दिल्ली बदनाम हुई
कॉमन वेल्थ तेरे लिए
गंदगी भरमार दिखी
डेंगू का ख़तरा बढ़ा
आतंकी हमला हुआ
सुरक्षा की पोल खुली
बेइज़्ज़ती सरेआम हुई
कॉमन वेल्थ तेरे लिए
अरमानों पर पानी फिरा
बनते ही ओवरपुल गिरा
फ्लैट में सांप मिला,
बॉक्सर का बेड टूटा,
देश का नाक कटा
कॉमन वेल्थ तेरे लिए
खेल में खेल हुआ
कलमाड़ी माला माल हुआ
शीला की पोल खुली
दिल्ली लाचार हुई
कॉमवेल्थ तेरे लिए
रविवार, सितंबर 26, 2010
शुक्रवार, सितंबर 24, 2010
मर्ज बढ़ाने वाले मित्र
मेरे एक सहकर्मी के पिताजी की तबियत ख़राब थी। उनको पीएमसीएच में भर्ती कराया गया। जान पहचान वाले सभी देख आये थे। मेरी भी जिम्मेवारी बनती थी उन्हें देखने की। सो एक दिन मैं भी उनका हालचाल पूछने हॉस्पिटल पहुंच गया। वहां जब मैं अपने सहयोगी को देखा तो वो खुद अपने पिताजी से ज्यादा बीमार दिख रहे थे। चेहरे पर तनाव साफ दिख रहा था। क्योंकि उनके पिताजी उम्र के उस दहलीज पर थे, जहां बीमार होना किसी अनहोनी की अंदेशा को जन्म दे देता था।
मेरे मित्र ने बताया कि कई दिनों से ठीक से खाना नहीं खाया। ठीक से सो नहीं पाया। बताया कि आज वो बहुत दिनों के बाद खुलकर बातें कर रहा है। लग भी रहा था। बातचीत के दौरान उन्होंने एक क़ायदे की कहानी, जिसे उन्होंने पिछले सात दिनों में अनुभव किया था।
बीमारी की ख़बर मित्र से लेकर नाते, रिश्तेदारों तक आग की तरह फैल चुकी थी। लगातार फोन कॉल्स आ रहे थे। चारो तरफ से दिलासा। भरोसा। दुआ। फोन से उपर उठकर धीरे-धीरे नजदीकी लोग हॉस्पिटल तक पहुंचने लगे थे। कुछ देर रूकते। किसी बीमार रिश्तेदार की पुरानी दास्तान सुनाते, सबकुछ ठीक हो जाने का भरोसा दिलाते और चले जाते। कई स्वयंभू तो वकायदा बेहतर डॉक्टर से दिखाने, देखभाल के अच्छे तौर तरीके के बहुमुल्य सुझाव मुफ्त में दे जाते। जैसे जैसे समय बीत रहा था, वैसे वैसे लोगों के आने जाने का सिलसिला भी बढ़ता जा रहा था। सभी शुभचिंतकों की ओर से वही रटी रटायी संवेदना। शुरू शुरू में तो ठीक ठाक लगता था। लेकिन बाद में लोगों की इन बातों से चिर चिराहट बढ़ती जा रही थी। अब तो जैसे कोई हालचाल पूछता तो मानों चिढ़ा रहा हो।
बीमारी की ख़बर पटना से बाहर भी पहुंच चुकी थी। पटना के रिश्तेदार भी जुटने लगे थे। कई लोग तो अपनत्व दिखाते हुए पूरे परिवार के साथ पहुंच गये। जिन्हें देखभाल करने की जिम्मेवारी भी बढ़ गयी। इतना ही नहीं इन लोगों को पता नहीं था कि मेरे घर से पीएमसीएच का रास्ता कहां है। लेकिन मुझसे प्यार इतना कि वो पापा को देखने के लिए आतुर थे। सो उन्हें घर से हॉस्पिटल तक लाने और पहुंचाना मेरे दिनचर्या में बढ़ गया। इस सब के बीच अगर अचानक पापा की तबियत ज्यादा बिगड़ गयी तो फिर डॉक्टर, दवा के लिए दौड़ना पड़ता था। हमारे देश में अतिथि देव माने जाते हैं। ऐसे में उन्हें आने से मना भी नहीं किया जा सकता था। लेकिन.................
ख़ैर समय बीतता गया। मेरे मित्र के पीताजी स्वस्थ हो गये। घर वापस लौट आये। हलांकि अब जब मैं किसी बीमार व्यक्ति को देखने जाता हूं तो एक बार ये भी ख्याल जरूर में उठता है कि कहीं मैं किसी और को तनाव देने तो नहीं जा रहा हूं ।
गुरुवार, सितंबर 23, 2010
हाईटेक बाबा
पिछले कुछ दिनों में साईं बाबा का जबर्दस्त क्रेज बढ़ा है। आधुनिकता के दौर में अपने आप को नास्तिक कहलाने से बचने वालों के लिए साईं बाबा एक बड़ी खोज हैं। रूढ़ीवादी समाज को ठेंगा दिखाने वाले विद्रोहियों का आदर्श हैं। उन पर विश्वास रखने वालों के लिए साईं बाबा भगवान हैं। जिसकी बड़ी तादाद है। और दिन पर दिन बढ़ती ही जा रहा है।
साईं बाबा की सबसे बड़ी ख़ासियत है कि वो अपने भक्तों को किसी तरह के बंधन में नहीं बांधते। जाति, धर्म कोई मायने नहीं रखता। रूढ़ीवादी भगवान से बिल्कुल अलग। ज्यादा पूजा-पाठ, प्रपंच करने की कोई ज़रूरत नहीं। सीडी चला कर आरती कर लो, बाबा प्रशन्न हो जायेंगे। गेंदा, बेली, आक, धथूर कुछ नहीं चाहिए। बाबा बिल्कुल मॉडर्न हैं। बाबा को गुलाब का फुल सबसे ज्यादा पसंद है। लाल गुलाब, प्यार और विश्वास का सबसे बड़ा प्रतीक। भक्तों को भी एक फुल से कई काम.....। पुराने ढ़र्रे की कोई बंदिस नहीं है कि स्नान करो, धोती पहनो तब पूजा करो। यहां कपड़ा कोई मायने नहीं रखता। जिंस पैट, टी-शर्ट, मिनी स्कॉर्ट....सब चलता है। बस मन शुद्ध रहना चाहिए। पंडीत जी भी मिलेंगे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाले। कोई दिक्कत नहीं होगी। शायद इसीलिए बाबा के फैंस की संख्या दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
शीरडी के साईं बाबा बहुत फेमस हैं। लेकिन पटना के कंकड़बाग का साईं बाबा भी बड़े शहर वालों को टक्कर देने की स्थिति में अब पहुंच चुके हैं। पांच साल पहले जहां इक्का दुक्का लोग दिखते थे। वहां अब तो बाबा का दर्शन भी मुश्किल से होता है। बाबा बहुत बीजी रहने लगे हैं। ख़ासकर गुरुवार के दिन। इलाके भर का भक्त पहुंचते हैं। मानों जैसे बाबा इसी दिन सब की मुराद पूरी करते हो। स्कूल और कॉलेज के बच्चे तो बंक मार जाते है। भीड़ का आलम ये कि कभी-कभी तो भक्तों के बीच धक्का मुक्की तक हो जाती है। भीड़ को काबू करने के लिए आठ दस पुलिस के जवान लगे रहते हैं।
मंदिर में गुरुवार शाम को विशेष आरती होती है। शाम का वक्त रहता है, सो हर कोई बाबा का दर्शन कर लेना चाहता है। अगर थाड़ा सा लेट हुआ तो मंदिर कैंपस में बैठने के लिए जगह नहीं मिलेगी। पीछे खड़ा होना पड़ेगा। और अगर ज्यादा देर हो गयी तो फिर समझिये...सिर्फ आरती की आवाज़ ही सुनाई देगी। सो, कई लोगों ने तो टाइम फिक्स कर रखा है। आरती शुरू होने से डेढ़ दो घंटे पहले पहुंच जाते हैं। बच्चे, बुढ़े, जवान। सभी तरह भक्त। कितना भी ज़रूरी काम क्यों ना हो...गुरुवार शाम चार बजे के बाद सात बजे तक नहीं होगा। बाबा का दर्शन पाने के लिए जुगाड़ लगाना पड़ता है। मंदिर के सामने सड़क के किनारे ऊंची जगहों पर खड़े हो कर देखें तो काफी मशक्कत के बाद आगे खड़े कर्मशील भक्तों के बीच से बाबा का एक झलक मिल जायेगा। हम भी यही करते हैं। चलते चलते बाबा को प्रणाम कर आगे बढ़ जाते हैं............
सोमवार, सितंबर 13, 2010
राहुल के मायने........
राहुल गांधी बिहार को बदलना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि बिहार में युवाओं का राज हो। कांग्रेस की सरकार हो। ताकि केन्द्र जो पैसा भेजता है उसका सदुपयोग हो सके। राज्य का सही मायने में विकास हो सके। राज्यों से पलायन रूक सके। बगैरह, बगैरह,,,। राहुल युवाओं का आइकॉन हैं। एक कर्मशील राजनीतिज्ञ हैं। जो मेहनत के बल पर राजनीति को एक अलग दिशा देने का प्रयास कर रहे है। उन्होंने राजनीति की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश की है। बहुत दिनों के बाद एक ऐसा नेता सामने आया है जिसको चाहने वाले हर कोने में हैं। जर जगह है। दबे मन से ही सही लेकिन हर कोई राहुल की कार्यशैली को पसंद करता है। बिहार में भी एक बहुत बड़ा समुह है जो राहुल को चाहता है। जिन्हें राहुल की राजनीति पसंद है।
बिहार में विधानसभा चुनाव होना है। और यहां कांग्रेस मृतप्राय है। 243 विधानसभा क्षेत्रों में अभी महज नौ सीटों पर कांग्रेस है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लंबी रेस लगानी है। कांग्रेस राहुल और सोनिया के ज़रिये ही बिहार में सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहती है। और राहुल युवाओं के ज़रिये। मतलब साफ है। राहुल गांधी जमकर विधानसभा चुनाव में प्रचार करेंगे। और वो इसकी शुरुआत भी कर चुके हैं। क्योंकि राहुल भी जानते हैं कि केन्द्र में अगर मज़बूती के साथ रहना है तो बिहार और यूपी को मज़बूत करना होगा।
बिहार कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। जहां से कांग्रेस के सबसे ज्यादा सांसद हुआ करते थे। वही बिहार जहां इंदिरा गांधी ट्रैक्टर पर चढ़कर बेलछी गांव पहुंची थी, जहां भीषण नरसंहार हुआ था। उस समय जब इंदिरा ट्रैक्टर और हाथी पर चढ़कर टूटे सड़कों पर पानी को पार करते हुए बेलछी गांव पहुंची थी, तो तानाशाह इंदिरा का एक दूसरा चेहरा सबके सामने आया था। लोगों ने इंदिरा की बाहवाही की थी। सब उनके कायल हो गये थे। इस समय राहुल गांधी कमोबेश उसी नब्ज को टटोलते हुए राजनीति कर रहे हैं। और आज जब सत्ता विलासिता का माध्यम हो गया है, ऐसे में राहुल का पब्लिक आइकॉन बनना स्वभाविक है।
राहुल यूपी से चुनाव लड़ते हैं। अमेठी के सांसद हैं। वो यूपी में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे है। दलितों के घर में घूमते हैं। ढ़ावे पर जा कर खाना खाते हैं। कभी आंदोलित किसानों के साथ दिखते हैं तो कभी कुछ और। यानी मायावती सरकार के ख़िलाफ वो हर मोर्चे पर खड़े रहने की कोशिश करते हैं।
लेकिन बिहार में ऐसा नहीं दिखता। ना तो वो बिहार में ज्यादा समय देतें हैं। ना ही दलितों के घर में खाना खाते हैं और ना ही किसानों के साथ खड़े होते हैं। इससे क्या समझा जाए ? राहुल जो राजनीति कर रहे हैं, उसमें दोहरापन का कोई जगह नहीं होता। फिर यूपी की अपेक्षा बिहार में नगण्य ध्यान क्यों देते हैं। बिहार पिछड़े हुए राज्यों में से एक है। यूं कहें तो यूपी से भी......। ऐसे में राहुल गांधी चुनाव के समय ही क्यों बिहार में दिखते हैं। क्या बिहार में युवा नहीं हैं ? क्या बिहार के लोगों को उनकी ज़रूरत नहीं है ? या बिहार को उनकी ज़रूरत नहीं है ? अगर चुनावी क्षेत्र अमेठी होने के कारण वो यूपी पर ज्यादा मेहरबान हैं तो बिहार से क्यों चुनाव नहीं लड़ते। क्योंकि उनकी मां और कांग्रेस के सबसे बड़े सोनिया गांधी यूपी के रायबरेली का प्रतिनिधित्व करती हैं।
सवाल कई हैं। लेकिन जवाब कौन देगा। इस सब के बीच इतना साफ है कि अगर राहुल सही मायने में बिहार का विकास चाहते हैं। अगर वो बिहार में कांग्रेस को मज़बूत करना चाहते हैं तो उन्हें बिहार में समय देना होगा। बिहारियों के मन में एक ऐसा विश्वास पैदा करना होगा कि राहुल आपके साथ है। सिर्फ चुनाव के समय पांच मिनट भाषण देने से कुछ भी नहीं होगा।
बिहार में विधानसभा चुनाव होना है। और यहां कांग्रेस मृतप्राय है। 243 विधानसभा क्षेत्रों में अभी महज नौ सीटों पर कांग्रेस है। सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने के लिए लंबी रेस लगानी है। कांग्रेस राहुल और सोनिया के ज़रिये ही बिहार में सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहती है। और राहुल युवाओं के ज़रिये। मतलब साफ है। राहुल गांधी जमकर विधानसभा चुनाव में प्रचार करेंगे। और वो इसकी शुरुआत भी कर चुके हैं। क्योंकि राहुल भी जानते हैं कि केन्द्र में अगर मज़बूती के साथ रहना है तो बिहार और यूपी को मज़बूत करना होगा।
बिहार कभी कांग्रेस का गढ़ हुआ करता था। जहां से कांग्रेस के सबसे ज्यादा सांसद हुआ करते थे। वही बिहार जहां इंदिरा गांधी ट्रैक्टर पर चढ़कर बेलछी गांव पहुंची थी, जहां भीषण नरसंहार हुआ था। उस समय जब इंदिरा ट्रैक्टर और हाथी पर चढ़कर टूटे सड़कों पर पानी को पार करते हुए बेलछी गांव पहुंची थी, तो तानाशाह इंदिरा का एक दूसरा चेहरा सबके सामने आया था। लोगों ने इंदिरा की बाहवाही की थी। सब उनके कायल हो गये थे। इस समय राहुल गांधी कमोबेश उसी नब्ज को टटोलते हुए राजनीति कर रहे हैं। और आज जब सत्ता विलासिता का माध्यम हो गया है, ऐसे में राहुल का पब्लिक आइकॉन बनना स्वभाविक है।
राहुल यूपी से चुनाव लड़ते हैं। अमेठी के सांसद हैं। वो यूपी में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे है। दलितों के घर में घूमते हैं। ढ़ावे पर जा कर खाना खाते हैं। कभी आंदोलित किसानों के साथ दिखते हैं तो कभी कुछ और। यानी मायावती सरकार के ख़िलाफ वो हर मोर्चे पर खड़े रहने की कोशिश करते हैं।
लेकिन बिहार में ऐसा नहीं दिखता। ना तो वो बिहार में ज्यादा समय देतें हैं। ना ही दलितों के घर में खाना खाते हैं और ना ही किसानों के साथ खड़े होते हैं। इससे क्या समझा जाए ? राहुल जो राजनीति कर रहे हैं, उसमें दोहरापन का कोई जगह नहीं होता। फिर यूपी की अपेक्षा बिहार में नगण्य ध्यान क्यों देते हैं। बिहार पिछड़े हुए राज्यों में से एक है। यूं कहें तो यूपी से भी......। ऐसे में राहुल गांधी चुनाव के समय ही क्यों बिहार में दिखते हैं। क्या बिहार में युवा नहीं हैं ? क्या बिहार के लोगों को उनकी ज़रूरत नहीं है ? या बिहार को उनकी ज़रूरत नहीं है ? अगर चुनावी क्षेत्र अमेठी होने के कारण वो यूपी पर ज्यादा मेहरबान हैं तो बिहार से क्यों चुनाव नहीं लड़ते। क्योंकि उनकी मां और कांग्रेस के सबसे बड़े सोनिया गांधी यूपी के रायबरेली का प्रतिनिधित्व करती हैं।
सवाल कई हैं। लेकिन जवाब कौन देगा। इस सब के बीच इतना साफ है कि अगर राहुल सही मायने में बिहार का विकास चाहते हैं। अगर वो बिहार में कांग्रेस को मज़बूत करना चाहते हैं तो उन्हें बिहार में समय देना होगा। बिहारियों के मन में एक ऐसा विश्वास पैदा करना होगा कि राहुल आपके साथ है। सिर्फ चुनाव के समय पांच मिनट भाषण देने से कुछ भी नहीं होगा।
गुरुवार, सितंबर 09, 2010
नक्सली हमले के बाद
आदरणीय मुख्यमंत्री जी,
जिन नक्सलियों का आप पैरोकार बने फिरते थे, उसी ने आपके सीने को छलनी कर दिया है। आपके 8 जवानों की हत्या कर दी। सात को तो मौत से लड़ने का मौक़ा भी दिया। लेकिन उन बेरहमों ने एक को तो तड़पा-तड़पा कर मार डाला। और आप बेबस, लाचार, सबकुछ देख और सुनते रहे हैं।
आप तो सरकार हैं। एक उम्मीद। एक विश्वास और एक आस। लेकिन आपने क्या किया। क्या आपके पास पांच दिनों का समय कम था। जब एक जावन की लाश मिली तब आप वार्ता के लिए आह्वान करते हैं। कौन सी रणननीति आप बना रहे हैं....। चार अगवा जवान के परिजन आपके चौखट पर गुहार लगाते रहे। कोई सिंदूर की दुहाई देती रही। कोई बुढ़ापे के सहारे का तो बच्चे अपने पिता को बचाने की भीख मांगते रहे। आप देखते और सुनते रहे। लेकिन कुछ भी नहीं कर सके। एक परिवार उजर चुका। एक महिला विधवा चुकी। तीन बच्चे अनाथ हो चुके। और तब जाकर आपकी निंद खुली ।
मुख्यमंत्री जी, वो भी किसी के बेटे थे। किसी के पति। किसी के पिता और किसी के भाई। कितनी उम्मीदें थी उनसे उनके परिवार का। क्या जवाब है आपके पास। क्या लौट सकेगी उन घरों की खुशियां। पति का प्यार और पिता का साया। आख़िर क्या गलती थी उन पुलिस जवानों की। वो तो आप पर भरोसा कर देश को बचाने चला था। लेकिन ख़ुद मिट गया। क्यों नहीं कुछ कर सके। कहीं आपने ये सोच कर तो नहीं ठिठक गये कि कुछ पहले दिल्ली में इन्हीं ख़ूनी नक्सलियों की पैरोकारी कर आये थे या कुछ और बात है....।
आपके सुशासन का क्या हो गया। जो अपने ही जवानों की जान नहीं बचा सका। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने पहली बार किसी बड़ी घटना को अंजाम दिया है। आपके सुशासन में ही नक्सलियों ने कोरासी गांव को जला दिया था। कई लोग मारे गये थे। वो आम जन थे। लेकिन इस बार तो पुलिस..।
वो तो शहीद हो गये। हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गये। लेकिन आपके सफेद दामन पर जो लाल छिंटे पड़े हैं, क्या वो मिट पायेंगे। मुख्यमंत्री जी, चुनाव सर पर है। किस मुंह से आप उन आठ जवानों के गांव में वोट मांगने के लिए जायेंगे ?
।। एक जन ।।
जिन नक्सलियों का आप पैरोकार बने फिरते थे, उसी ने आपके सीने को छलनी कर दिया है। आपके 8 जवानों की हत्या कर दी। सात को तो मौत से लड़ने का मौक़ा भी दिया। लेकिन उन बेरहमों ने एक को तो तड़पा-तड़पा कर मार डाला। और आप बेबस, लाचार, सबकुछ देख और सुनते रहे हैं।
आप तो सरकार हैं। एक उम्मीद। एक विश्वास और एक आस। लेकिन आपने क्या किया। क्या आपके पास पांच दिनों का समय कम था। जब एक जावन की लाश मिली तब आप वार्ता के लिए आह्वान करते हैं। कौन सी रणननीति आप बना रहे हैं....। चार अगवा जवान के परिजन आपके चौखट पर गुहार लगाते रहे। कोई सिंदूर की दुहाई देती रही। कोई बुढ़ापे के सहारे का तो बच्चे अपने पिता को बचाने की भीख मांगते रहे। आप देखते और सुनते रहे। लेकिन कुछ भी नहीं कर सके। एक परिवार उजर चुका। एक महिला विधवा चुकी। तीन बच्चे अनाथ हो चुके। और तब जाकर आपकी निंद खुली ।
मुख्यमंत्री जी, वो भी किसी के बेटे थे। किसी के पति। किसी के पिता और किसी के भाई। कितनी उम्मीदें थी उनसे उनके परिवार का। क्या जवाब है आपके पास। क्या लौट सकेगी उन घरों की खुशियां। पति का प्यार और पिता का साया। आख़िर क्या गलती थी उन पुलिस जवानों की। वो तो आप पर भरोसा कर देश को बचाने चला था। लेकिन ख़ुद मिट गया। क्यों नहीं कुछ कर सके। कहीं आपने ये सोच कर तो नहीं ठिठक गये कि कुछ पहले दिल्ली में इन्हीं ख़ूनी नक्सलियों की पैरोकारी कर आये थे या कुछ और बात है....।
आपके सुशासन का क्या हो गया। जो अपने ही जवानों की जान नहीं बचा सका। ऐसा नहीं है कि नक्सलियों ने पहली बार किसी बड़ी घटना को अंजाम दिया है। आपके सुशासन में ही नक्सलियों ने कोरासी गांव को जला दिया था। कई लोग मारे गये थे। वो आम जन थे। लेकिन इस बार तो पुलिस..।
वो तो शहीद हो गये। हमेशा हमेशा के लिए अमर हो गये। लेकिन आपके सफेद दामन पर जो लाल छिंटे पड़े हैं, क्या वो मिट पायेंगे। मुख्यमंत्री जी, चुनाव सर पर है। किस मुंह से आप उन आठ जवानों के गांव में वोट मांगने के लिए जायेंगे ?
।। एक जन ।।
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