शुक्रवार, जुलाई 23, 2010

लोकतंत्र का चीरहरण

शर्म करूं या गुस्सा। समझ में नहीं आता। राज्य के सबसे बड़े पंचायत में जो कुछ भी हो रहा था वो इतिहास के काले अक्षरों में लिखाता जा रहा था। सदन की गरिमा लुट रही थी। गणतंत्र की जननी कलंकित हो रही थी। लोकतंत्र का चीरहरण हो रहा था। धृतराष्ट्र की तरह हमसब देख और सुन रहे थे। बेबस। लाचार। चाहकर भी हम कुछ नहीं कर सकते। क्योंकि हममें से कुछ पार्टी के गुलाम हैं, कुछ जाति तो कुछ मजहब के गुलाम हैं। और बेड़ियों में जकड़ा इंसान सोचता तो बहुत है लेकिन कुछ करता नहीं।और इसी स्थिति में कमोबेश हम सब थे।


                  एक महिला पार्षद ने तो हद कर दी। उनकों जब सदन को शर्मसार करते रोका गया तो बाहर निकलकर तांडव करने लगी। वो कौन सा रूप धारण कर चुकी थी, नहीं बता सकते। वो क्या साबित करना चहाती थी समझ नहीं सके। वो तो ऐसे कुद रही थी जैसे WWF के कोर्ट में प्रतिद्वंदी को चुनौती दे रही हो। कैमरे में कैद होने के लिए बेहोस तक हो गईं। लग रहा था पार्टी ने उन्हें इसी के लिए विधान परिषद में पहुंचाया था। वो किसके लिए इतना कर रही थी। पार्टी में अपनी ताक़त दिखाने के लिए या उन किसानों के लिए जिनकी खेतों में दरारें पड़ चुकी है। या उन लोगों के लिए जिनका घर बाढ़ में बह गया। उन लोगों के लिए जो पानी और बिजली के लिए सड़क पर हंगामा करते हैं या उन मजदूरों के लिए जिन्हें मनरेगा काम नहीं मिला। ऐसे एक-दो नही, कई नेता थे, जो इस अपना सब कुछ लुटाने को तैयार थे। वो मानों तैयार हो कर ही आये थे। ओलंकपिक में क्वालीफाई करना हो।

           दोनों पक्ष लड़ रहे थे। विधायक बाहुबल और ताकत की आजमाइश इस तरह कर रहे थे। जैसे मानों इस बार क्षेत्र में चुनाव लड़कर नहीं, बल्कि सदन में ही लड़कर तय कर लेना है कि कौन सी कुर्सी किसकी होगी। घंटों तक कुश्ती चलती रही।

          सदन में विरोध का स्वरूप बदल गया है। बहस तो बीती बात बन गई है। हंगामा और तोड़फोड़ के बिना कोई नेता अपनी बातें नहीं रख पाता। इसी में बातें बिगड़ जाती है। चप्पलें फेंकी जाती है। कुर्सियां पटकी जाती है। माइक तोड़े जाते हैं। गाली-गलौज होता है। कुर्ता फटता है। और सभी माननीय चारित्रिक रूप से नंगे हो जाते हैं। हां एक बात है। हिन्दी पट्टी के विधायक हों या मराठी या तमील। सभी इसमें एकजुटता दिखाते हैं। कश्मीर भी पीछे नहीं है। यहां तक की देश के सबसे बड़े पंचायत भी इससे अछुता नहीं है।

              मनानियों की इस लड़ाई में जीत किसकी हुई, मैं नहीं समझ पाया। लेकिन हारने वाले बहुत लोग हैं। उसमें हम हैं, आप हैं और निसहाय लोकतंत्र है।

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