गुरुवार, दिसंबर 31, 2009

चल पड़ा हूं

मैं अपने भूतों पर
बिलखता नहीं
भविष्य की सोचता नहीं
वर्तमान में लड़ता हूं
संघर्ष के एक – एक क्षण को
संजोकर रखता हूं
मैं तोड़ दिये जाने से नहीं डरता
कर्मों पर विश्वास करता हूं
मैं राखों से नहीं खेलता
रोज आगों में तपता हूं
कठिर डगर चुन ली हमने
पर सहारे की अपेक्षा नहीं रखता
अपनी मंजिल को पाने के लिए
हर पल अग्नि परीक्षा देता हूं
हर मो़ड़ पर छली खड़ा है
हर कृत्य पर टेढ़ी नजर रखता है
हर डगर रोड़ा अड़काता है
ठोकर खाने से थोड़ा लड़खड़ाता हूं
पर प्रबल संकल्प के सामने
किसी का चलता नहीं
यही सोचकर एक बार फिर से
चल पड़ता हूं ।।

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