरे चलती है। उसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और कार्यकर्ताओं का चुनाव राजतंत्र सरीखे होता है। मसलन बिहार में राजद, जदयू, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी, उड़ीसा में बीजू जनता दल, तमिलनाडू में डीएमके और एआईडीएमके, कर्नाटक में दनतादल सेक्यूलर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की अगुवाई वाले तेलगू देशम पार्टी। इन तमाम पार्टियों की अगुवाई एक ख़ास शख्स के द्वारा किया जाता है। जिसे वो चाहता है, उसे वहां तक पहुंचा देता है। लालू यादव ने भी यही काम किया। जिसका खामिया आज उन्हें भुगतना पड़ रहा है।