रविवार, फ़रवरी 08, 2009

स्वभाव

भीड़ के एक कोने में खड़ी,

निःसंग, असहाय,

फटी हुई साड़ी में लिपटी

समाज से उपेक्षित

बलात्कृत, एक स्त्री,

थी कभी होनहार बेटी,

इसी समाज के एक इज्जतदार की

अंधीवासना की शिकार हो गयी,

जो थी कभी दुलारी

आज एक बदनुमा दाग बन गयी,

जिनकी अंगुली पकरकड़ वह चली थी,

आज वही उससे दूर होने लगे,

जो अपने गोद में बैठाकर पुचकारते थे,

आज वही दुत्कारने लगे,

हर कोई उससे मुंह मोड़ना चाहता है,

कोई कुलक्षनी तो कोई कुलटा पुकारता है,

वह निर्दोष,

सब सुनती है, सब सहती है,

किसी से कुछ नही कहती है,

क्योंकि जानती है

कि कहने से कुछ नही होगा,

क्योंकि मेरे लिए यह सभ्य समाज

अपना स्वभाव नही बदलेगा ॥

1 टिप्पणी:

  1. आज एक बदनुमा दाग बन गयी,
    जिनकी अंगुली पकरकड़ वह चली थी,
    आज वही उससे दूर होने लगे,
    जो अपने गोद में बैठाकर पुचकारते थे,
    आज वही दुत्कारने लगे,

    सही चित्र है इस खोखले समाज का.........समाज को यथार्थ का दर्पण दिक्लाती है यह रचना, शशक्त रचना

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