गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

चल पड़ा हूं

मैं अपने भूतों पर
बिलखता नहीं
भविष्य की सोचता नहीं
वर्तमान में लड़ता हूं
संघर्ष के एक – एक क्षण को
संजोकर रखता हूं
मैं तोड़ दिये जाने से नहीं डरता
कर्मों पर विश्वास करता हूं
मैं राखों से नहीं खेलता
रोज आगों में तपता हूं
कठिर डगर चुन ली हमने
पर सहारे की अपेक्षा नहीं रखता
अपनी मंजिल को पाने के लिए
हर पल अग्नि परीक्षा देता हूं
हर मो़ड़ पर छली खड़ा है
हर कृत्य पर टेढ़ी नजर रखता है
हर डगर रोड़ा अड़काता है
ठोकर खाने से थोड़ा लड़खड़ाता हूं
पर प्रबल संकल्प के सामने
किसी का चलता नहीं
यही सोचकर एक बार फिर से
चल पड़ता हूं ।।

हैप्पी न्यू इयर

नववर्ष
आपका अभिनन्दन
पुलकित मन
हर्षित नयन
हाथ जोड़ अर्पित सुमन
नव कामना
नव प्रेरणा
नव चेतना
नव आराधना, नव स्वप्न
स्वथ्य तन
विश्वस्त प्रण
खाली ना जाय एक भी क्षण
सतत संपन्न रहे अभिजन
बुद्धि, बल, धन से संपन्न
हर क्षण जिते जीवण का रण
हंसी के संग हो शुरूआत हर दिन
हर दिन हो खुशी का संगम
यूं ही महका करे चंदन का वन।।

मंगलवार, दिसंबर 29, 2009

चंचल मन

सब के बीच बैठा हूं
लेकिन वहां नहीं हूं
जहां मैं बैठा हूं
निष्कर्षविहीन बहस निरंतर जारी है
सशरीर उपस्थित हूं
लेकिन मेरा मन
भटक रहा है कहीं और ।

शनिवार, दिसंबर 26, 2009

तेरे नाम पाती

इंतजार, इंतजार और इंतजार
बरस बीत गये इंतजार के
इंतहा हो गये प्यार के
तेरी यादों को सीने में समेट रखा हूं
बस एक यादों के सहारे
अभी तक बैठा हूं
याद आता है तेरा वो मिलना
गोद में सर छिपाकर घंटों बैठना
जिंदगीभर साथ चलने की कसमें खाना
मेरे कहने पर तुम
घर की दहलीज लांघ आती थी
अपना सबकुछ हमारे पास छोड़ जाती थी
मैं वही हूं,
जिसकी तुम शहजादी थी
जिसे अपना हमसफर बनाई थी
हर किसी से हमारे प्यार की
किस्से सुनाया करती थी
अपने आंचल पर मेरा नाम लिखा करती थी
कभी हारने पर तुम्हीं मुझे समझाती थी
भटकने पर राह तुम्हीं दिखाती थी
आज जब तुम्हीं ने मुझे हरा दी हो
किससे सुनाऊं मैं अपना अफसाना
अपलक नेत्रों से बाट जोहती मेरी उम्मीदें
किसी भी आहट पर चौंक उठती है
शायद तुम हो।
और कितना लोगी मेरी परीक्षा
एक बार नजदिक आओ
तुम्हे गले लगाने कि है
मेरी अंतिम इच्छा ।।

शनिवार, सितंबर 05, 2009

मेरे गुरूजी...

आप में ममत्व है
आप में अपनत्व है
आप के ही तत्व से
मेरा अस्तीत्व है
आपकी करुणा से
आपकी प्रेरणा से
आप की ही रचना से
मेरा व्यक्तित्व है।
आप मेरे इष्ट हैं
आप ही विशिष्ट हैं
आप मेरे द्रोण हैं
और आप ही वशिष्ठ हैं
मां मे भी आप हैं
पिता में भी आप हैं
भाई में भी आप हैं
बहन में भी आप हैं
जिंदगी के हर मोड़ पर
आप मेरे साथ हैं
मेरी हर सांसो पर
आपका अधिकार है
आपकी पूजा से ही
मेरा उद्धार है ।।
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गुरु गोविन्द दोउ खड़े
काके लांगू पांय,
बलिहारी गुरु आपकी
गोविन्द दियो बताय॥

बुधवार, अगस्त 26, 2009

स्वाइन फ्लू, सूखा और सरकार

देश संकट काल के दौर से गुजर रहा है। स्वाइन फ्लू कहर बरपा रहा है तो सूखा तड़पा रहा है। एक जान ले रहा है तो दूसरा जान लेने को आतुर है।

स्वाइन फ्लू की चपेट में देश में अभी तक करीब एक सौ लोगों की जाने जा चुकी है। हजारों लोग हॉस्पिटलाइज हैं। हर रोज नये नये जगहों पर इसके केस सामने आ रहे हैं। वैज्ञानिक इसके लिए एंटी वैक्सिन जुटाने में लगे हैं। देशभर में जांच के लिए नये नये सेंटर खोले जा रहे हैं। एक अमेरिकी रिपोर्ट के अनुसार केवल अमेरिका में स्वाइन फ्लू से ९० हज़ार लोग मारे जायेंगे। स्वभाविक है इसका प्रभाव भारत पर भी पड़ेगा। ग्लोवलाइजेशन का दौर है। अमेरिका में जो होता है उसका असर सारी दुनिया में देखी जाती है। भारत भी उससे अछुता नहीं है। आर्थिक मंदी शुरू हुआ अमेरिका में। प्रभावित हुई पूरी दुनिया। भारत में भी लाखों लोग बेरोजगार हो गये। नौकरी छुटने का सिलसिला अभी तक जारी है। बेरोजगारी बढ़ रही है। खेती हो नहीं रही। क्योंकि सूखा पड़ा है। देश के १६१ जिले सूखे के चपेट में है। और भी बढ़ने की आशंका है। मंहगाई दिन पर दिन आसमान छू रही है। आम लोग परेशान हैं। लोग परिस्थिती के हाथों बेबस हो चुका है।

ऐसे में एक अच्छी बात है कि लोग हिम्मत नहीं हारे हैं। लोगों में विश्वास है कि सब कुछ ठीक हो जायेगा। आजाद हिन्दुस्तान ने ६७ का अकाल देखा है तो सुनामी और कुसहा का कहर भी। हर विपरित परिस्थिति में पार पाने की जज्बा है लोगों में। जिसकी बदौलत लड़ने को तैयार हैं। लड़ भी रहे हैं। और आगे भी लड़ेंगे।

इस सब के बीच सवाल उठता है कि सरकार कहां है और कर क्या रही है ? सरकार है और अपने हिसाब से जोड़-तोड़ मे जुटी है। लोगों के आश्वासन दे रही है। ये जानते हुए भी कि आश्वासनो से कुछ नहीं होगा। लेकिन नेताओं को पता है कि हिन्दुस्तान के लोग सपनो में जिते हैं और सपनो में जिने वाले उम्मीद पर ज्यादा विश्वास करते हैं। सो, सरकार इसका फायदा उठा रही है।

मंगलवार, अगस्त 25, 2009

मेरी मां.....

धुओं से तरबतर
चुल्हे को फूंकती
रोटी बेलती
और फिर उसे सेक कर खिलाती
भूख नहीं रहने पर भी
कौआ, मेना का कौर बनाती
मना करने पर
प्यार से डांटती
ज़िद करने पर
दुलार कर खिलाती
अब जब भूखा सो जाता हूं
तो सब कुछ याद आती है
उसका वो डांटना
अब रूलाती है
अब उससे दूर हूं
तो मेरी चिंता में
अपना ख्याल भी छोड़ दी है
हमेशा मेरे लिए
भगवान से दुआ मांगती है
हरेक पर्व और त्योहार में
पहले मुझे याद करती है
आज भी वह मुझे अपना
पांच साल का बच्चा समझती है
फोन पर ही सौ नसीहतें देती है
और फिर खाने के बारे में पूछती है
उसका यही पूछना
अब दिल को झकझोरती है
बहुत मुश्किल से
खुद को संभाल पाता हूं
उसकी याद को
सीने में दफ्न किये सो जाता हूं।।

सोमवार, अगस्त 24, 2009

क्या करेंगे जसवंत......

जसवंत सिंह बीजेपी के संस्थापक सदस्य रह चुके हैं। एनडीए की सरकार में बड़े-बड़े पद संभाले हैं। खुद को पार्टी का हनुमान कहते थे। लेकिन पार्टी ने उन्हें निकाल दिया। जिस तरह से पार्टी ने जसवंत को निकाला वह उसके लिए आशातित नहीं थे। उनको उम्मीद नहीं थी कि जिन्ना की बड़ाई करना इतना मंहगा पड़ेगा। इससे पहले आडवाणी भी जिन्ना को महान नेता बता चुके थे। लेकिन पार्टी उन्हें अध्यक्ष पद से हटा कर खानापूर्ति कर दी थी। लेकिन जसवंत को पार्टी को छोड़ना पड़ा।

जसवंत अच्छे खासे परिवार से आते हैं। पैसे की कोई कमी नहीं है। फौज की नौकरी छोड़ चुके हैं। शौकिया तौर पर राजनीति करते हैं। घोषणा कर चुके हैं कि सक्रिय राजनीति से संन्यास नहीं लेंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आगे क्या करेंगे जसवंत ? किसी दूसरी पार्टी में शामिल होंगे या फिर खुद नई पार्टी बनायेंगे ?

किसी को पार्टी से निकालना बीजेपी के लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पहले भी कई नेता निकाले जा चुके हैं। पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे बलराज मधोक को पार्टी निकाल चुकी है। इसके अलावा आरिफ बेग, शंकर सिंह बाघेला, कल्याण सिंह, उमा भारती, मदन लाल खुराना जैसे दिग्गज को पार्टी बाहर का रास्ता दिखा चुकी है। इसमें से किसी भी नेता की राजनैतिक अवस्था बहुत अच्छी नहीं है। सिर्फ शंकर सिंह बाघेला ही दूसरी पार्टी में शामिल होकर मंत्री बन पाये। पार्टी के स्टार प्रचारक रही उमा भारती और राम के नाम पर पार्टी के हिरो रहे कल्याण सिंह अभी भी राजनीतिक जमीन तलाश रहें है। कभी दिल्ली की राजनीति में के मजबूत स्तम्भ रहे मदन लाल खुराना की राजनीतिक जीवन समाप्त हो चुका है।
वैसे उनके सार्थन में पार्टी के वरिष्ट नेता सुधीन्द्र कुलकर्णी और अरूण शौरी खड़े हैं। सुधीन्द्र ने तो वकायदा पार्टी से इस्तीफा दे दिया है। अरूण शौरी भी खुलकर सामने आ गये हैं। भारी अंतःविरोध के बीच हो सकता है कि पार्टी जसवंत के निष्काशन पर फिर से विचार करे। लेकिन जसवंत भी बिजेपी के बारे में मीडिया में बयान देना शुरू कर दिये हैं। इस बीच जसवंत सिंह अटल बिहारी वाजपेयी से भी मिल चुके हैं। ऐसे में जसवंत सिंह का अगला स्टेप क्या होगा, ये देखना बड़ा ही दिलचस्प होगा।

क्या कंगारू का बादशाहत खत्म

ऐशेज ट्रॉफी हारने के बाद आस्ट्रेलिया टेस्ट रैंकिंग में चौथे पायदान पर आ पहुंचा है। इंग्लैण्ड ने आस्ट्रेलिया को एक के मुकाबले दो मैचों से हरा दिया। क्रिकेट के इतिहास में छह सालों के बाद ऐसा सामय आया है, जब आस्ट्रेलिया की टीम टेस्ट रैंकिग में इतने नीचे आया है। इससे पहले २००३ में आस्ट्रेलिया टेस्ट रैंकिंग में चौथे पायदान पर था। इंग्लैंड से पहले दक्षिण अफ्रिका और उससे पहले भारत ने कंगारूओं को उसी की धरती पर बुरी तरह पराजित किया था। ऐसे में अब कंगारुओं की श्रेष्ठता पर सवाल उठने लगा है।

ऐसा नहीं है कि आस्ट्रेलियाई टीम पहली बार ऐशेज सीरीज में हारी है। इससे पहले २००५ में भी वह हार चुकी है। उस समय भी कंगारुओं के बारे में ऐसा ही कहा गया था। लेकिन कुछ ही दिनो में जबरदस्त वापसी की और वर्ल्ड चैंपियन बना।

हलांकि तब और आज के समय में बहुत कुछ बदल चुका है। उस समय आस्ट्रेलिया अपने सर्वश्रेष्ठ टीम के साथ खेल रहा था। टीम में हेडेन, गिलक्रिस्ट, ब्रेड हॉग, एंड्रयु साइमंड्स, ग्लेन मैक्ग्रा और शेन वार्न जैसे विश्व के श्रेष्ठतम क्रिकेटर खेलते थे, जो अपने अनुभव और कलात्मक बल्लेबाजी की बदौलत खेल का रुख तय करते थे। लेकिन अब समय बदल चुका है। क्रिकेट आस्ट्रेलिया से सभी दिग्गज संन्यास ले चुके है। टीम में रिकी पोंटिंग के साथ देने वाला कोई बचा नहीं है। क्लार्क और हसी भले ही अच्छी बल्लेबाजी करते हैं लेकिन उन में न तो गिलक्रिस्ट और साइमंड्स जैसे अनुभव है और न ही हेडेन जैसी आक्रमकता।

दूसरी तरफ दक्षिण अफ्रिका, भारत और श्रीलंका के खिलाड़ी अच्छे फॉर्म में खेल रहे हैं। बांग्लादेश भी लागातार दो सीरीजों में वेस्टेइंडीज और जिम्बाब्वे को हरा कर अपनी क्षमता साबित कर चुका है। ऐसे में आस्ट्रेलिया को अपनी बादशाहत कायम करने में भारी मशक्कत करना पड़ेगा। जो फिलहाल बहुत मुश्किल दिख रहा है....वैसे क्रिकेट में कुछ भी असंभव नहीं है।

शनिवार, अगस्त 15, 2009

भूखा गाँव

आजाद हिन्दुस्तान का एक अभागा गांव है रातू बिगहा। जो बिहार के जहानाबाद जिले में घोषी प्रखंड है। आजादी के 62 साल के बाद भी इस गांव के लोगों को रोटी नसीब नहीं हो रही है। इस गांव में लोगों के घर में कई दिनों से चुल्हा नहीं जला है। जिंदगी के लिए गरीबी से जंग लड़ते इस गांव के लोग अब रोटी के अभाव में दम तोड़ने लगे हैं। एक तरफ देश आजादी का जश्न मनाने की तैयारी में लगा था और दूसरी तरफ इस गांव के लोग अपने परिजन के शव को श्मशान घाट तक पहुंचाने की तैयारी कर रहे थे। इस गांव में पिछले एक हफ्ते में भूख से तीन लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं है। दलितों और गरीबों के इस बस्ती के लोगों के लिए सरकार ने बीपीएल कार्ड तो बनबा दियाए पर लोगों को आज तक अनाज नहीं मिला। इन लोगों की रोटी से नेता अपना पेट भर रहे हैं।
सरकार गरीबी मिटाने के लिए कई तरह की योजनाएं बना रही हैए लेकिन जहानाबाद के इस गांव में गरीब मिट रहे हैं। शुरू में जब लोगों ने इसकी शिकायत संबन्धित अधिकारी से की तो कोई देखने के लिए नहीं आया। अब जब बात लोगों की मौत तक पहुंच चुकी है तो बीडीओ साहब भी इसकी टोह लेने के लिए गांव तक पहुंचे है। और अनाज नहीं देने वालों के साथ सख्ती से कार्रवाई का आश्वासन दे रहे हैं। खैर क्या कार्रवाई होगी ये सभी लोग भलीभांति जानते हैं। कहते हैं कि दर्द का हद से गुजर जाना है दवा होना। और अपने दर्द को दवा बना चुके इस गांव के लोग आज भी स्वतंत्रता का इंतजार कर रही है। ये 62 साल के आजाद हिन्दुस्तान की नंगी तस्वीर हैए जहां लोगों के लिए रोटी आज भी एक सवाल बना हुआ है। ये गांव हमें अपनी सच्ची आजादी का आइना दिखा रही है। गांव की बुढी आंखे देश के नेताओं से सवाल पूछ रही है कि क्या यही दिन देखने के लिए देश को आजाद किया गया था। क्या गांधीजी ने जो आजादी का सपना देखा था क्या उसकी यही हकीकत है ?


रविवार, अगस्त 02, 2009

राखी का स्वयंवर

राखी का स्वंयवर हो गया। साथ ही पूरा हो गया वो नाटक जो शादी के नाम पर एक महिने से खेला जा रहा था। राखी ने एक एनआरआई लड़का इलेष पारूजनवाला को काबिल समझी। और इसी के साथ लाखों लोगों की उत्सुकता भी पूरी हो गई , जो इस प्रोग्राम को देखने के लिए टीवी पर आंख गड़ाये बैठे रहते थे।


अब तक के इतिहास में शायद यह पहली घटना होगी, जब कोई लड़की शादी करने के लिए खुद एक महिने तक लड़कों का इंटरव्यू लेती रही। लड़कों ने भी उसे इंप्रेस करने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाये। यह इंडिया का सच है। और इंडिया के बेटी का सच भी। बाजार में खड़े आम लोगों ने भी इसे हाथों हाथ लिया।

राखी इस नाटक की तुलना सीता की स्वयंवर से करती है। और खुद को सीता से। खैर ये तो बोलने की आजादी है। खुद को किसी से तुलना करने पर कोई पाबंदी नहीं है। किसी को आपत्ति भी नहीं होनी चाहिए।

अब सवाल उठता है कि आखिर क्यों एक लड़की खुद ऐसा करती है, वो भी सरेआम टीवी पर। इसको समझने के लिए जरा अतित में जाना होगा। राखी बार डांसर हुआ करती थी। वह गुमनाम की जिंदगी जी रही थी। लोगों ने उसका नाम तब जाना, जब वह मिका पर किस करने का केस किया था। इससे दोनो को फायदा मिला। मिका को भी लोग जानने लगे और राखी को भी। मीडिया वालों ने भी राखी का भरपूर साथ दिया। फिर तो राखी पब्लिीसिटी ब्रांड बन गई। सिर्फ एक घटना के बाद बार डांसर राखी , टीवी का कामऊ चेहरा बन चुकी थी। टीवी में काम करने की तमन्ना रखने वालों से लेकर टीवी पर कार्यक्रम बनाने वालों तक, सभी राखी का सहारा लेने लगे। अभिषेक नाम का माॅडल जो वर्षो से अपनी पहचान बनाने में नाकाम रहा था, वह भी राखी के सहारे टीवी का जानामाना नाम हो गया। फिर नच बलिये नामक रियलिटी शो को हिट कराने में राखी का भरपूर सहयोग रहा। राखी पब्लिसिटी के लिए कुछ भी कर सकती है। तो ऐसे में लगता है कि कहीं ना कहीं ये पब्लिक स्टंट था।

खैर अब इलेष को भी लोग जान गये हैं। दोनो का इंगेजमेंट तो हो गया , लेकिन शादी अभी नहीं हुई है। अब देखना होगा कि शादी कब होता है। इसके लिए इस प्रोग्राम के दर्षकों को थोड़ा और इंतजार करना पड़ेगा। क्योंकि हो सकता है कि राखी अपनी शादी तब करे जब उसकी पब्लिसिटी की ग्राफ में कुछ गिरावट होने की आषंका हो।

शनिवार, अगस्त 01, 2009

हम कहाँ हैं ?

जब इच्छायें बढ़ने लगती है, भावनायें बहकने लगती है, लोगों के दिलों में अहसास सिमटने लगता है, इंसानियत दम तोड़ने लगता है, तब इंसान हो जाता है हैवान और शुरू करता है हैवानियत का खेल। हैवानों के इस घिनौने खेल को देखने के लिए सुरक्षा तंत्र मानो जैसे तैयार ही रहता है।

23 जुलाई की शाम कुछ ऐसा ही नज़ारा देखेने को मिला पटना के एक्जीवशन रोड में। जहां समाज के कुछ दरिंदों ने मिलकर एक महिला के साथ दरिंदगी का खेल खेला। भीड़-भाड़ वाले इस इलाके में एक महिला को सरेआम बेइज्जत किया जा रहा था। हज़ारो लोग तमाशबीन बने रहे। बेवस हो चुकी वह औरत चिखती रही, चिल्लाती रही, लेकिन किसी के कानो तक उसकी आवाज़ नहीं पहुंच पाई । किसी ने भी उसे बचाना मुनासिब नहीं समझा। खास बात तो ये है कि घटना स्थल से कुछ दूरी पर बने पुलिस चैकी पर तैनात उसके पहरेदारों को इसकी भनक लगी।

बस लोगों ने तो इसे मदारी के उस खेल की तरह समझा, जिसे देखने के लिए लोग कुछ देर रूकते हैं, तालियां बजाते हैं और खेल खत्म हो जाने पर हंसते हुए आगे बढ़ जाते है। इंसानो की बेहयाई इतने पर भी नहीं रूकी। तमाशा देखने वाले लोग भी कुछ समय के लिए मदारी बन गये। कुछ देर तक ऐसा लगा जैसे अफगानिस्तान से तालिबान चुपके से हमारे बीच आकर अपना काम कर रहा है। ऐसा लगा मानो शहर में प्रशासन नाम की कोई चीज़ ही नहीं है।

हमेशा की भांति खेल खत्म हो जाने बाद पुलिस अपनी कार्रवाई शुरू करती है। ख्रास बात तो ये है कि ऐसा खेल होते समय कानून भी अपनी आंखों पर काली पट्टी बांध लेता है। सरकार भयमुक्त समाज बनाने का दावा कर रही है। नीतीश कुमार तो राज्य में सुशासन की बात कह रहे हैं। लेकिन दुशासनों के उपर उनका कोई बस नहीं चलता। समाज के ये दुशासन ही सरकार के दावों की पोल खोल रहे है। सरकार में बैठे बडे़-बड़े अधिकारी सिर्फ आश्वासन देते हैं। और अपनी जिम्मेवारियों का निर्वाह करते हुए अपने किसी कमजोर कर्मचारी पर कार्रवाई करते हैं और उसे तत्काल प्रभार से निलंबित कर दिया जाता है।

एक बार फिर एक महिला समाज के वहसी दरिंदो की अंधी जुनून का शिकार हो गई। लेकिन लाख टके का सवाल है कि क्या इंसानों का ज़मीर सचमूच खो गया है ? क्या लोग अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं ? हमें तलाशना होगा अपने ज़मीर को और पूछना होगा अपने आप से कि हमारा कर्तव्य क्या है और हम कर क्या रहे है ?

शनिवार, जून 06, 2009

रोमांचक आगाज
विश्व कप टी-ट्वेंटी उद्घाटन मैच में हाॅलैेड ने इंग्लैंड पर शानदार जीत दर्ज की। क्रिकेट के जानकार इसे बड़ा उलटफेर मान रहे हैं, लेकिन सच बात तो ये है कि यही टी-20 क्रिकेट की असली पहचान है। मैच कब और किस ओर रूख करेगी यह अंतीम गेंदो तक निर्भर करता है। टुर्नामेंट के पहले मैच ने यह संकेत दे दिया है कि किसी भी टीम को कम आंकना विरोधी टीम के लिए मुश्किल का सबब हो सकता है। क्रिकेट के इस सब से छोटे फाॅरमेट में मैच अनुभव से नहीं बल्कि आक्रमकता से जीता जाता है और इंग्लैड के खिलाड़ियों में इसी आक्रमकता का अभाव दिखा। खासकर मैच के अंतीम ओवर में चार बार ऐसा मौका आया जब हाॅलैंड के बैट्समेन को आउट कर इंग्लैंड मैच जीत सकता था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर सका। बहरहाल जो भी हो लेकिन के पहले मैच से ही साफ हो गया कि विश्वकप 2009 काफी रोमांचक होने वाला है।

बुधवार, जून 03, 2009

मीरा बनी स्पीकर


सासाराम संसदीय क्षेत्र से सांसद बनी मीरा कुमार आज लोकसभा स्पीकर बन गई हैं। लोकसभा अध्यक्ष के पद पर आसीन होने वाली वह पहली महिला हैं। 64 वर्षीय मीरा कुमार को निर्विरोध रूप से चुना गया है। संसद की बैठक में यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी ने कुमार के नाम का प्रस्ताव किया अkSर नेता प्रतिपक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने उनके नाम का समर्थन किया। लोकसभा के नेता प्रणव मुखर्जी की अगूवाई में यूपीए के प्रतिनिधिमंडल ने एक दिन पहले लोकसभा सेक्रेटरी पीडीटी आचारी के समक्ष नामांकन प़त्र दाखिल किया था।
मीरा कुमार को राजनीति विरासत में मिली है। कुमार देष के पूर्व उपप्रधानमंत्री और दलित नेता जगजीवन राम की बेटी हैं। उनको कांग्रेस हमेषा से एक दलित नेता के रूप सामने लाती रही है। कांग्रेस अपने संगठन में जिन चार नेताओं को दलित के नुमाइंदे के रूप में सामने लाती है, उसमें सुषील कुमार सिंदे, कुमारी शैलजा, कृष्णा तिरथ के साथ मीरा कुमार का नाम आता है। मीरा कुमार को लोकसभा अध्यक्ष बना कर कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने एक तीर से दो निषान कर लिए हैं। पहली बात तो किसी उच्च संवैधानिक पद पर महिला को आसीन करा कर महिलाओं का दिल जीत ली है, वहीं मायावती और रामविलास पासवान को करारा जवाब दिया है, जो अपने को दलितों का मसीहा मानते हैं।
31 मार्च 1945 में पटना में जन्मी मीरा कुमार ने दिल्ली विष्वविधालय से अंग्रेजी भाषा में एमए और फिर एलएलबी की डिग्री हासिल की थी। मीरा कुमार ने मंजुल कुमार नामक व्यक्ति से शादी की, जो सुप्रीम कोर्ट के एक जानेमाने वकील हैं।

मीरा कुमार 1973 में भारतीय विदेष सेवा में शामिल हुई। वह स्पेन, यूनाइटेड किंगडम और माॅरिसस के राजदूतावास में काम की। मीरा लंदन में भारतीय हाई कमीषनर रह चुकी हैं। 1985 में नौकरी छोड़कर मीरा कुमार ने राजनीति में प्रवेष किया और उसी साल बिजनौर से लोकसभा के लिए चुनी गई। वह ग्यारहवीं और बारहवीं लोक सभा के लिए करोलबाग संसदीय क्षेत्र से चुनी गई, लेकिन 1999 में हार गई। फिर 2004 में वह अपने पिता के संसदीय क्षेत्र सासाराम से चुनाव लड़ी, जिसमें उन्हें रिकाॅर्ड मतों से जीत हासिल हुइ। जब 2004 में केन्द्र में कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी तो मीरा कुमार को सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री बनाया गया। मीरा कुमार इस बार भी सासाराम से ही चुनाव जीती और उन्हें केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय की जिम्मेवारी सौंपी गई, लेकिन एक बड़ी राजनीतिक चाल के तहत मीरा कुमार को लोकसभा के अध्यक्ष पद के लिए नमित किया गया और वह निर्विरोध चुन ली गई। इस तरह देष के पहली महिला स्पीकर के साथ-साथ कुमार देष का पहला दलित स्पीकर भी बन गई।
मीरा कुमार सामाजिक मामलों में भी आगे बढ़कर बोलती रही है। 2007 में जब अर्जुन सिंह ने ओबीसी को आरक्षण देने की बात कही थी तो मीरा ने उनका भरपूर समर्थन किया था। मीरा कुमार की हमेषा से मांग रही है कि अंतरजातीय विवाह करने वाले लोगों को पचास हजार रूपये देने के लिए कानून बनाया जाय। मीरा कुमार के बारे में दो खास बातें और भी है। पहली बात कि वह बतौर स्पोर्ट्समेन राइफल शुटिंग में मेडल जीत चुकी हैं। दूसरी बात यह कि वह एक कवियत्री भी हैं।
अपनी जिंदगी में कई महत्वपूर्ण फैसला कर चुकी मीरा कुमार अब नये रूप में सामने आई हैं। नये पद संभलने के बाद उनको नई चुनौतियों से भी सामना करना पड़ेगा। अब देखना होगा कि मीरा कुमार अपने पद की गरिमा को बनाये रखते हुए कितनी सफलता पूर्वक कार्यों को पूरा करती है।

मंगलवार, जून 02, 2009

पटना म्यूजियम का हाल, बेहाल.......

विश्व के प्रमुख संग्रहालयों में से एक पटना म्यूजियम में ऐतिहासिक धरोहरों का भंडार है। यहां विश्व की कई अदभुद कलाकृतियां रखी गई है। , पटना म्यूजियम में सदियों पुरानी अष्ठधातु और प्रस्तर की दुर्लभ मूर्तियां है। यहां पर पुराने जमाने की चीजें और कलाकृतियों का अच्छा-खासा संग्रह है। पटना म्यूजियम में लोहानीपुर से प्राप्त जैन तीर्थंकर की कलाकृति और मौर्यकालीन मूर्तियां रखी गई है, जो विश्व की दुलर्भ कलाकृति है। यहां मिट्टी की मूर्तियों का बहुत बड़ा भंडार है। पटना म्यूजियम में मौर्यकाल से लेकर पालकाल तक के अति दुर्लभ शिल्प कलाएं संग्रहित है। यहां पर नालंदा से प्राप्त धातु षिल्पकला की मूर्तियां अपने कालात्मक सौंदर्य के कारण विष्व की दुर्लभ कलाकृतियों में षुमार है। विश्व के अन्य देशों में जब कला या पुरातत्व सामग्रियों की पद्रर्शनी होती है तो पटना संग्रहालय की कलाकृतियों को भी शामिल किया जाता है। यही कारण है कि यहां पर देश-विदेश से पुरातत्वविद अनुसंधान करने के लिए आते रहते हैं। पटना म्यूजियम में इतने विश्वस्तरीय ऐतिहासिक धरोहर का रहने के बावजूद यहां पर विश्व मानक के अनुसार सुविधाएं नहीं है। दुर्लभ और पुरानी कलाकृतियां रहने के बावजूद इसको सही ढ़ंग से रखा नहीं गया है। म्यूजियम कैंपस में पीने के पानी और शौचालय की उचित व्यवस्था भी नहीं हैं, जिससे यहां घूमने के लिए आने वाले पर्यटकों को भारी परेशानी होती है। पटना म्यूजियम में रखे गये देश की इस ऐतिहासिक धरोहर को बचाने की आवश्यकता है। साथ ही जरूरत है सरकार की एक ऐसी पहल की , जिससे यहां आनेवाले पुरातत्वविद और पर्यटकों को परेशानियों का सामना नहीं करना पड़े।

सोमवार, जून 01, 2009

राजद में फेरबदल

लोकसभा चुनाव में मिली हार का असर राजद पर दिखने लगा है। जिस माई समीकरण के बदौलत लालू प्रसाद पंद्रह सालों तक बिहार की कुर्सी पर काबिज रहे, आज उनकी संगठन में ही माई समीकरण प्रभावी नहीं रहा। आगामी विधान सभा चुनाव को देखते हुए प्रदेश राजद को पुनर्गठित किया जायेगा। राजद पर से अब माई का प्रभाव हटनेवाला है। रविवार को हुई रघुवंश कमेटी की बैठक में यह महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया। जिसमें प्रदेश संगठन की पचास फीसदी सीटों को दलितों, अति पिछड़ों और पार्टी की अन्य समर्थक जातियों से भरने की नीति पर सहमति बनाई गई । संगठन के नये स्वरूप में ब्राह्मणों और राजपूतों को भी उचित स्थान देने का निर्णय लिया गया। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि प्रदेश संगठन की 80 फीसदी सीटों पर यादव और मुसलमानों का कब्जा है। जिससे अन्य जातियां मायूस है। बैठक में युवा राजद और छात्र राजद से लेकर पंयायती राज प्रकोष्ठ तक में माई के बाहर के लोगों को रखने का निर्णय लिया गया। वैसे इसका औपचारिक फैसला राष्ट्रीय अध्यक्ष लालू प्रसाद की सहमति के बाद ही होगा। अब देखना होगा कि राजद सुप्रीमो रघुवंश कमेटी के इस फैसले पर अपनी सहमति जताते हैं या नहीं ? वैसे उन्हें को भी इसकी आहट पहले से हो गई थी। यही कारण है कि कभी सवर्णो को सफाया करने की बात कहने वाले लालू प्रसाद सोषल इंजीनियरिंग के तहत सवर्णों को भी आरक्षण देने की बात कह चुके हैं।

रविवार, मई 31, 2009

बाढ़ की तबाही से सरकार सिखाने को तैयार नही

लगता है कि पिछली बार आयी बाढ़ की तबाही से सरकार सीख लेने को तैयार नहीं हैं। मानसून दस्तक देनेवाला है। उधर सरकार की लेटलतीफी के कारण बाढ़ भी कहर बरपाने को तैयार है। गरीब जनता एकबार फिर से त्रासदी की कोख में समाने को विवश है। सरकार योजनाएं बनाकर लोगों को बहला रही है। सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि अभी तक आधी योजनाएं भी पूरी नहीं हो पायी है और जिस रफ्तार से काम हो रहा है, उससे नहीं लगता है कि समय पर काम पूरा हो पायेगा। सरकार बाढ़ की तबाही से बचने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बना रही है। लेकिन उन योजनााओं पर सख्ती से अमल नहीं किया जा रहा है। परिणाम है कि जलसंसाधन विभाग द्वारा करवाये जा रहे बाढ़ सुरक्षात्मक योजना का आधा काम भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है। सरकार बाढ़ की तबाही को ध्यान में रखते हुए 439 करोड़ 96 लाख रूपया खर्च कर तीन सौ 64 योजनाएं बनाई। इन योजनाओं को पंद्रह जून तक पूरा कर लेना था, पर अभी तक महज 106 योजनाओं का काम ही पूरा हो सका है। पचास योजनाओं पर पंद्रह से बीस प्रतिषत काम बांकी है, जबकि 80 योजनाओं पर तो अभी तक पचीस से तीस प्रतिषत काम ही हो पाया है। चैंकाने वाली बात तो यह है कि 128 योजनाओं का काम तो अभी तक आधा भी नहीं हुआ है। इससे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के लोग काफी डरे हुए हैं। सरकार की इस ढ़ुलमुल रवैये से तो यही लगता है कि वह लोगों को सिर्फ झुठी दिलासा दिला रही है। लेकिन सवाल है कि आखिर कब तक सरकार, लोगों को ठगती रहेगी और बाढ़ के पानी में लोगों की उम्मीदें बहती रहेगी ?

बुधवार, मई 27, 2009

बिहार में छोटी पार्टी

हर कोई नेता बनकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहत है। इसके लिए उन्हें चुनाव से बेहतर समय भला कौन सा मिल सकता है। चुनाव आते ही बड़े नेता बनने के लिए सब टिकट के जुगाड़ में लग जाते हैं। टिकट नहीं मिलने पर कई लोग निर्दलिय खड़े हो जाते हैं तो कई वकायदा अपनी पार्टी तक बना लेते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में। चुनाव के बाद चुनाव आयोग ने विभिन्न क्षेत्रों से उम्मीदवारों को मिले मतों का जो ब्योरा जारी किया है, उसमें एक बहुत ही रोचक तथ्य सामने आया है। लोकसभा चुनाव में छोटी पार्टियों ने जमकर अपना-अपना भाग्य आजमाया। बिहार में इस बार 61 पार्टियों ने 178 उम्मीदवार खड़े किये थे। इन पार्टियों मे केवल समता पार्टी ही ऐसी थी जिसके 26 उम्मीदवार मैदान में थे। जबकि इंडियन जस्टिस पार्टी के सिर्फ आठ। अधिकांश पार्टियों के सिर्फ एक उम्मीदवार चुनाव लड़ा। क्षेत्र की जनता तक को पता नहीं था कि नेताजी कौन सी पार्टी के उम्मीदवार हैं। कुछ पार्टियां किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर, तो कुछ पार्टियां दूसरे राज्य विशेष के नाम पर चुनाव लड़ी। इन पार्टियों में कुछ का नाम तो चैंका देने वाला था। जैसे गांधी लोहियावादी पार्टी, राष्ट्रीय देहात पार्टी, जागो पार्टी, लाल मोर्चा, एकलव्य समाज पार्टी। वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा और मुस्लिम लिग केरल स्टेट कमेटी के नाम पर उम्मीदवारों ने वोट मांगे। ये अलग बात है कि इन पार्टियों के बारे में क्षेत्र की जनता तक को पता नहीं है। परिणाम, एक भी उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाये। जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद ये उम्मीदवार अपना हौसला नहीं छोड़ रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि अगले चुनाव में अच्छे परिणाम आयेंगे। बहरहाल चुनाव समाप्त हो चुका है। उम्मीदवार भी अपने-अपने कामों में लग गये हैं। लेकिन सवाल ये है कि ये छोटी-छोटी पार्टियां कब तक लोगों को बरगलाती रहेंगी ? और चुनाव आयोग इन दलों की लंबी फेहरिस्त को कब तक संभालता रहेगा ?

शनिवार, मई 16, 2009

जीत का रूका रथ

एक पुरानी कहावत है कि समय बलवान होता है। यदि वह अनुकूल हो तो आदमी को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचा देता है और यदि विपरीत हो तो कहीं का नहीं छोड़ता। समय का कुछ ऐसा ही खेल हो रहा है लोजपा सुप्रीमो रामलविलास पासवान के साथ। जो कभी दलित राजनीति के रास्ते प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का सपना देखते थे। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा में उनका सूपड़ा साफ हो गया।

बुझा हुआ चेहरा और सूनी आंखे। लोजपा सुप्रीमों का ये रूप उनकी आषा के ठीक विपरित है। सूबे में भारी जीत के प्रति आष्वस्त रामविलास की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। राम विलास भले ही इस बार जीत हासिल नहीं कर पाये, लेकिन उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि उनकी कामयाबी की गाथा को बयां करती है। और इसका गवाह है हाजीपूर। जहां से वह पहलीबार लोकसभा का चुनाव जीते थे। लोजपा सुप्रीमो पासवान बिहार के पहले नेता हैं जिसे जनता ने आठ बार लोकसभा तक पहुंचाया है। चैदहवीं लोसभा चुनाव में चार सीटों के साथ यूपीए गठबंधन में शामिल हुए, लेकिन पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में वह यूपीए से अलग होकर लालू और मुलायम के साथ मिलकर चुनाव लडे।़ और उनकी पार्टी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली।

62 वर्षिय रामविलास पासवान अपने छात्र जीवन के समय से ही राजनीति करने लगे थे। वह 1969 में संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा का चुनाव जीते थे। 1974 के आंदोलन में जयप्रकाष और राजनारायण के काफी करीब रहे पासवान 1975 में इमरजेंसी के दौरान जेल भी गये। 1977 में जब वह जेल से बाहर निकले तो जनता पार्टी का सदस्य बने। और फिर सातवीं लोकसभा चुनाव में वह हाजीपुर लोकसभा सीट से रिकाॅर्ड मतों से जीते। पांच लाख से अधिक मतों से जीत हासिल कर गिनीज बूक आॅफ वल्र्ड रिकाॅर्ड में अपना नाम दर्ज करवा चुके पासवान ने 1980 में दलित सेना का गठन किया। 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में पासवान को पहली बार हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन उसके बाद से वह लागातर चैदहवीं लोकसभा चुनाव में जीतते रहे। दलितों की राजनीति करनेवाले रामविलास ने सन् 2000 में लोकजनषक्ति पार्टी बनाई। देष में जब कभी दलित प्रधानमंत्री बनने की बात हुई तो रामविलास ने भी अपनेआप को एक सषक्त उम्मीदवार के रूप में सामने लाया। अभी तक देष के पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके पासवान केन्द्रीय मंत्रीमंडल में श्रम एंव सामाजिक कल्याण, संचार, रेल और रसायन एवं उर्वरक जैसे महत्वपूर्ण विभाग देख चुके हैं।भारतीय राजनीति में एक विषेष पहचान बना चुके रामविलास की अगली रणनीति क्या होगी, ये तो बाद में ही पता चलेगा,,,लेकिन एक बात तो साफ है कि किसी का भी समय हमेषा एक समान नहीं होता......

गुरुवार, मई 14, 2009

वरुण एन एस ऐ से मुक्त

आखिरकार उस नाटक का पटाक्षेप हो ही गया....जो प्रायोजित रूप से चुनाव के लिए खेला गया था। इस नाटक में एक अनजान चेहरे को नायक के रूप में सामने लाया गया,,,और और नाटक का अंत होते-होते लोगों ने उसे हिरो बना दिया। चुनाव खतम होने के चार दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने वरूण गांधी के उपर से एन एस ए हटा लिया। वरूण ने जो चाहा था वो उन्हें मिल गया....राजनीति के गलियारों में गांधी-नेहरू परिवार का ये गुमनाम चेहरा अपने भड़काउ भाषण से अचानक चर्चा मे आया.... और लोगों के जेहन में छा गया। इस से पहले साहित्य में रूचि रखनेवाले चंद लोग ही वरूण को जानते थे....लेकिन हिन्दुओं का स्वयंघोषित मसिहा बनकर वरूण ने अपनी पहचान बनाने के लिए लोगों के बीच एक ऐसी चाल चली जो आज के राजनीत के लिए सब से उपयुक्त और अचूक हथियार माना जाता है....उन्होंने इसके लिए लोगों के इमोषन का जमकर इस्तेमाल किया। वरूण राम के रथ पर सवार होकर हिन्दुत्व के रास्ते राजनीति के जिस मुकाम तक पहुंचना चाहते थे....उसमें वह बहुत हद तक सफलता भी पाई....अब देखना होगा के राजनीति में अपनी पहचान बनाने के बाद भगवा वस्त्र धारण करनेवाले वरूण राम को कब तक याद रख पाते हैं....

रविवार, मई 03, 2009

चुनावी नेता

चुनाव की मेला में


भाषणों की बेला में


कई दिग्गजों की जुबान फिसल गये


हाथ कटा, रॉलर चले


खूब बोले बाहुबली


क्रुर बने मॉडल नेता


नेताजी बनाये गये नक्सली


अपने क्षेत्रों का ये विज्ञ


मानवता से अनिभिज्ञ


आदर्शवाद के नाम पर


विवेकहीनता दिखा गये


लोकतंत्र के लिए मरने वाले क्रांतिकारी


जब देखते होंगे मारामारी


कहते होंगे क्या कर रहा है


वोटों का ये भिखारी


और फिर सोचते होंगे


कहां हम दुस्सासनों के हाथ में


द्रौपदी का चीर देकर आ गये।।

रविवार, अप्रैल 26, 2009

राबड़ी का गुस्सा

आजकल राबड़ी देवी बहुत गुस्से में रहती है....खासकर मीडियावालों से विशेष नाराज रहती है...उनकी माने तो बिहार सरकार को मीडिया ही चला रही है.....वह कभी इतना गुस्सा जाती है कि पत्रकारों से कहती है आपलोग नीतीश कुमार को प्रधानमंत्री बना दो...मीडियावाले उनकी व्यथा को अच्छी तरह समझ सकते हैं.....एक तो चिलचिलाती धूप की तपिश....उपर से चुनावी गर्मी...घुमते घुमते किसी का भी मन खिज सकता है....खासकर वे लोग जिन्हें हमेशा एयरकंडिशनर में रहने की आदत है....उनको गुस्सा आना स्वभाविक है.....अपने ठेठ अंदाज के लिए चर्चित राबड़ी चुनावी रैलियों में जमकर भड़ास निकाल रही हैं.....विशेषकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और जद यू नेता ललन सिंह उनके निशाने पर हैं.....नीतीश और ललन सिंह को एक दूसरे का साला बताने पर उठे विवाद के बाद राबड़ी को जब चुनाव आयोग ने राहत दी.....उसके बाद वह एक नये अंदाज में सामने आई....उन्हें जब भी मौका मिलता है...नीतीश और ललन सिंह केा नहीं छोड़ती....एक दिन उन्होंने नीतीश कुमार की तुलना किचड़ से कर डाली....फिर भी नहीं रूकी और अपने मुख्यमंत्री को नीच तक कह डाला......ये तो कुछ भी नहीं था....जब बारी ललन सिंह की आई तो पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि वह नक्सलवादी हैं....खैर नेताओं का अंदाज-ए -बयां कुछ खास होता है......नक्सली और बाहुवलियों के पत्नियों को टिकट देकर नेता बनाते हैं....और नेतााओं को नक्सली बताते हैं.....इसे ही नेतागिरी कहते हैं.....राबड़ी देवी भी अब नेता बन चुकी है......चुनाव अभी जारी है....और राबड़ी का अपना गंवई अंदाज में भाषण भी....कोई आश्चर्य नहीं होगा..जब राबड़ी जी किसी चुनवी मंच से रांड़ी, बेटखौकी कर रही होगी.......

शनिवार, अप्रैल 25, 2009

सब के दुश्मन भाजपाई....

अपने मजकिया अंदाज से लोगों के दिलांे पर राज करनेवाले लालू प्रसाद यादव कुछ बदले बदले से नज़र आ रहे हैं.....1990 के बाद बिहार में पहला ऐसा चुनाव हो रहा है जब राज्य में उनकी सरकार नहीं है...इसका असर साफ तौर पर राजद सुप्रीमो के हावभाव पर देखा जा सकता है....हमेशा आत्मविश्वास से भरे रहनेवाले लालू इस बार हताश है...परेशान हैं...और बहुत हद तक निराशाओं की झलक, उनके भाषणों में दिखती है...कभी कभी तो ऐसा लगता है कि लालू सठिया गये हैं...वोटों के जुगाड़ में वह वे बाते भी कह जाते हैं...जो उनके लिए सिरदर्द बन जाती है...कभी वह वरूण गांधी पर रोलर चलाने की बात कहते हैं....तो कभी कहते हैं कि भागलपुर दंगे में आडवाणी का हाथ है.... माय समीकरण बनाकर बिहार की सत्ता पर काबिज होने बाले लालू स्लोगन बनाने में भी माहीर है....बहुत दिन पहले वह भूरा बाल साफ करो का नारा बुलंद किया....फिर समाज के चार जातियों के बारे में कहा था कि ये चारो चुड़ा, दही, चिनी और मिर्च है, इसे लपेट कर खा लो....खैर ये तो पुरानी बातें हो गई...इस बार उनके निशाने पर भाजपाई हैं...और उन्होंने भाजपाइयों के लिए कहा है कि, हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई...सब के दुश्मन भाजपाई.... वैसे उनके निशाने पर सिर्फ भाजपाई या एनडीए नहीं है....वह तो उस पार्टी पर भी बरस पड़ते हैं...जिसके सरकार में वह मंत्री हैं....एक तो चिलचिलाती धूप की गर्मी...साथ में चुनाव की गरमाहट अलग से.....बैसाख के कंठ सुखानेवाली गर्मी में चलते चलते लालू जी कभी कभी तो इतना गरमा जाते हैं कि पहुंचते हैं चुनाव में वोट जुटाने के लिए....और गुस्से में अपने विधायक को पार्टी से निकाल देते हैं...... अब तो दो जून को ही पता चलेगा... कि लालू के गरम हुए मिजाज पर सूबे की जनता ठंढ़ पानी छिड़कती है....या गरम पानी..

सोमवार, मार्च 16, 2009

प्यार की हार

चांद मोहम्मद और फ़िज़ा की कहानी एक ऐसी मोहब्बत की दास्तां हैं, जो जज्बात और जुनून में अंधे होकर जल्दीबाजी में लिया गया फ़ैसला बनकर सामने आया है। उनकी करतूत प्यार के नाम पर न मिटनेवाला काला धब्बा बन गया। जो लोग चंद महिनो पहले इन दोनों के बारे में क़ासिदे गढ़ते थे आज वह बेतुका दलिलें देने पर मजबूर है। अपने अपने व्यवहारिक जीवन में महत्वपूर्ण जिम्मेवारियों का निर्वहन करते वक्त इन दोनो ने इश्क की नदानी में एक ऐसा गाथा गढ़ गया जो प्रेम विरोधी ताकतों के लिए व्रहृास्त्र बन गया। इन दोनो की प्रेम कथा एक ऐसे मोड़ पर जा पहुंची है जहां पर नफरत, काली कोठरी में अंधरों की तरह चारो तरफ फैली हुई है। यह किसी को उम्मिद नहीं था कि जो समाज की रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़ दुस्साहसिक कार्य करने का हिम्मत दिखाया, वह धैर्यता की परीक्षा में इतनी जल्दी हार मान जऐगा।
इन दोनों ने मीरा और कन्हैया की प्रेम को नये रूप में सामने लाया। कानूनी दांव पेंच से बचने के लिए अपना धर्म भी बदला। घर भी छोड़ दिया। सारे रिश्ते नाते तोड़ लिया। पिता की संपत्ति से भी हाथ धो लिया। उपमुख्यमंत्री की कुर्सी भी गंवा दिया। पर अफसोस कि चंद महिनो के बाद इनका इमान भी बदल गया। इन दोनो के बीच तक़रार इस कदर घर कर गया कि बात तालाक तक जा पहुंची। चांद मोहम्मद लंदन में है, जबकि फ़िजा भारत में। चांद ने फ़िज़ा को टेलिफॉन से तलाक़ दे दिया है। परन्तु जिस धर्म में परिवर्तित होकर इन्होंने शादी की है, वह धर्म टेलिफोन के ज़रिये तलाक की इजाज़त नहीं देता है। वैसे कुछ बुद्धिजीवियों का तो यहां तक कहना है कि जिस तरह से इन दोनो ने धर्म बदला था और जिस मक़सद के लिया बदला था, वह जायज़ नहीं था। जो भी हो। पर ये दोनो प्यार के जिस धर्म के लिए अपनी कहानी बनाई उसको बदनाम कर दिया।
फिलहाल ये दोनो प्रेम पथ से विचलित होकर नफरत की उस अंधेरी खाई की तरफ अपना कदम बढ़ा दिये हैं जहां एक शराब पी कर ज़िंदगी काट रहा है तो दूसरा नींद की गोली खा कार ज़िंदगी को सदा के लिए काटना चाह रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति बनने के लिए इन दोनो में गलती किसकी है, यह तो वे ही बेहतर जानते होंगे। गलती जिसकी भी हो। पर हार तो प्यार की ही हुई है। और शायद प्यार करने वाले दोनो को कभी माफ़ नहीं करेंगे।

रविवार, मार्च 15, 2009

बैक फ़ुट पर आडवाणी

पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां पुरजोर प्रचार कर रही है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी भी चुनाव को लेकर काफी उत्सुक है। उसकी उत्सुकता का आलम है कि उसने अपने पार्टी के तरफ से प्रधानमंत्री के नाम का घोषणा कर चुकी है। लालकृष्ण आडवाणी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने को बेताव हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में इंडिया शइनिंग के नारो के साथ चुनावी मैदान में उतरी भाजपा औंधे मुंह गिर गई थी। यह बात पी एम इन वेटिंग आडवाणी जी भी स्वीकार कर चुके हैं। अपनी पिछली गलतियों से सीख लेकर भाजपा आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाने के लिये तैयार है। परन्तु कुछ कारण ऐसे है जिससे स्पष्ट होता है कि आडवाणी का प्रधानमंत्री बनना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल अवश्य है। यदि हम पिछले लोकसभा चुनाव से तुलना करें तो ऐसा लगता है कि शायद ही आडवाणी जी का सपना पुरा हो पाये। इसके कुछ बाजिव कारण हम आपके सामने रख रहे है।
सब से पहली बात भाजपा के पास वोट मांगने योग्य चुनावी मुद्दों का अभाव है। फिलहाल उसके पास कोइ भी ऐसा मुद्दा नहीं है जिससे वह वर्तमान सरकार को पटखनी दे सके। इसका उदाहरण है कि करीब दस साल बाद फिर से उसे राम मंदिर याद आया है। ऐसा कहा जाता है कि जब भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं होता है तो वह राम के सहारे चुनाव लड़ता है। खैर, जनता सब कुछ भलीभांति जानती है। वैसे देश में या कहे दुनिया भर में आर्थिक मंदी और आतंकवाद का मुद्दा चरम पर है, पर इसे चुनावी मुद्दा बनाने से भाजपा को कोई फायदा नहीं होगा। इसका उदाहरण वह पिछले संविधान सभा चुनाव में देख चुकी है। अब लोग स्थानीय विकास पर वोट देतें है। और भाजपा के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं है।
दूसरी बात पार्टी में जीताउ नेताओं की कमी हो गई है। अटल बिहारी वाजपेयी खराब स्वास्थ्य के कारण सकृय राजनीति से अलग हैं। जनता अटल के नाम पर भी भाजपा को वोट देती थी। जो इस बार शायद नहीं मिले। इसके अलावा प्रमोद महाजन और साहिब सिंह वर्मा भी अब नहीं रहे। जिनका आम जनता पर मजबूत पकड़ था। ऐसे ही मध्यप्रदेश में उमा भारती और उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह की कमी भाजपा को जरूर खलेगी।
तीसरी बात भाजपा के पास युवा नेता का अभाव है। यहां युवा कहने का मतलब अंडर 40 है। जिस समय देश में एक बहुत बड़ा हिस्सा युवा वोटरों का है, उसमें पार्टी के पास जनता पर पकड़ वाली युवा नेता का न होना या कम होना चिंता का विषय है। जबकि कांग्रेस के पास एक बड़ी तादात में युवा नेता हैं। जो जनता का प्रतिनिधि कर रहे हैं। खासकर राहुल गांधी इसी का फायदा उठाना चाह रहे हैं।
चौथी और सब से अहम बात कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में गठबंधन की राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है। क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग के बिना केन्द्र में सरकार बनाना असंभव हो गया है। ऐसे में भाजपा पिछड़ती दिखाई पड़ती है। भाजपा के पुराने सहयोगी में अधिकांश अभी असहयोग कर रही है। पांच साल पहले भाजपा के साथ चौबीस पार्टियां थी, जो फिलहाल सिमटकर छह रह गई है। यहां तक कि बिजु जनता दल चुनाव से ऐन वक्त पहले अलग हो गई। जबकि तृणमुल कांग्रेस तो वाकायदा यूपीए में शामिल हो गई है।
इसके अलावा पार्टी में अंत:कलह भी है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। एक समय तो उन्होंने पार्टी की राजामंदी के बिना लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार हो गये थे। किसी तरह उन्हें शांत किया गया। ऐसे ही शत्रुघ्न सिन्हा ने भी टिकट को लेकर काफी घमासान मचाया। जब कल्याण सिंह अंदुरूनी कलह के चलते पार्टी छोड़ कर चले गये तब आनन फानन में सिन्हा को टिकट देने की बात कह कर शांत किया गया। अभी भी कई ऐसे नेता हैं जो टिकट के नाम पर पार्टी से बगावत कर सकते हैं। ये तमाम बातें ऐसी है जो आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में हरसभंव अवरोध उत्पन्न करेगी। इसके बाद भी भाजपा को उम्मीद है कि देश का अगला प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ही होंगे। अब तो यह चुनाव के बाद ही सामने आयेगा कि आखिर जनता क्या चाहती है।

शनिवार, मार्च 14, 2009

लोक नोट तंत्र

खादी का कुर्ता और धोती पहने
कुछ शख्स को गांव में देख
लोगों ने सोचा
शायद चुनाव का समय आ गया है,

उन्हें देखने के लिए भीड़ बढ़ने लगी
नेताजी के होठों पर मुस्कान उभरने लगी
पर शायद लोग कर रहे थे
इसी दिन का इंतजार
करने लगे गुस्सों का इजहार
लगा दिया प्रश्नों का बौछार
पूछा- पांच साल बाद क्या करने आये हो ?
क्या हमें फिर से बेवकुफ बनाने आये हो ?
हम तुम्हें नहीं जानते
तुम्हारी पार्टी को नहीं पहचानते
लोगों के सब्र का बांध टुटने लगा
धीरे धीरे माहौल बिगड़ने लगा
और नेताजी मुर्दावाद का हल्ला होने लगा

उधर नेताजी का पी ए लोगों को समझाने लगा
उन्हें बहलाने, फुसलाने लगा
फिर बोला
नेताजी को अपनी गलती का अहसास हो गया है
वह पश्चाताप करने आये हैं
तुम सब के लिये खास तोहफा लाये हैं
गांव में बिजली लगेगी, स्कूल बनेगा
सड़क भी बनेगी, सामूदायिक घर भी बनेगा
इस बार हम सिर्फ वादा नहीं करते हैं
साथ में प्रमाण भी लाये हैं
एक एक कर आओ
अपना हिस्सा लो
और नेताजी को आखिरी मौंका दो
और उन्हें भारी मतो से जीताओ,

लोग पुरानी बातों को भूलने लगे
अपना हिस्सा पहले लेने के लिये
आपस में ही लड़ने लगे
और फिर हाथों में रूपयों का नोट लेकर
नेताजी जिंदाबाद का नारा लगाने लगे ।।

रविवार, मार्च 08, 2009

नीतीश का पब्लिक स्टंट

बिहार सरकार विकास के रास्ते दिल्ली की कुर्सी तक पहुंचना चाहती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विकास पुरूष के रूप में जनता के सामने आना चहते हैं। उन्होंने कह दिया है कि भले ही ग़्क़्ॠ का मुद्दा कुछ भी हो, लेकिन बिहार सरकार विकास के नाम पर वोट मांगेगी। उन्हें वि·ाास है कि उनके विकास कार्यों से सूबे की जनता संतुष्ट है। अब देखना दिलचस्प होगा कि नीतीश सरकार का विकास आम जनता को कहां तक सतुष्ट कर पाया है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने वो हर एक हथकंडा अपनाया, जिससे वह जनता और मीडिया, दोनो के नज़रों में रह सके। इसमें कुछ फ़ैसले ऐसे भी थे जो कि अनोखा, अहम और पहला था। सब से पहल नीतीश कुमार ने जनता दरबार लगाना शुरू किया। जिससे उन्हें काफी लोकप्रियता मिली। दरबार में अच्छे खासे भीड़ जमा होता था। लोग अभी भी अपनी समस्याओं को लेकर आते हैं। इसके बाद सरकारी ऑफिस का समय बदल दिया गया। घूसखोरों पर ग़ाज गिरी। आम जनता काफी खुश हुआ। लेकिन घूस तो फेवीकॉल के जोड़ की तरह लगा हुआ है। जो आसानी से नहीं छूटता। फिर सूचना का अधिकार के तहत लोगों तक टेलिफोन के ज़रिये सूचना देने का फ़ैसला किया गया। ऐसा करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना। यह अलग बात है कि सूचना सटीक और सही समय पर नहीं मिलता है। लेकिन इससे बिहार सरकार की लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ।
इसी कड़ी में नीतीश कुमार ने एक ऐसा अनोखा काम किया जो कम से कम बिहार मे नहीं सोचा जा रहा था। मुख्यमंत्री गांव गांव जा कर लोगों से मिले। उन्होंने बेगुसराय में तो मंत्रीमंडल की मिटिंग भी कर डाली। उन्होनें लोगों की समस्यायें सुनी। त्वरित कार्रवाई का आदेश भी दिया। यहां तक की सभी बड़े अफसरों का मोबाइल नंबर भी सार्वजनिक कर दिया गया ताकि लोग अपनी समस्यायें टेलिफोन मार्फत भी सरकार तक पहुंचा सके। वैसे आलोचकों को इसमें भी बुराई नज़र आई। देखने का अपना अपना नज़रिया होता है।
इतने पर भी मुख्यमंत्री नहीं रूके। कभी माफिया आ अपहरणकारी का अड्डा कहा जाने वाला पटना में मुख्यमंत्री रिक्सा की सवारी कर सब को चौंका दिया। और लोगों को संदेश दिया कि अब पटना सुरक्षित और विकासशील है।
इस सब के बावजूद राज्य का एक बहुत बड़ा तबका, जो बाढ़ से त्रासित है वह सरकार से खफा है। यह अहसास नीतीश को भी है। इसलीय वह इस त्रासदी का दोषारोपण प्रकृति आ केन्द्र सरकार पर करने से नहीं चुकते। खैर, जो भी हो परन्तु एक बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भले ही नीतीश सरकार जनता की अपेक्षाओं पर पूर्ण रूप से खड़े नहीं उतरे हों पर उन्होंने बिहार की छवी को जरूर बदल दिया है।

शनिवार, मार्च 07, 2009

बापू के नाम पर ......


एक बार फिर गांधी चर्चा में हैं। एक अमेरिकी के कारण। संचार माध्यमों के जरिये। लोगों तक फिर गांधी पहुंचे हैं। सरकार को भी उनका ख्याल आया है। बापू की घड़ी, चप्पल, चश्मा, थाली और बाटी निलाम हो चुकी है। भारत सरकार की तमाम कोशिशें बेकार हो गई। सरकार ने कई तरह के प्रयत्न किया, कि बापू की धरोहर उसे मिल जाय, पर ऐसा नहीं हुआ। और अंततोगत्वा एक अमेरिकी ओटिस ने बापू की उस बहुमुल्य चिजों को नीलाम कर दिया। लेकिन इस सब के बीच गांधी के जरिये अमरिकी जेम्स ओटिस ने भारत सरकार को जो दृश्य दिखाया वह वाकइ शर्मशार कर देने वाली है। उन्होंने गांधी के चश्मे से सरकार को दिखा दिया कि भले ही बापू की समानो को घर लाने के लिए आप जद्दोजहद कर रहें है, पर उनके आदर्शो को आप बहुत पीछे छोड़ चुके हैं। पिछले साठ साल में आपने जब उनकी सपनों को पुरा नहीं कर सके तो चप्पल और चश्मा लेकर क्या करेंगे। बापू का सपना था कि लोक हिंसा से दूर रहे। सब के पास समान अधिकार हो। देश से गरीबी हटे। परन्तु अभी भी देश के एक चौथाई जनसेना के पास आधारभूत जरूरतों का अभाव है। खैर जो भी हो। बापू के इस देश में पैसे वालों का भी कमी नहीं है। नीलामी के बजार में एक शख्स सामने आया और वह बापू के अनमोल धरोहरों को अपन घर वापिस ले आया। सब खुश हैं। सरकार ने भी कुछ हद तक राहत की सांस ली। अब कुछ दिनों तक यह चर्चा के विषय होगा। इसे किसी म्युजीयम में रख दिया जायेगा। इसे देखने के लिये लोगों की भीड़ लगेगी। फिर धीरे धीरे सब इसे भूल जायेंगें। वैसे इससे पहले बापू का विचार भी बजार में बिक चुका है। फिल्मों के माध्यम से। लोगों ने हाथो हाथ लिया। लेकिन सिर्फ दिल बहलाने के लिये। दिल बहल जाने के बाद लोगों ने इसे किसी कोने में फेंक दिया । कोइ इसे अपने व्यवहारिक जीवन में नहीं उतार सका। बापू कहते थे अहिंसा परमो धर्म। लकिन अब तो अर्थ ही धर्म हो चुका है। परिणामस्वरूप चारो तरफ हिंसा ही हिंसा है। घर में घरेलू हिंसा। महिला हिंसा। समाज में जातीय हिंसा। देश में क्षेत्रीय और भाषीय हिंसा। और संसार में आतंकी हिंसा। पर इन सब के बीच कहीं न कहीं बापू की अहिंसा भी है। पर दबी हुई है। और बाहर तब आती है, जब मुम्बई और दिल्ली में हमला होता है। हमले के बाद लोग बापू को याद करते हैं। उनकी अहिंसा को याद करते हैं। और फिर हाथ में मोमबत्ती लिये सड़को पर निकल जाते हैं।

शुक्रवार, मार्च 06, 2009

पाकिस्तानी क्रिकेट बोर्ड पर हमला .........

तीन मार्चा का दिन क्रिकेट के इतिहास में काले अक्षरों में लिखा जाऐगा। खासकर जब पाकिस्तान में क्रिकेट होने की चर्चा होगी तो जरूर क्रिकेट प्रेमी एक बार सोचने पर मजबूर हो जाएगे। इसी तारिख को श्रीलंकन क्रिकेट टीम पर पाकिस्तान के लाहौर में गद्दाफी स्टेडियम के बाहर आतंकवादियों ने हमला किया था। जिसमें समरविरा, संगकारा आ मेंडिस सहित छह खिलाड़ी घायल होय गये। साथ ही श्रीलंका के सहायक कोच को भी गंभीर चोटें आई। इसके अलावा सात पुलिसकर्मी भी मारे गये। इस घटना के बाद पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड एक ऐसे मोड़ पर आ खड़ा हो गया है, जहां से उसे दूर दूर तक अंधेरा दिखाई पड़ रही है। इस हमले के बाद सब से अधिक पाक क्रिकेट बोर्ड को नुक्सान हुआ है। पाकिस्तान पर न सिर्फ अलग थलग पड़ने का खतरा बढ़ गया है बल्कि वर्ड कप 2011 की मेजबानी पर भी प्रश्न चिह्न लग गया है। वैसे भी पिछले दो तीन सोलों से पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड बहुत अच्छे हालात से नहीं गुजर रहा है। इंग्लैण्ड में मैच को बीच मैदान में छोड़कर बाहर हुई पाकिस्तानी टीम, कोच बॉव वुल्मर की हत्या में हुई किड़कीड़ी से उबर भी नहीं पाई थी कि शोएब अख्तर आ मो. आसिफ के मामलो को लेकर अंत:कलह में फंस गई। टीम की कमान युवा ऑल राउण्डर शोएब मलिक के हाथों में सौंपा गया, जो कि एक विफल कप्तान के तौर पर सामने आये। फिर जैसे तैसे युनुस खान को टीम की बागडोर सौंप कर सही रास्ते पर लाने की कोशिश की शुरूआत हुई। उधर क्रिकेट टीम के साथ साथ पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति भी बदलती चली गई। देश में बढ़ते आतंकी संगठनो के उपर से सरकार की पकड़ ढ़ीली पड़ती गई। पाकिस्तान में बढ़ते आतंकी घटनाओ का परिणा यह हुआ कि कोई भी टीम पाकिस्तान जा कर खेलना नहीं चाहती है। करीब डेढ़ साल बाद श्रीलंकन क्रिकेट टीम टेस्ट मैच खेलने के लिए पाकिस्तान गया थ। इससे पहले, इंग्लैण्ड, आस्ट्रेलिया और यहां तक कि मुम्बई हमले के बाद भारत ने भी पाक दौर करने से इनकार कर दिया। तमाम दौर रद्द होने से भारी आर्थिक नुक्सान झेल रही पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड श्रीलंकन क्रिकेट बोर्ड को इस शर्त पर मनाया कि उसके खिलाड़ियों को राष्ट्राध्यक्ष की भांति चाक चौबंद सुरक्षा मुहैया कराई जाऐगी। जिसके बाद श्रीलंकन टीम पाकिस्तान पहुंची। लेकिन अंतत: वही हुआ, जिसकी आशंका से दुनिया की तमाम क्रिकेट टीम पाकिस्तान जाने से मना कर चुका था। बुड़े वक्त से गुजर रहे पाकिस्तान क्रिकेट वोर्ड पर आतंकियों की नज़र पड़ गई।अब इस हमले के मद्दे नजर एक लंबे समय तक कोई भी टीम पाकिस्तान नहीं आ पायेगी। ऐसे में दो विकल्प बचेगा। या तो किसी तटस्थ स्थानों पर मैच आयोजित किया जाय या फिर पाक टीम सिर्फ विदेशी दौरा करे। ऐसे में सीध प्रभाव पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड पर पड़ेगा। उसका आय का रुाोत कम हो जायेगा आ उसे भारी आर्थिक क्षति होगी।

बुधवार, मार्च 04, 2009

क्रिकेट पर हमला

यही है खूंखार आतंकवादी। मजबूत इरादे। नापाक। लेकिन नाकाम। हाथ में रायफल्स। पीठ पर तबाही का सामान। क्रिकेट जैसी जनभावनाओं से जुडी खेल पर किया छुप कर किया वार। पाकिस्तानी सुरक्षा एजेंसी का खोल दिया पोल। शर्मशार हुआ पकिस्तान। साबीत कर दिया की पाकिस्तान में हमारी कितनी पकड़ है। गोलीबारी कर सब के सामने से निकल गया। सब के सब देखते रह गए। अभी भी पुलिस के कब्जे से बाहर। जागना होगा पकिस्तान को। पहल करना होगा अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को। नही तो और मजबूत होंगे इनके इरादे। और तबाह हो जायेगी दुनिया।

मंगलवार, फ़रवरी 10, 2009

मेरा क्या कसूर ?

हवस के अंधे दो बेरहमो के द्वारा,
जन्म के चंद मिनटों बाद
फ़ेंक दिए जाने पर
पूछती वह बच्ची
मां, मेरा कसूर क्या है ?

तुमने क्यों मुझे अलग कर दिया,
सबके रहते निःसंग कर दिया,
क्या यही सोचकर तुम
नौ महीनो तक पेट में रखी थी,
क्या मुझ में कभी
अपनी परछाई नही देखी थी ?

मां, तेरा दूध न मिलता
तो मै जी लेती,
पापा का प्यार न मिलता
तो भी रह लेती,
तुमलोगों के साथ होती
तो सब कुछ सह लेती,
पर क्यों अपने बच्ची के साथ धोखा किया ?

मां, तुम तो अब आराम की ज़िंदगी
कहीं जी रही होगी,
मुझे फ़ेंक कर
भारहीन महसूस कर रही होगी,
पापा भी खुश होंगे,
पर मै अभागिन,
लाचार, बेवस,
कचडे के डब्बे में
अपनी जिंदगी खोज रही हूँ
और खुदा से पूछ रही हूँ
की मेरा कसूर क्या है ?

रविवार, फ़रवरी 08, 2009

नेपाल में गृहयुद्ध की सम्भावना.....

नेपाल में सेना व्यवस्थापन संबन्धी मुद्दा एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है , जहाँ से देश में दूसरे गृहयुद्ध की सम्भावनाये साफ दिखायी पड़ती है। देश में एक तरफ जहाँ नवजात लोकतंत्र अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रहा है वही दूसरी तरफ माओवादी सत्ता के रास्ते अपने राजनीतिक सेना को राष्ट्रिय सेना में शामिल करने की पुरजोर कोशिश कर रहा है। देश में संविधान निर्माण, शान्ति स्थापना, विद्युत कटौती, अशिक्षा और गरीबी से लड़ना सरकार के लिए मुख्य चुनौती है वही माओवादी नेता अपने लड़ाकू को राष्ट्रीय सेना में शामिल करने की बात कर के नए विवाद को जन्म दे दिया है।



इस मुद्दे पर विस्तार से जानने से पहले थोड़ा उस सेना के अतीत के बारे में जानते है। जिसको राष्ट्रिय सेना में शामिल करने को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ है। दरअसल, ये सेना माओवादी का लड़ाकू दस्ता है। जब माओबादी सहित समूचा देश लोकतंत्र के लिए लड़ रहा था, उस समय माओवादी अपने इसी लड़ाकू के बल पर राजतन्त्र की सामना कर रहा था। हथियार के बल सत्ता कब्ज़ा करने की मंसूबा रखनेवाले माओवादी इस सेना का निर्माण किया था। गौर करनेवाली बात है कि इन लड़ाकू को भर्तीकरते समय न तो इनकी शारीरिक क्षमताओं पर ध्यान दिया गया था और न ही शैक्षिक योग्यता पर। साथ ही भर्ती के समय इनकी उम्र के लिए भी कोई मापदंड निर्धारित नही किया गया था। और एक बात, जिस समय माओवादी जंगल में था उस समय ये हथियारधारी लूट खसोट कर अपना पेट पालता था।

इन लड़ाकुओं की पृष्ठिभूमि को देखकर देश की तमाम राजनीतिक पार्टी इसे राष्ट्रिय सेना ने शामिल कने से इनकार कर रही है। इस मुद्दे को लेकर राजनितिक गलियारों में काफी गर्माहट है। न सिर्फ विपक्षी पार्टी सरकार के खिलाफ है बल्कि सत्ता में शामिल दूसरी पार्टी मधेसी जन अधिकार फोरम और एमाले भी माओवादी के विरूद्ध खड़ी है। नेताओं के बीच बयानवाजी की होड़ लगी हुई है। देश के नेता सब अपने अपने वाक वाणों से युधों के तरफ धकेल रहे है। सरकार में संस्कृति मंत्री गोपाल किरांती का कहना है किकिसी भी हालत में माओवादी जनसेना को राष्ट्रिय सेना शामिल करना होगा नही तो फिर से युद्ध कि स्थिति आ सकती है। वही वरिष्ठ माओवादी नेता मोहन वैद्य किरण भी सेना व्यवस्थापन को लेकर अपने तेवर कड़े किए हुए है। जबकि दूसरी तरफ मुख्य विपक्षी पार्टी नेपाली कांग्रेस के कार्यवाहक अध्यक्ष सुशिल कोइराला ने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि यदि सेना व्यवस्थापन पर विशेष जोर दिया गया तो तो कांग्रेस सदन और सड़क दोनों जगहों से आन्दोलन करेगी। कुछ ऐसा ही तेवर सरकार के मुख्य सहयोगी एमाले का भी है। एमाले महासचिव झलनाथ खनाल ने साफ तौर पर कहा है कि सेना व्यवस्थापन को लेकर माओवादी यदि ज्यादा बखेडा खरा करता है तो सरकार गिरने की नौबत आ सकती है। कमोबेश यही कथन मधेशी जन अधिकार फोरम का भी है। वैसे विपक्षी कांग्रेस सहित कुछ पार्टी सेना व्यवस्थापन को लेकर माओवादी को एक विकल्प दिया कि जो माओवादी लड़ाकू निर्धारित मापदंडो पुरा करता है उसे राष्ट्रिय सेना में शामिल किया जा सकता है , पर माओवादी इससे इंकार कर रही है।
बात इतना तक ही सीमित नही है। बात धीरे धीरे बढ़ते हुए वहां तक जा पहुँची है, जहाँ देश के रक्षामंत्री और सेना प्रमुख आमने सामने खड़े है। दरअसल सेन प्रमुख रुक्मंगत कटुवाल सेना में नै भरती कर रहे है। जिससे माओवादी खफा है। रक्षामंत्री राम बहादुर थापा बादल सीधे तौर पर सेना प्रमुख को कहा है कि वह यथाशीघ्र सेना में नई भरती रोक दे नही तो सरकार उनके ऊपर उचित कदम उठाने पर विवश हो जायेगी। जबकि सरकार में पर्यटन मंत्री और वरिष्ठ माओवादी नेत्री हिसिला यमी ने तो यहाँ तक कही है कियदि सेना में नई भर्ती नही रोका गया तो माओवादी भी अपने लड़ाकू सेना में भर्ती करना शुरू कर देगा।
ऐसे में प्रश्न उठता है कि यदि माओवादी अपने सेना को राष्ट्रिय सेना में शामिल करता है तो क्या तारे क्षेत्र में पल रहे दर्जनों सशत्र समूह चुप बैठेंगे? क्योंकि ये लोग भी हथियार लेकर तथाकथित सामाजिक मांगो को लेकर आन्दोलन कर रहे है। सरकार देश में शान्ति स्थापना को लेकर इन सशत्र समूह से लगातार बातचीत कर रही है। ऐसे में यह सशत्र समूह भी मांग कर सकता है कि उसके कार्यकर्ता को भी राष्ट्रिय सेना में भर्ती किया जाय। यदि नही किया गया तो तो ये सभी सशत्र समूह मिलकर आन्दोलन में उतर जायेंगे, जो सरकार के लिए भाड़ी मुश्किलें खड़ी कर सकते है। और यदि इन्हे सेना में शामिल कर लिया गया तो यह गरीब देश सेनाओ के भार तलेदब जायेगी। गौर करने वाली बात है कि फिलहाल देश में ९००००० सेना है। और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि नेपाल को किसी भी पड़ोसी देश से सेना सम्बन्धी खतरा नही है। जो देश अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए पड़ोसी देशो पर आश्रित है , वह इतनी भार कैसे सहन कर सकता है। ऐसे में देश में गरीबी बढेगी, भुखमरी होगी और लोक रास्ते पर निकल आयेंगे। जिसे रोकना शायद ही सम्भव हो....................

स्वभाव

भीड़ के एक कोने में खड़ी,

निःसंग, असहाय,

फटी हुई साड़ी में लिपटी

समाज से उपेक्षित

बलात्कृत, एक स्त्री,

थी कभी होनहार बेटी,

इसी समाज के एक इज्जतदार की

अंधीवासना की शिकार हो गयी,

जो थी कभी दुलारी

आज एक बदनुमा दाग बन गयी,

जिनकी अंगुली पकरकड़ वह चली थी,

आज वही उससे दूर होने लगे,

जो अपने गोद में बैठाकर पुचकारते थे,

आज वही दुत्कारने लगे,

हर कोई उससे मुंह मोड़ना चाहता है,

कोई कुलक्षनी तो कोई कुलटा पुकारता है,

वह निर्दोष,

सब सुनती है, सब सहती है,

किसी से कुछ नही कहती है,

क्योंकि जानती है

कि कहने से कुछ नही होगा,

क्योंकि मेरे लिए यह सभ्य समाज

अपना स्वभाव नही बदलेगा ॥

सोमवार, जनवरी 19, 2009

राजू के बहाने........

रामलिंगा राजू को सज़ा मिलनी चाहिए। अवश्य मिलनी चाहिए। और सज़ा कठोर भी होनी चाहिए। सज़ा मिले भी क्यों न? आख़िर उसने पब्लिक के साथ धोखा किया है। उसको ऐसी सज़ा मिले, जिससे दूसरों को सीख मिले। लोगों को लगे कि पब्लिक के साथ ग़लत करने पर ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है।
कंपनी के शेयर में सिर्फ लोगों का पैसा ही नही लगा रहता है। साथ में उसकी उम्मीदें भी रहती है। वह भी डूब गयी। सिर्फ शेयर धारकों का ही नही। हजारों की संख्या में नौकरी कर रहे लोगों का भी। हतास से भरे लोग आत्महत्या कर रहे है। कौन है इसका जिम्मेदार ? राजू। जो लोगों के साथ सत्य के नाम पर असत्य का धंधा किया। लोगों को आई टी के क्षेत्र में नई तकनीक सिखानेवाला राजू असल में बहूत बड़ा छलिया निकला। लोगों को ऐसे तकनीक से छला कि किसी को पता तक नहीं चला। और जब पता चला, तब तक सब कुछ लूट चुका था। ऐसे छलिये को तो सज़ा मिलनी ही चाहिए।
राजू की अवस्था देखकर अमिताभ अभिनीत फिल्म अग्निपथ याद आया। उसमे भी पब्लिक के साथ कोई अपना ही धोखा करता है। और अंत में पब्लिक ही उस धोखेबाज़ को सज़ा देती है। मौत से बत्तर सज़ा। फिल्म ख़त्म होते होते दर्शकों के हाथों से आवाज़ निकलने लगती है। होठों पर खुशी की मुस्कान उभर जाती है। और आंखों में आशा की किरणे। लोग धोखेवाजों के साथ वैसी सज़ा की आशा करते है। वैसे आम जनता के साथ धोखा करने वालों की फेहरिस्त छोटी नही है। बहूत लम्बी है। बिहार में बाढ़ आती है तो रोटी देने में धोखा किया जाता है। दिल्ली में घर बांटा जाता है तो उसे देने में धोखा किया जता है। कोई प्रत्यक्ष रूप से, तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से धोखा देता है। बेचारी जनता। सब जानती है। पर चुप है। क्योंकि लाचार है। फिल्म देखकर तालियाँ बजाते हुए खुश रहने को मज़बूर है। उसी में अपनी जीत को देखकर बेवस है। अब उन्हें राजू के नाम पर न्याय मिलाने की उम्मीद है। यदि राजू को सज़ा मिल गयी तो एक बार नेताओं को अवश्य मंथन करना होगा। जो जनता को बार बार छलता है। कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो............जो ज़रूरी है।

शनिवार, जनवरी 17, 2009

माओवादी का सच .....


वैसे
तो नेपाल में राजा का शासन खत्म हो चुका है, पर लोकतंत्र की स्थापना भी नही हो सका हैनेपाल में लोक का तंत्र एक ऐसे हाथ में है जो इसे स्वतंत्र रूप से पनपने नही दे रहा हैजंगल से बाहर निकलकर माओवादी लोकतंत्र की बागडोर तो पकर लिया, परन्तु इसे चलना वह नही सीखायही कारन है कि सत्ता उस के हाथ में आने के बाद वह सुधरने के वजाय और ज़्यादा उग्र हो गयादेश की नेतृत्व कर रहे माओवादी अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल प्रचंड अपने पुराने सोच से नही उबर पायें हैउनके मन में अभी भी हथियार उठाने और सत्ता कब्जा करने की बात घर की हुई हैप्रधानमंत्री का कहना है कि सत्ता कब्ज़ा किया जा सकता हैइतना ही नहीं वह कुर्सी छोड़ कर हथियार उठाने की बात करते हैंपता नहीं उनके मन में क्या है? क्योंकि माओवादी का उद्देश्य होता है --"हथियार के बल पर सत्ता कब्ज़ा करना"। और अब जब सत्ता उसके हाथ में है तो फिर हथियार उठाने की बात क्यों की जा रही हैइस सवाल का जवाब पार्टी के दूसरे नेता और देश के जिम्मेबार मंत्री बखूबी दे रहें हैंनेपाल के संस्कृति मंत्री गोपाल किरांती का मानना है कि मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हरेक नेपाली के पास हथियार होना चाहिएकिरांती साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि हरेक नेपाली को हथियार रखने की संवैधानिक व्यवस्था होना चाहिएमाओवादी के नेता अपने हिसाब से मानवाधिकार की परिभाषा देतें है और कहते हैं कि जब तक राज्य है, तब तक हरेक व्यक्ति को सुरक्षित रहने के लिए बन्दूक चाहिएबात इतना तक ही सीमित नहीं हैमाओवादी नेता अभी भी राजतंत्र के समय कब्ज़ा किए गए घर और ज़मीन वापिस करने के पक्ष में नहीं हैमात्रिका यादव तो वाकायदा इसके विरुद्ध अपनी लड़ाई तक छेड़ दी हैउन्होंने इसके लिए अपना मंत्री पद तक त्याग कर दियाआदमी के घर ज़मीन की बात छोडिये वे भगवान् तक को भी नहीं बखस्ता हैवे भगवान पर विश्वास नही करतेपर भगवान् की पूंजी पर ज़रूर नज़र रखते हैफलस्वरूप विश्वविख्यात पशुपति नाथ मन्दिर में ऐसा विवाद उतपन्न हुआ कि संसार के सम्पूर्ण हिन्दू धर्मावलम्बी हिल गयाइस घटना के बाद एक और ऐसा सच सामने सामने आया कि माओवादी सुप्रीम कोर्ट तक की अवहेलना करने से नही हिचकिचाता है
ये तो हुई पार्टी की वरिष्ठ नेताओं की बातलेकिन जब बात पार्टी की युवा दस्ते की होती है तो माओवादी का चेहरा और ज़्यादा भयावह बनकर सामने आता हैमाओवादी के हाथ में सत्ता आने के बाद से पार्टी का युवा दस्ता यूथ कम्युनिष्ट लिंग नंगा नाच कर रहा हैजो चाहता हैजहाँ चाहता हैवह करता हैव्यापारी रामहरी श्रेष्ठ की हत्या की बात हो या हिमाल मीडिया पर हमले की बात होसभी में माओवादियों की करतूत सामने आता हैऔर सरकार कोई भी ठोस कार्रवाई नही कर पाती हैआम लोग डरे हुए हैंसहमे हैमजबूर भी है सरकार सुनती है और प्रशासन
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में प्रजातंत्र का मायने क्या है ? जहाँ ख़ुद प्रजा सुरक्षित नही हैइस लोकतंत्र का भविष्य क्या है ? जहाँ की जनता वर्तमान में त्रस्त हैदिशा विहीन हैऐसे में आम जनता के मन में एक बार तो ज़रूर ख्याल आता होगा कि इस से कहीं अछा राजतंत्र था ....................................

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

गिरता हूँ .....उठता हूँ.....

जख्म गहरा है, फिर भी सहता हूँ,
चोट खाता हूँ, पर मुस्कुराता हूँ,
खुश रहने की आदत है,
हंसता रहता हूँ।

दूसरों को छोड़, ख़ुद को ज्यादा सुना,
हमेशा कठिन डगर को चुना,
गिरता हूँ,
थोड़ा घबराता हूँ,
फिर से चल पड़ता हूँ,
चलने की आदत है,
चलता रहता हूँ।
दोस्तों ने बहूत कुछ दिया,
अपना बनकर गैरों ने धोखा दिया,
पतझड़ के मौसम में,
हरियाली को ढूँढता फिरता हूँ,
पाने की इच्छा है,
खोजता रहता हूँ।

परिस्थिति ने भी खूब खेल खेला है,
हमने विश्वास के बल पर इसे झेला है,
शह और मात के इस खेल में,
कभी जीता तो कभी हाडा हूँ,
फिर भी लड़ता हूँ,
जीतने की हसरत है,
लड़ता रहता हूँ॥

रविवार, जनवरी 11, 2009

पंचायती फैसलों की हकीकत .....

एक लड़की के साथ बलात्कार करने की सजा -कान पकड़कर दस बार उठक -बैठक। यह एक पंचायत का फैसला है। यह फैसला द्वापर या सतयुग में नही किया गया है। बल्कि आज के युग में यह फैसला हुआ है। यानी की २१ वीं शताब्दी के महान भारत का फैसला है। घटना राजधानी से सटे नॉएडा की है। जहाँ एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। बलात्कार के आरोप में दस लड़कों को अभियुक्त बनाया जाता है। परन्तु यह बात उस गाँव वाले को हज़म नही होता है जहाँ का वह आरोपी रहने वाला है। आनन् फानन में गाँव में एक पंचायत बुलाई जाती है। और सभी आरोपियों को मासूम करार दिया जाता है। साथ ही आरोपियों को अनजान बालक बताते हुए सारी गलती पीड़ित लड़की के माथे पर मढ़ दिया जाता है। कहा जाता है कि लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ ग़लत अवस्था में थी। ऐसे ही एक दूसरी घटना में हरियाणा के गाँव में एक लड़की की अस्मत लूटी जाती है। बात आगे बढ़ने पर गाँव में पंचायत बुलाई जाती है। और पंचायत में फैसला किया जाता है कि पीड़ित लड़की को मुआवजे के तौर पर आरोपी २१ हज़ार रुपया देगा। किसी पंचायत का यह अकेला फैसला नही है। पंचायतों में इस तरह के फैसले आमतौर पर देखा जाता है। खासकर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर। इस तरह फैसला करने में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य सब से आगे है। पंचायत के इस पक्षपातपूर्ण और विवेकहीन फैसलों पर मंथन करने से पहले पंचायत की बनावट और उसके महत्व को समझने के लिए इतिहास के पन्नो को थोड़ा पलटते है। दरअसल पंचायत भारतीय ग्राम्य जीवन का पहला और महत्वपूर्ण अदालत होता है। जिसका मुख्य कार्य समाज में घटे विभिन्न घटनाओं का आपस में बैठकर निष्पक्ष रूप से निपटारा करना होता है। shaaब्दीक रूप से पंचायत का मतलव ऐसे समूह से है जिसमे पाँच प्रतिनिधि होता है। यथा -ब्रह्मण, क्षत्रिय, वस्य, सुदर और परमेश्वर। यानी कि समाज के पांचो अंगों का एक- एक प्रतिनिधि। और इन पञ्च परमेश्वर का काम सामाजिक तथा मानवीय हीत को ध्यान में रखकर फैसला करना होता है। इन पंचों के हाथ में ग्रामीण सभ्यता, संस्क्रीती को बचाने का ज़िम्मा भी रहता है। हमारा देश गावों का देश है। इसलीय यहाँ पंचायती अवधारना बहुत पुराणी है। वैदिक काल के आरम्भ से ही पंचायतो कि महक मिलाती है। उस समय गावं का प्रबंध ग्रामीनी करता था और उस के न्रेतित्व में गावं से जुड़ी सभी निर्णय किए जाते थे। उत्तर वैदिक काल में भी रामायण और महाभारत में पंचायतों की अवधारना स्पष्ट होती है। बौधकाल में भी गावं का बुजुर्ग आपस में बैठकर सामाजिक न्याय का फैसला करते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी उल्लेख है कि स्थानीय विवादों का निर्णय ग्राम व्रीधों एवं सामंतों द्वारा किया जाता था। इस के बाद मुगलकाल और अँगरेज़ के ज़माने में भी ऐसा ही देखने को मिलता है कि गावं के ज़मींदार और बुजुर्ग पंchaयाती फैसला करते थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसके लिए कानून बना। और फिर जनता के द्वारा सरपंच का चुनाव होने लगा। जो स्थानीय विवादों को निपटाने में सहयोग करता है।

पंचायत के इस थोड़ी सी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखकर ऐसा लगता है कि पंचायती निर्णय का अधिकार हमेशा से दबंगों और बुजुर्गों के हाथ में रहा है। जो मनुवादी सोच में रहकर फैसला करने के आदी है। धीरे-धीरे समय तो बदला, पर ग्रामीण परिवेश रह रहे लोगों में अभी भी पुरातनवादी सोच हावी रहा है। आज भी पंचायती फैसले लोग उसी सोच से करते है। गावं में अभी भी अशिक्षा, गरीबी और पुरुषवादी मानसिकता चरम पर है। इसी का नतीजा है कि जिस पंचायतों में लोग न्याय की उम्मीद लेकर जाते हैं, वहीं उनको सरे आम बेईज्ज़त होना पङता है। पंचायतो में किसी को डायन बताकर पिटा जाता है तो किसी की अस्मत को चंद रुपयों में निलाम कर दी जाती है। दरअसल ये घटनाएं बेआबरू करती है समाज की उन सोच और विचारों को जो एक तरफ महिलाओं को समान अधिकार देने की बात करता है और समाज के हर क्षेत्र में उसकी सहभागिता की वकालत करता है , जबकि दूसरी तरफ मौत सी ज़िंदगी जीने पर मजबूर करता है
ऐसे में सवाल उठता है कि इस मामलों के बीच सरकार कहाँ है? और क्या कर रही है? सरकार और प्रशासन इस बर्बरतापूर्ण अत्याचारों को रोकने के लिए क्या पहल कर रही है? मानव अधिकार आयोग और महिला आयोग के करता-धरता कहाँ है? हैसब कुछ हैसभी संगठन भी हैऔर सरकार भी हैसरकार महिलाओं के विकास के काम भी कर रही हैवह २४ जनवरी को बालिका दिवस मना रही हैलेकिन पंचायत के इस फैंसलों पर मौन हैक्या होगा इस बालिका दिवस मनाने से? कौन समझता है इस का मतलब ? कम से कम गावं के चौपाल पर बैठकर पंचायतों के ज़रिये ह्रदयविदारक निर्णय लेने वाले वे लोग तो किसी भी हालत में इस का मतलब नही समझते है जो औरत को पैरों की जूती समझते हैइसलिए यदि सरकार बालिका दिवस मनाने के बदले यदि उनपर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए मजबूत पहल करे तो बेहतर हैसाथ ही तरह के पंचायती फैसला करने वाले पंचों पर भी ज़मीनी तौर पर कर्र्बाई ज़रूरत दिखायी पड़ती है ...........

गुरुवार, जनवरी 08, 2009

ज़िंदगी चलती है..........

आतंकवाद का हमला हो,
या ब्लूलाइन का मामला,
महंगाई की मार हो,
या आर्थिक मंदी का मशला,
ज़िंदगी चलती है, चलती रहेगी

काम पर सुबह जाना है,
देर शाम लौटना है,
हर दिन जान हथेली पर ले,
डी टी सी पर चढ़ना है

हर कोई है भीर में,
पहले पहुचने की चाह में,
दूसरों को गिराकर,
हर किसी को जल्दी जाना है

ठसठस भीर में,
धक्के मुक्के के बीच में,
जालसाजों से बचकर
मीलों का सफर तय करना है,
ये जिंदगी चलती है, चलती रहेगी