गुरुवार, जुलाई 05, 2012

अखिलेश के फैसले पर सवाल


महज आठ साल का अनुभव और विरासत में मिली राजनीति के आसरे पांच कालिदास मार्ग तक का सफर तय करनेवाले अखिलेश यादव ने बतौर मुख्यमंत्री सौ दिनों के दरम्यान जो दो बड़े फैसले लिये उसे उन्हें चौबीस घंटे के भीतर बदलना पड़ा। उन्हें अपने ही बातों से मुकरना पड़ा। नेता के लिए फैसले में फेरबदल कोई मायने नहीं रखता, लेकिन जिन लोगों की अखिलेश यादव से उम्मीदे हैं, उन्हें जरूर झटका लगा है।
   अखिलेश यादव के दो बड़े बेतुके फैसले ने उनकी परिपक्वता पर सवाल खड़ा कर दिया है । जिस राज्य की आधी जनसंख्या को भरपेट खाना नहीं मिल रहा। तनभर कपड़े नहीं हैं । सड़क, स्वास्थ्य से लेकर बुनियादी सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है। इंसेफेलाइटिस से मर रहे बच्चों के लिए कोई उपाय खोजने की बजाय सरकार अगर माननीयों के लिए लक्जरी गाड़ी खरीदने का ऐलान कर देता है, तो उसका चौतरफा निंदा होना लाजिमी है। और यही हुआ। जिसके बाद अखिलेश यादव को अपने फैसले से मुकरना पड़ा। इससे पहले मॉल को सात बजे के बाद बिजली नहीं देने के फैसले के बाद भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति हुई थी। अखिलेश यादव को काफी किरकिरी झेलनी पड़ी ।       
    ऐसे में अब सवाल उठने लगा है कि क्या अखिलेश यादव अपरिपक्व मुख्यमंत्री हैं ? क्या वो फैसला लेने में जल्दबाजी करते हैं ? क्या अखिलेश की आड़ में कोई और फैसला ले रहा है ?  या फिर वो राजनीतिक नफा नुकसान का हिसाब लगाये बगैर प्रशासनिक अधिकारियों के कहने पर फैसला लेते हैं ?  
   38 साल के अखिलेश यादव जब साइकिल पर चढ़कर लोगों से वोट मांगने सड़क पर निकले, सच्चाई सी दिखनेवाले वादे किये तो तेज तर्रार युवा नेता को देखकर लोग मुलायम राज को भूल गए । पुरानी सरकार से आजिज लोगों को लगा कि अखिलेश कुछ ऐसा करेंगे, जिससे उत्तर प्रदेश का वो मान सम्मान फिर वापस लौटेगा, जो पिछले चालीस सालों मे कहीं खो गया । लेकिन सत्ता मिलते ही कमान घाघ समाजवादियों के पास चलागया । अखिलेश बेबस और लाचार दिखने लगे। चाहे फिर वो सपा कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाने की बात हो, मंत्रिमंडल गठन की बात या फिर प्रशासनिक फेरबदल की ।
      दरअसल अखिलेश यादव के सीएम बनने के बाद उन्होंने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया, जिससे अपराधियों में खौफ हो । कमोबेश हर एक दो दिन के बाद रेप की ख़बर सामने आती है। हत्या, लूट, छिनौती जैसी घटनाएँ आम है । अखिलेश के आदेश के बावजूद समाजवादी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की गुंडई बदस्तूर जारी है। यूं कहें कि बिगड़ैल सपाइयों पर भी अखिलेश लगाम नहीं लगा पाये। जिससे पार्टी की छवि सुधर सके। मुलायम राज से बेहतर स्थिति अभी तक दिखी नहीं है।
     जब प्रशासनिक अधिकारियों की फेरबदल की बात हुई तो, भी वही चेहरा सामने आया, जो मुलायम राज में हुआ करता था। चाहे वो मुख्य सचिव हो या नोएडा अथॉरिटी के अधिकारी । न तो दाग़ का ख्याल हुआ और न ही सम्मान का। ऐसे में एक बात तो साफ होता है कि सबकुछ अखिलेश यादव के मनमुताबिक नहीं हो रहा । क्योंकि चुनाव के दौरान की गई बातों को याद करें तो अखिलेश यादव को ये पूरा अहसास था, कि लोग पिछले मुलायम राज से खुश नहीं थे । इसलिए उन्होंने इस बार युवाओं के जरिए सत्ता में आने की बात की । वादा किया कि वो कुछ गलत नहीं दोहराया जाएगा जो मुलायम राज में हुआ था। मंत्रिमंडल गठन में भी वैसा ही दिखा । वही पुराने चेहरे। जेल की सजा काट चुका निर्दलीय विधायक जेल मंत्री बना। और बहुत कुछ।
    कंप्यूटर और लैपटॉप के जरिये समाजवाद की नई परिभाषा गढ़नेवाले अखिलेश यादव अगर रॉल मॉडल बनना चाहते हैं तो उन्हें कड़े फैसले लेने होंगे। परिवारवाद और दोस्ती को दरकिनार कर राज्य के हित में ऐसा सोचना होगा, जिससे लोगों में उनके प्रति विश्वास कायम रहे। क्योंकि  उन्हें अभी लंबी दूरी तय करनी है।   

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