पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए सभी पार्टियां पुरजोर प्रचार कर रही है। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी भी चुनाव को लेकर काफी उत्सुक है। उसकी उत्सुकता का आलम है कि उसने अपने पार्टी के तरफ से प्रधानमंत्री के नाम का घोषणा कर चुकी है। लालकृष्ण आडवाणी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने को बेताव हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में इंडिया शइनिंग के नारो के साथ चुनावी मैदान में उतरी भाजपा औंधे मुंह गिर गई थी। यह बात पी एम इन वेटिंग आडवाणी जी भी स्वीकार कर चुके हैं। अपनी पिछली गलतियों से सीख लेकर भाजपा आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी दिलाने के लिये तैयार है। परन्तु कुछ कारण ऐसे है जिससे स्पष्ट होता है कि आडवाणी का प्रधानमंत्री बनना नामुमकिन तो नहीं पर मुश्किल अवश्य है। यदि हम पिछले लोकसभा चुनाव से तुलना करें तो ऐसा लगता है कि शायद ही आडवाणी जी का सपना पुरा हो पाये। इसके कुछ बाजिव कारण हम आपके सामने रख रहे है।
सब से पहली बात भाजपा के पास वोट मांगने योग्य चुनावी मुद्दों का अभाव है। फिलहाल उसके पास कोइ भी ऐसा मुद्दा नहीं है जिससे वह वर्तमान सरकार को पटखनी दे सके। इसका उदाहरण है कि करीब दस साल बाद फिर से उसे राम मंदिर याद आया है। ऐसा कहा जाता है कि जब भाजपा के पास कोई मुद्दा नहीं होता है तो वह राम के सहारे चुनाव लड़ता है। खैर, जनता सब कुछ भलीभांति जानती है। वैसे देश में या कहे दुनिया भर में आर्थिक मंदी और आतंकवाद का मुद्दा चरम पर है, पर इसे चुनावी मुद्दा बनाने से भाजपा को कोई फायदा नहीं होगा। इसका उदाहरण वह पिछले संविधान सभा चुनाव में देख चुकी है। अब लोग स्थानीय विकास पर वोट देतें है। और भाजपा के पास ऐसा कोई मुद्दा नहीं है।
दूसरी बात पार्टी में जीताउ नेताओं की कमी हो गई है। अटल बिहारी वाजपेयी खराब स्वास्थ्य के कारण सकृय राजनीति से अलग हैं। जनता अटल के नाम पर भी भाजपा को वोट देती थी। जो इस बार शायद नहीं मिले। इसके अलावा प्रमोद महाजन और साहिब सिंह वर्मा भी अब नहीं रहे। जिनका आम जनता पर मजबूत पकड़ था। ऐसे ही मध्यप्रदेश में उमा भारती और उत्तरप्रदेश में कल्याण सिंह की कमी भाजपा को जरूर खलेगी।
तीसरी बात भाजपा के पास युवा नेता का अभाव है। यहां युवा कहने का मतलब अंडर 40 है। जिस समय देश में एक बहुत बड़ा हिस्सा युवा वोटरों का है, उसमें पार्टी के पास जनता पर पकड़ वाली युवा नेता का न होना या कम होना चिंता का विषय है। जबकि कांग्रेस के पास एक बड़ी तादात में युवा नेता हैं। जो जनता का प्रतिनिधि कर रहे हैं। खासकर राहुल गांधी इसी का फायदा उठाना चाह रहे हैं।
चौथी और सब से अहम बात कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में गठबंधन की राजनीति महत्वपूर्ण हो गई है। क्षेत्रीय पार्टियों के सहयोग के बिना केन्द्र में सरकार बनाना असंभव हो गया है। ऐसे में भाजपा पिछड़ती दिखाई पड़ती है। भाजपा के पुराने सहयोगी में अधिकांश अभी असहयोग कर रही है। पांच साल पहले भाजपा के साथ चौबीस पार्टियां थी, जो फिलहाल सिमटकर छह रह गई है। यहां तक कि बिजु जनता दल चुनाव से ऐन वक्त पहले अलग हो गई। जबकि तृणमुल कांग्रेस तो वाकायदा यूपीए में शामिल हो गई है।
इसके अलावा पार्टी में अंत:कलह भी है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपराष्ट्रपति भैरों सिंह शेखावत अपनी नाराजगी जाहिर कर चुके हैं। एक समय तो उन्होंने पार्टी की राजामंदी के बिना लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार हो गये थे। किसी तरह उन्हें शांत किया गया। ऐसे ही शत्रुघ्न सिन्हा ने भी टिकट को लेकर काफी घमासान मचाया। जब कल्याण सिंह अंदुरूनी कलह के चलते पार्टी छोड़ कर चले गये तब आनन फानन में सिन्हा को टिकट देने की बात कह कर शांत किया गया। अभी भी कई ऐसे नेता हैं जो टिकट के नाम पर पार्टी से बगावत कर सकते हैं। ये तमाम बातें ऐसी है जो आडवाणी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने में हरसभंव अवरोध उत्पन्न करेगी। इसके बाद भी भाजपा को उम्मीद है कि देश का अगला प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ही होंगे। अब तो यह चुनाव के बाद ही सामने आयेगा कि आखिर जनता क्या चाहती है।
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