मेरे एक सहकर्मी के पिताजी की तबियत ख़राब थी। उनको पीएमसीएच में भर्ती कराया गया। जान पहचान वाले सभी देख आये थे। मेरी भी जिम्मेवारी बनती थी उन्हें देखने की। सो एक दिन मैं भी उनका हालचाल पूछने हॉस्पिटल पहुंच गया। वहां जब मैं अपने सहयोगी को देखा तो वो खुद अपने पिताजी से ज्यादा बीमार दिख रहे थे। चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था। क्योंकि उनके पिताजी उम्र के उस दहलीज पर थे, जहां बीमार होना किसी अनहोनी की अंदेशा को जन्म दे देता था।
मेरे मित्र ने बताया कि कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया। ठीक से सो नहीं पाया। बताया कि आज वो बहुत दिनों के बाद खुलकर बातें कर रहा है। लग भी रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने एक क़ायदे की कहानी, जिसे उन्होंने पिछले सात दिनों में अनुभव किया था।
बीमारी की ख़बर मित्र से लेकर नाते, रिश्तेदारों तक आग की तरह फैल चुकी थी। लगातार फोन कॉल्स आ रहे थे। चारो तरफ से दिलासा। भरोसा। दुआ। फोन से उपर उठकर धीरे-धीरे नजदीकी लोग हॉस्पिटल तक पहुंचने लगे थे। कुछ देर रूकते। किसी बीमार रिश्तेदार की पुरानी दास्तान सुनाते, सबकुछ ठीक हो जाने का भरोसा दिलाते और चले जाते। कई स्वयंभू तो वकायदा बेहतर डॉक्टर से दिखाने, देखभाल के अच्छे तौर तरीके के बहुमुल्य सुझाव मुफ्त में दे जाते। जैसे जैसे समय बीत रहा था, वैसे वैसे लोगों के आने जाने का सिलसिला भी बढ़ता जा रहा था। सभी शुभचिंतकों की ओर से वही रटी रटायी संवेदना। शुरू शुरू में तो ठीक ठाक लगता था। लेकिन बाद में लोगों की इन बातों से चिर चिराहट बढ़ती जा रही थी। अब तो जैसे कोई हालचाल पूछता तो मानों चिढ़ा रहा हो।
बीमारी की ख़बर पटना से बाहर भी पहुंच चुकी थी। पटना के रिश्तेदार भी जुटने लगे थे। कई लोग तो अपनत्व दिखाते हुए पूरे परिवार के साथ पहुंच गये। जिन्हें देखभाल करने की जिम्मेवारी भी बढ़ गयी। इतना ही नहीं इन लोगों को पता नहीं था कि मेरे घर से पीएमसीएच का रास्ता कहां है। लेकिन मुझसे प्यार इतना कि वो पापा को देखने के लिए आतुर थे। सो उन्हें घर से हॉस्पिटल तक लाने और पहुंचाना मेरे दिनचर्या में बढ़ गया। इस सब के बीच अगर अचानक पापा की तबियत ज्यादा बिगड़ गयी तो फिर डॉक्टर, दवा के लिए दौड़ना पड़ता था। हमारे देश में अतिथि देव माने जाते हैं। ऐसे में उन्हें आने से मना भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन.................
ख़ैर समय बीतता गया। मेरे मित्र के पीताजी स्वस्थ हो गये। घर वापस लौट आये। हलांकि अब जब मैं किसी बीमार व्यक्ति को देखने जाता हूं तो एक बार ये भी ख्याल जरूर में उठता है कि कहीं मैं किसी और को तनाव देने तो नहीं जा रहा हूं ।
सच कहा..अक्सर संवेदना जताने वालों से तकलीफ ही हो जाती है, कम से कम मरीज को, जिसे आराम की जरुरत ज्यादा होती है मगर साथी भी बेचारे क्या करें...ऐसे मौके पर न आयें तो भी बुरे बनें.
जवाब देंहटाएंहमने तो एक प्रतिज्ञा ले रखी है कि यदि किसी भी बीमार का हाल पूछने जाएंगे तो वहाँ पानी भी नहीं पीएंगे। जितना जल्दी हो सके वहाँ से वापस आएंगे। यदि किसी को हमारी आवश्यकता हो तो ड्यूटी भी निभाते है।
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