वैसे तो नेपाल में राजा का शासन खत्म हो चुका है, पर लोकतंत्र की स्थापना भी नही हो सका है। नेपाल में लोक का तंत्र एक ऐसे हाथ में है जो इसे स्वतंत्र रूप से पनपने नही दे रहा है। जंगल से बाहर निकलकर माओवादी लोकतंत्र की बागडोर तो पकर लिया, परन्तु इसे चलना वह नही सीखा। यही कारन है कि सत्ता उस के हाथ में आने के बाद वह सुधरने के वजाय और ज़्यादा उग्र हो गया। देश की नेतृत्व कर रहे माओवादी अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल प्रचंड अपने पुराने सोच से नही उबर पायें है। उनके मन में अभी भी हथियार उठाने और सत्ता कब्जा करने की बात घर की हुई है। प्रधानमंत्री का कहना है कि सत्ता कब्ज़ा किया जा सकता है। इतना ही नहीं वह कुर्सी छोड़ कर हथियार उठाने की बात करते हैं। पता नहीं उनके मन में क्या है? क्योंकि माओवादी का उद्देश्य होता है --"हथियार के बल पर सत्ता कब्ज़ा करना"। और अब जब सत्ता उसके हाथ में है तो फिर हथियार उठाने की बात क्यों की जा रही है। इस सवाल का जवाब पार्टी के दूसरे नेता और देश के जिम्मेबार मंत्री बखूबी दे रहें हैं। नेपाल के संस्कृति मंत्री गोपाल किरांती का मानना है कि मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हरेक नेपाली के पास हथियार होना चाहिए। किरांती साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि हरेक नेपाली को हथियार रखने की संवैधानिक व्यवस्था होना चाहिए। माओवादी के नेता अपने हिसाब से मानवाधिकार की परिभाषा देतें है और कहते हैं कि जब तक राज्य है, तब तक हरेक व्यक्ति को सुरक्षित रहने के लिए बन्दूक चाहिए। बात इतना तक ही सीमित नहीं है। माओवादी नेता अभी भी राजतंत्र के समय कब्ज़ा किए गए घर और ज़मीन वापिस करने के पक्ष में नहीं है। मात्रिका यादव तो वाकायदा इसके विरुद्ध अपनी लड़ाई तक छेड़ दी है। उन्होंने इसके लिए अपना मंत्री पद तक त्याग कर दिया। आदमी के घर ज़मीन की बात छोडिये वे भगवान् तक को भी नहीं बखस्ता है। वे भगवान पर विश्वास नही करते। पर भगवान् की पूंजी पर ज़रूर नज़र रखते है। फलस्वरूप विश्वविख्यात पशुपति नाथ मन्दिर में ऐसा विवाद उतपन्न हुआ कि संसार के सम्पूर्ण हिन्दू धर्मावलम्बी हिल गया। इस घटना के बाद एक और ऐसा सच सामने सामने आया कि माओवादी सुप्रीम कोर्ट तक की अवहेलना करने से नही हिचकिचाता है।
ये तो हुई पार्टी की वरिष्ठ नेताओं की बात । लेकिन जब बात पार्टी की युवा दस्ते की होती है तो माओवादी का चेहरा और ज़्यादा भयावह बनकर सामने आता है। माओवादी के हाथ में सत्ता आने के बाद से पार्टी का युवा दस्ता यूथ कम्युनिष्ट लिंग नंगा नाच कर रहा है। जो चाहता है। जहाँ चाहता है। वह करता है। व्यापारी रामहरी श्रेष्ठ की हत्या की बात हो या हिमाल मीडिया पर हमले की बात हो। सभी में माओवादियों की करतूत सामने आता है। और सरकार कोई भी ठोस कार्रवाई नही कर पाती है। आम लोग डरे हुए हैं। सहमे है। मजबूर भी है। न सरकार सुनती है और न प्रशासन।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में प्रजातंत्र का मायने क्या है ? जहाँ ख़ुद प्रजा सुरक्षित नही है। इस लोकतंत्र का भविष्य क्या है ? जहाँ की जनता वर्तमान में त्रस्त है। दिशा विहीन है। ऐसे में आम जनता के मन में एक बार तो ज़रूर ख्याल आता होगा कि इस से कहीं अछा राजतंत्र था ....................................
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