बिहार में सियासी पारा 200 डिग्री सेल्सियस के पार है। विरोध की तपिश से पार्टी दफ्तरों में आग लगने लगी है। धू-धू कर जला रहा है पार्टी ऑफिस और धुआं-धुआं हो रहा है लोकतंत्र। समय के साथ जुमला और उसका अर्थ बदल जाता है। अब राजनीति में सबकुछ जायज़ होने लगा है। लोगों की मानसिकता बदली है। विरोध का स्वरूप भी। बात नहीं सुनी तो आग लगा दी। भले ही आग की लपटें लगाने वालों के इर्द गिर्द ही क्यों ना रह जाए। हलांकि ख़बरिया चैनल पर ब्रेकिंग न्यूज़ के साथ चेहरा भी दिखाया जाता। दो शब्द बोलने का मौक़ा भी। फिर ये मौक़ा मिले ना मिले। तभी तो इसे कोई गंवाना नहीं चाहता। मैथिली में एक कहावत है-सुकर्मे नाम या कुकर्मे नाम (कुछ अच्छा करो तभी नाम होगा या बुरा करो तभी)। अच्छा करने के लिए पार्टी टिकट नहीं दे रही तो भला क्या करे। कुछ तो करना है। नाम और पहचान में बहुत गहरा संबंध है।
विरोध के कई रंग हैं। कोई आग लगाता है। कोई तोड़फोड़ करके। कोई नारेबाजी से काम चलाता है, तो किसी का गुस्सा ज्यादा बढ़ा तो पार्टी अध्यक्ष पर हमला तक कर दिया। लेकिन विरोध की एक और तस्वीर भी है। ज़रा इसे भी समझिए। लोग इसे नंग धड़ंग प्रदर्शन कहते हैं। जब अगलगी और तोड़फोड़ से कुछ होता नहीं दिखा तो अंतिम प्रयास कर लिये। कपड़े तक उतार डाले। दिन में ही सबके सामने बेलिबास हो गये। कपड़ा खोल कर प्रदर्शन करने लगे। टिकट तो लेकर ही जायेंगे।
गांधीजी लोगों को कम वस्त्र पहने का उपदेश देते-देते चले गये। किसी ने नहीं माना। लेकिन टिकट ने ज़मीन पर ला खड़ा किया। काश ये नुस्खा गांधी बाबा को पहले पता होता तो आज देश में कोई नंगा नहीं घुमता। हलांकि बड़े लोगों के परिवार में बहु बेटियों का कम कपड़े में घुमना फैशन ज़रूर है। लेकिन पुरुषों में नहीं। यहां तो घर के मर्दों ने ही कपड़े उतार दिये थे। टिकट के लिए। सरेआम। बेपर्दा हो गये थे। कपड़ो का पर्दा सबके लिए ज़रूरी होता है। चाहे वो औरत हो या मर्द। क्योंकि बात शर्म, हया, मान और सम्मान की होती है। लेकिन जहां बात नेता और टिकट की हो तो बीच में इन सब बातों की गुंजाइश कहां बचती है। नेताजी आपको सलाम।
ये हंगाम करने वाले लोग कौन थे। मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तय था कि ये प्रोजेक्टेड नेता थे। हंगामा करने वाले, नेताजी के शुभचिंतक हैं या नेताजी ने इन्हें खर्चा-पानी देकर भेजा है। मैं ये भी नहीं जानता। लेकिन ज़रा सोचिए। जो आदमी टिकट के लिए अपने दफ्तर में आग लगा सकता है, नंगा नाच सकता है तो उसका नेता अगर जीत गया तो क्या-क्या करेगा।
विरोध के कई रंग हैं। कोई आग लगाता है। कोई तोड़फोड़ करके। कोई नारेबाजी से काम चलाता है, तो किसी का गुस्सा ज्यादा बढ़ा तो पार्टी अध्यक्ष पर हमला तक कर दिया। लेकिन विरोध की एक और तस्वीर भी है। ज़रा इसे भी समझिए। लोग इसे नंग धड़ंग प्रदर्शन कहते हैं। जब अगलगी और तोड़फोड़ से कुछ होता नहीं दिखा तो अंतिम प्रयास कर लिये। कपड़े तक उतार डाले। दिन में ही सबके सामने बेलिबास हो गये। कपड़ा खोल कर प्रदर्शन करने लगे। टिकट तो लेकर ही जायेंगे।
गांधीजी लोगों को कम वस्त्र पहने का उपदेश देते-देते चले गये। किसी ने नहीं माना। लेकिन टिकट ने ज़मीन पर ला खड़ा किया। काश ये नुस्खा गांधी बाबा को पहले पता होता तो आज देश में कोई नंगा नहीं घुमता। हलांकि बड़े लोगों के परिवार में बहु बेटियों का कम कपड़े में घुमना फैशन ज़रूर है। लेकिन पुरुषों में नहीं। यहां तो घर के मर्दों ने ही कपड़े उतार दिये थे। टिकट के लिए। सरेआम। बेपर्दा हो गये थे। कपड़ो का पर्दा सबके लिए ज़रूरी होता है। चाहे वो औरत हो या मर्द। क्योंकि बात शर्म, हया, मान और सम्मान की होती है। लेकिन जहां बात नेता और टिकट की हो तो बीच में इन सब बातों की गुंजाइश कहां बचती है। नेताजी आपको सलाम।
ये हंगाम करने वाले लोग कौन थे। मैं नहीं जानता। लेकिन इतना तय था कि ये प्रोजेक्टेड नेता थे। हंगामा करने वाले, नेताजी के शुभचिंतक हैं या नेताजी ने इन्हें खर्चा-पानी देकर भेजा है। मैं ये भी नहीं जानता। लेकिन ज़रा सोचिए। जो आदमी टिकट के लिए अपने दफ्तर में आग लगा सकता है, नंगा नाच सकता है तो उसका नेता अगर जीत गया तो क्या-क्या करेगा।
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