पिछले कुछ वर्षो से नेताओं के प्रति लोगों का नजरिया बदला है। उनकी जो छवि सामने आयी , वो लोगों को प्रभावित नही किया है बल्कि इससे नकारात्मक संदेश अधिक है। जिन्हें एक दिन लोग समाज को मार्ग दर्शित करने के लिए आगे लाते है, एक पहचान के संग खड़े करते है, आज उन्हें लोग गरियाने लगे है।
अब प्रश्न उठता है कि देश के एक जिम्मेबार और पथ प्रदर्शक व्यक्ति के प्रति लोगो में नकारात्मक सोच क्यों है? दरअसल एकाएक ऐसा नही हुआ है। बल्कि पिछले कुछ सालों में नेताओं के स्वभाव , हावभाव, विचार और कार्य करने के तरीकों में नाटकीय ढंग से हुए परिवर्तन का ये दुष्परिणाम है। इसके लिए नेता स्वयं जिम्मेबार है। उन्होंने नेता शब्द की परिभाषा को बदल दिया है। वे राजनीति को व्यवसाय मात्र समझाने लगे है। वे चुनाव को एक व्यबसयिक परीक्षा की तरह इस्तेमाल करते है। चूंकि परीक्षा में अब भीड़ बढ़ गयी है। भीड़ से आगे निकलने और सुर्खियों में बने रहने के लिए मजबूरन नेताजी उजूल फिजूल बयान देते रहते है। उनको इस बात से कोई लेना देना नही है कि इस का असर कितना घातक हो सकता है। यह किसी से छुपा नही है की राज ठाकरे चुनावी परीक्षा में फेल होने पर बयानवाजी के बूते महाराष्ट्र में ऐसी आग लगाई की वहां का मिजाज़ ही बदल गया। गैर जिम्मेबार पूर्ण बयानवाजी करने पर किसी तरह की सजा नही मिलने के कारण इनका हौसला और ज्यादा बढ़ गया । यही कारण है कि एक केन्द्रिये मंत्री बंगलादेशी घुसपैठी को नागरिकता देने की बात करता है तो दूसरा आतंकी कार्यों में लिप्त संगठन सिमी कि ऊपर प्रतिबन्ध हटाने की वकालत कर रहा है। हद तो तब हो जाती है जब अमर सिंह और अंतुले साहब एक शहीद के शहादत के ऊपरसवाल उठा देते है। इसी तरह एक समय तो एसा लगा कि केरल के मुख्यमंत्री जी सठिया गए है। मुख्यमंत्री जी ने तो एक शहीद के परिवार को गाली तक देने से परहेज नही किए। वास्तविकता यह है कि ये लोग चुनावी परीक्षा में पास होने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते है। और चुनाव जितने के बाद उअनाका एक ही लक्ष्य रहता है , अधिक से अधिक पैसा कमाना। और जब बात पैसे के इर्दगिर्द घूमने लगाती है तो इस तरह का सारा खेल होता होता हैदेश के इन कर्णधारों के लिए यदि एसा कहें तो अतिशयोक्ति नही होगा कि
जो सत्यवादी थे वे शहीद हो गए ,
जो बच गए वे देश के उम्मीद बन गए,
आज टिका है उन्ही पर देश का भविष्य ,
जो कत्ल कर के संसद का सदस्य बन गए॥
ऐसे में एक बात सामने आती है कि आम लोग क्या करे? जो सब कुछ देखने औ सहने के लिए मजबूर है। मुंबई में हुए आतंकी हमले के बाद नेताओं के प्रति लोगों में व्याप्त गुस्सा अचानक बाहर निकल गया । मीडिया के सामने आकर गुस्से का इज़हार किया। लामबंद हो कर कुछ देर के लिए सड़क पर उतरे और अपना भड़ास निकल लिए। इससे अधिक कर भी क्या सकते है। लोग बिवस है। क्योंकि विकल्पहीन है। उन्हें किसी न किसी को नेता बनाना है। लोकतांत्रिक ढांचा ऐसा है जिस में नेता चाहिए । और उस नेता को आम जनता ही चुनेगे। ज्यादा से ज्यादा हम आम लोग एसा कर सकते है की एक को बदलकर दूसरे को खड़ा कर सकते है। पर रहेगा वो भी नेता ही। सिर्फ शरीर बदलता है। शरीर बदलने से कृत्य नही बदलता है। इस लिए उन से थोड़ा बहूत परिवर्तन की उम्मीद तो कर सकते है, पर जरूरी नही है की वह परिवर्तन सकारात्मक ही हो। नेता कोई विशेष व्यक्ति नही होता। बल्कि यह विशेष नाम है उस ज़मात का, जिस का एक अलग धर्म है। अलग ईमान है। और अलग पहचान होता है।
आज भले ही हम इस के विरुद्ध बोल रहे हैं। गरिया रहे है। पर यथार्थ यह भी है की इस ज़मात को विवेकहीनता और भ्रष्टता की हद तक पहुचाने में मेरा ,आपका ओर हमसब का थोरा थोरा योगदान अवश्य है। क्योंकि जाने अनजाने में जो व्यक्ति अपने जमात से थोरा सा हटकर काम करने की कोशिशे भी करता है तो उसे लोग सहजतापूर्वक स्वीकार करने में आनाकानी करने लगता है। उस समय लोगो के मन में परिवारवाद ,जातिवाद , क्षेत्रवाद और पार्टीवाद जैसे कुछ घातक किटानू पनपने लगता है जो तत्काल पथ विचलित कर देता है । और इसी का परिणाम दूरगामी और घातक होता है। फलस्वरूप बाद में हम सब पछताते है। जो आज हमारे सामने है।
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