कभी खुद को रॉबिन हूड से तुलना करने वाले लालू प्रसाद यादव राजनीति के हाशिए पर खड़े हैं। बिहार विधानसभा चुनाव के बाद से लालू और उनकी पार्टी मजधार में फंसी है। जो लालू कभी केन्द्र में सरकार बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखते फिरते थे, वो आज खुद एक अदद मंत्री बनने के लिए सोनिया गांधी के घर का चक्कर काट रहे हैं। बिहार के जिन नेताओं आसरे लालू हूंकार भरते थे, आज वे एक एक कर उनका साथ छोड़ रहे हैं। जब तक लालू राजनीति के शेर थे। दहाड़ रहे थे। तो तमाम चाटुकार उनके आगे पीछे दूम हिलाते फिरते थे। लेकिन शेर बूढ़ा क्या हुआ, उनके नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाले एक एककर दूम दबाकर भागने लगे।
बिहार में ही राष्ट्रीय जनता दल की ये स्थिति होगी, लालू ने कभी सोचा भी नहीं था। लालू ने बिहार की राजनीति में जो चाहा, जब चाहा, उसे डंके की चोट पर कर दिखाया। जिसको चाहा नेता बना दिया। जिसको चाहा मटियामेट कर दिया। शरद यादव ने बात नहीं मानी तो अलग पार्टी बना ली। विरोधी मिमियाते रहे और लालू राज करते रहे। लेकिन समय बदला। लोगों का मिज़ाज बदला। और लालू का राज बदल गया। एक बार कुर्सी क्या गई, मानों मौक़ापरस्ती की रानजनीति करने वाले बिहार के नेताओं ने रंग बदलना शुरू कर दिया। जिन नेताओं को लालू ने नाम दिया। पहचान दी। राजनीति का पाठ पढ़ाया। आज उन्हीं लोगों को लालू की नीति अच्छी नहीं लग रही है। वे उन्हें ही नसीहतें दे रहे हैं। साथ छोड़ रहे हैं।
दरअसल यही राजनीति है। जिसके पास सत्ता होती है। पावर होता है। उसी का सबकुछ होता है। लोकतंत्र के नाम पर कुर्सी का खेल करनेवालों के लिए ये एक कड़वी सच्चाई है। ये संकेत हैं उन तमाम क्षेत्रीय पार्टियों के लिए, जो निजी कंपनी की तरह चलाया जाता है। जो पार्टियां एक ही परिवार के आसरे चलती है। उसमें अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सचिव और कार्यकर्ताओं का चुनाव राजतंत्र सरीखे होता है। मसलन बिहार में राजद, जदयू, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजपार्टी, उड़ीसा में बीजू जनता दल, तमिलनाडू में डीएमके और एआईडीएमके, कर्नाटक में दनतादल सेक्यूलर, आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू की अगुवाई वाले तेलगू देशम पार्टी। इन तमाम पार्टियों की अगुवाई एक ख़ास शख्स के द्वारा किया जाता है। जिसे वो चाहता है, उसे वहां तक पहुंचा देता है। लालू यादव ने भी यही काम किया। जिसका खामिया आज उन्हें भुगतना पड़ रहा है।
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