गुरुवार, अक्तूबर 28, 2010

बेपर्दा होती जुबान

राजनीति में मर्यादाओं की लकीरें पतली होती जा रही है। जुबानी जंग में आगे निकलने की होड़ आ पड़ी है। द्वेष और खेद के बीच हर दिन नई सीमाएं बनती है और फिर उसे तोड़ दी जाती है। इसमें सबसे आगे वे स्वयंभू समाजवादी हैं,जो खुद को जेपी का अनुयायी बताते हैं। बिहार विधान सभा चुनाव के गहमागहमी के बीच पहले शऱद यादव ने और फिर रामविलास पासवान ने समाजवादियों की उम्मीदों को तार-तार कर दिया।
         सवाल उठता है कि नेताओं के बयानों का स्तर गिरता क्यों जा रहा है। दरअसल जब विचारों में मिलावट और शब्दों में कमी हो जाती है तो भाषा का स्तर गिर जाता है। आज के दौर में ज्यादातर नेता कमोबेश इसी स्थिति से गुजर रहे हैं। उनके पास ऐसी कोई रणनीति नहीं है, जिससे वो विपक्षी को घेर सके अथवा जनता के मन में खुद के लिए विश्वास पैदा कर सके। वो समाज के वास्तविक मुद्दों को छूना नहीं चाहते हैं। क्योंकि हर किसी का घर शीशे का है। ऐसे में उन्हें चर्चा में बने रहने के लिए तल्ख मिजाज होना जरूरी है और मजबूरी भी। नहीं तो आधुनकि राजनीति में नई मिसाल पेश करने वाले यूथ आईकॉन राहुल गांधी को ना तो शरद यादव गंगा में फेंकने की बात कहते और ना ही रामविलास पासवान, उस बीजेपी और आडवाणी को पाप की पोटली करार देते, जिसकी सरकार में रहकर वो पांच सालों तक राजनीति की दिशा तय करते रहे।
       इन बातों से साफ है कि राजनीति सिर्फ विलासिता का माध्यम बनकर रह गया है। ऐसे में कुर्सी की चाहत उसे हर स्तर तक पहुंचने को मज़बूर कर देती है। नेताओं की जुबान की धार उस समय और तेज़ हो जाती है, जब कोई ख़ास मौक़ा हो। और अभी बिहार में चुनावों का दौर जारी है। यहां पर नेताओं का जमाबड़ा लगा हुआ। ऐसे में कोई चूकना नहीं चाहता है। अगर इसी तरह सियासी तापमान गरमाता रहा तो ना जाने और कितने समाजवादियों की जुबान बेपर्दा होगी।

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