बुधवार, फ़रवरी 11, 2015

दिल्ली विधानसभा चुनाव में रिकॉर्ड

फरवरी 2015 में संपन्न हुए दिल्ली विधानसभा चुनाव में एक से बढ़कर एक रिकॉर्ड कायम हुए। वोटिंग से लेकर काउंटिंग दिन तक रिकॉर्ड बनते रहे। दिल्ली में पहली बार चुनाव के घोषणा होने के इतने कम दिनों में विधानसभा का चुनाव हुआ। दिल्ली में पहली बार 67 फीसदी वोटिंग हुई थी। जो पिछली बार की अपेक्षा एक फीसदी अधिक थी। वोटिंग दिन बूथ पर लगी भीड़ को देखकर ही अंदाजा लग चुका था कि इस बार सबसे ज्यादा वोटिंग होगी।

इस बार महज 20 दिन के अंदर तमाम राजनैतिक पार्टियों ने 21 हजार 700 चुनावी रैलियां की। जबकि 18 सौ से ज्यादा रैलियों की अनुमति चुनाव आयोग ने नहीं दी। जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है।

पहली बार दिल्ली में वोटर लिस्ट में 1,33,09,078 मतदाताओं के नाम दर्ज थे। 

दिल्ली में पहली बार किसी पार्टी ने 70 में से 67 सीटों पर दर्ज की। वो भी उस पार्टी ने जो जिसका जन्म महज सवा दो साल पहले हुई थी। आम आदमी पार्टी दिल्ली में दूसरी बार चुनाव लड़ रही थी। पिछली बार विधानसभा का चुनाव लड़ी थी। उसके बाद लोकसभा का चुनाव और फिर विधानसभा का चुनाव।

इस बार दिल्ली विधानसभा में सबसे ज्यादा युवा चुनकर पहुंचे हैं। ज्यादातर विधायकों की औसत आयु 40 साल के नीचे हैं। सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे विधायक इस बार दिल्ली विधानसभा पहुंचे हैं।

देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि 15 साल तक लगातार सत्ता पर काबिज रहनेवाली पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई। कांग्रेस के 70 में से 63 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। यहां तक कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार की भी जमानत जब्त हो गई।  जिस पार्टी की देशभर में लहर थी। जो एक के बाद एक राज्य जीत रही थी। वो दिल्ली में महज तीन सीटों पर सिमट गई।

दिल्ली में पहली बार पूर्वांचल के उम्मीदवारों का दबदबा रहा है। पहली बार बिहार से ताल्लुक रखनेवाले 5 विधायक एक साथ विधानसभा में रहेंगे।

देश में पहली बार हो रहा है जब कोई मुख्यमंत्री खुद रेडियो पर एड देकर अपने शपथग्रहण समारोह में लोगों को बुला रहा है। शपथ ग्रहण समारोह 14 फरवरी को दिल्ली के रामलीला मैदान में होगा। जहां करीब एक लाख लोगों के लिए व्यवस्था की गई है।

इस बार विधानसभा चुनाव में 673 उम्मीदवार मैदान में थे। जिसमें सिर्फ 19 महिलाएं थी। जिसमें 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की। ये सभी महिलाएं एक ही पार्टी 'आप' की उम्मीदवार थीं।

सोमवार, जुलाई 09, 2012

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                        thanx.

गुरुवार, जुलाई 05, 2012

अखिलेश के फैसले पर सवाल


महज आठ साल का अनुभव और विरासत में मिली राजनीति के आसरे पांच कालिदास मार्ग तक का सफर तय करनेवाले अखिलेश यादव ने बतौर मुख्यमंत्री सौ दिनों के दरम्यान जो दो बड़े फैसले लिये उसे उन्हें चौबीस घंटे के भीतर बदलना पड़ा। उन्हें अपने ही बातों से मुकरना पड़ा। नेता के लिए फैसले में फेरबदल कोई मायने नहीं रखता, लेकिन जिन लोगों की अखिलेश यादव से उम्मीदे हैं, उन्हें जरूर झटका लगा है।
   अखिलेश यादव के दो बड़े बेतुके फैसले ने उनकी परिपक्वता पर सवाल खड़ा कर दिया है । जिस राज्य की आधी जनसंख्या को भरपेट खाना नहीं मिल रहा। तनभर कपड़े नहीं हैं । सड़क, स्वास्थ्य से लेकर बुनियादी सुविधा के नाम पर कुछ भी नहीं है। इंसेफेलाइटिस से मर रहे बच्चों के लिए कोई उपाय खोजने की बजाय सरकार अगर माननीयों के लिए लक्जरी गाड़ी खरीदने का ऐलान कर देता है, तो उसका चौतरफा निंदा होना लाजिमी है। और यही हुआ। जिसके बाद अखिलेश यादव को अपने फैसले से मुकरना पड़ा। इससे पहले मॉल को सात बजे के बाद बिजली नहीं देने के फैसले के बाद भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति हुई थी। अखिलेश यादव को काफी किरकिरी झेलनी पड़ी ।       
    ऐसे में अब सवाल उठने लगा है कि क्या अखिलेश यादव अपरिपक्व मुख्यमंत्री हैं ? क्या वो फैसला लेने में जल्दबाजी करते हैं ? क्या अखिलेश की आड़ में कोई और फैसला ले रहा है ?  या फिर वो राजनीतिक नफा नुकसान का हिसाब लगाये बगैर प्रशासनिक अधिकारियों के कहने पर फैसला लेते हैं ?  
   38 साल के अखिलेश यादव जब साइकिल पर चढ़कर लोगों से वोट मांगने सड़क पर निकले, सच्चाई सी दिखनेवाले वादे किये तो तेज तर्रार युवा नेता को देखकर लोग मुलायम राज को भूल गए । पुरानी सरकार से आजिज लोगों को लगा कि अखिलेश कुछ ऐसा करेंगे, जिससे उत्तर प्रदेश का वो मान सम्मान फिर वापस लौटेगा, जो पिछले चालीस सालों मे कहीं खो गया । लेकिन सत्ता मिलते ही कमान घाघ समाजवादियों के पास चलागया । अखिलेश बेबस और लाचार दिखने लगे। चाहे फिर वो सपा कार्यकर्ताओं पर अंकुश लगाने की बात हो, मंत्रिमंडल गठन की बात या फिर प्रशासनिक फेरबदल की ।
      दरअसल अखिलेश यादव के सीएम बनने के बाद उन्होंने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया, जिससे अपराधियों में खौफ हो । कमोबेश हर एक दो दिन के बाद रेप की ख़बर सामने आती है। हत्या, लूट, छिनौती जैसी घटनाएँ आम है । अखिलेश के आदेश के बावजूद समाजवादी पार्टी के निचले स्तर के कार्यकर्ताओं की गुंडई बदस्तूर जारी है। यूं कहें कि बिगड़ैल सपाइयों पर भी अखिलेश लगाम नहीं लगा पाये। जिससे पार्टी की छवि सुधर सके। मुलायम राज से बेहतर स्थिति अभी तक दिखी नहीं है।
     जब प्रशासनिक अधिकारियों की फेरबदल की बात हुई तो, भी वही चेहरा सामने आया, जो मुलायम राज में हुआ करता था। चाहे वो मुख्य सचिव हो या नोएडा अथॉरिटी के अधिकारी । न तो दाग़ का ख्याल हुआ और न ही सम्मान का। ऐसे में एक बात तो साफ होता है कि सबकुछ अखिलेश यादव के मनमुताबिक नहीं हो रहा । क्योंकि चुनाव के दौरान की गई बातों को याद करें तो अखिलेश यादव को ये पूरा अहसास था, कि लोग पिछले मुलायम राज से खुश नहीं थे । इसलिए उन्होंने इस बार युवाओं के जरिए सत्ता में आने की बात की । वादा किया कि वो कुछ गलत नहीं दोहराया जाएगा जो मुलायम राज में हुआ था। मंत्रिमंडल गठन में भी वैसा ही दिखा । वही पुराने चेहरे। जेल की सजा काट चुका निर्दलीय विधायक जेल मंत्री बना। और बहुत कुछ।
    कंप्यूटर और लैपटॉप के जरिये समाजवाद की नई परिभाषा गढ़नेवाले अखिलेश यादव अगर रॉल मॉडल बनना चाहते हैं तो उन्हें कड़े फैसले लेने होंगे। परिवारवाद और दोस्ती को दरकिनार कर राज्य के हित में ऐसा सोचना होगा, जिससे लोगों में उनके प्रति विश्वास कायम रहे। क्योंकि  उन्हें अभी लंबी दूरी तय करनी है।   

गुरुवार, जून 28, 2012

मैं बेटी हूं


मैं बेटी हूं
प्यारी सी
नन्हीं सी
छोटी सी
सब मुझे
दुलारते हैं
पुचकारते हैं
गोद में बिठाते हैं
मेरे साथ खेलना चाहते हैं
मेरी मुस्कान पर, हंसते हैं
मेरी आह पर, तड़पते हैं
फिर क्यों मेरी ही जैसी
मेरी बहनों से
भेदभाव करते हैं
क्यों उन्हें
जन्म से पहले मार देते हैं ........ ?

रविवार, जून 24, 2012

धर्मनिरपेक्षता तो बहाना है.....


पिछले कुछ दिनों में  बीजेपी को लेकर जदयू के  तेवर इतने तल्ख हो चुके हैं कि दोनों के रिश्ते पर बन आई है....सोलह साल का साथ कभी भी खत्म हो सकता है...गठबंधन में धर्मनिरपेक्षता की गांठ पड़ चुकी है...
           आखिर नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की वो कौन सी घेरा बना रहे हैं जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सरीखे नेता तो आते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी नहीं...बाबरी मस्जिद ढांचा गिराने के आरोपी आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने में कोई आपत्ति नहीं है,,,लेकिन नरेन्द्र मोदी बर्दाश्त नहीं....और सबसे अहम बात कि कट्टरवाद के कोख से जनमे बीजेपी के साथ रहने में भी नीतीश कुमार को कोई गुरेज नहीं है.....
          दरअसल नीतीश कुमार जो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ रहे हैं, उसे रानीतिक तौर पर समझना होगा...  1996 से लेकर 2005 तक नीतीश के लिए बीजेपी मजबूरी थी...क्योंकि नीतीश कुमार उस हैसियत में नहीं थे कि वो बीजेपी से इतर अपनी पहचान बना सके.....नीतीश उस वक्त पटना का सपना देख रहे थे...बिहार में कांग्रेस की स्थिति बढ़िया थी नहीं....और लालू के  खिलाफ बीजेपी ताल ठोक रही थी...ऐसे में नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ गलबहियां करना मजबूरी थी...ऐसे में अगर 2002 में गुजरात दंगे के वक्त रेल मंत्री रहते नीतीश का मोदी के खिलाफ कुछ न बोलना चौंकाता नहीं है....2010 तक मोदी को लेकर नीतीश कुमार के मन में कोई आपत्ति नहीं थी....लेकिन 2010  चुनाव में 242 सीट वाले विधानसभा में 115 सीट हासिल करने के बाद नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी खटने लगे....गौर करनेवाली बात है कि  2010 में बिहार में ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार को लेकर प्रधानमंत्री की बात होने लगी,....उन्हें लगने लगा है कि अगर गुजरात के रास्ते मोदी दिल्ली का सपना देख सकते हैं तो फिर बिहार के जरिये मैं क्यों नहीं....और दिल्ली पहुंचने में सबसे बड़ा रोड़ा मोदी बन सकते हैं....राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार गुजरात दंगों का दाग दिखाकर मोदी को रास्ते से अलग करने में लग गये.... 
           जब जब दो मुख्यमंत्रियों की तुलना होती है तो आमने-सामने नीतीश और मोदी होते हैं.....और जानकार दोनों में मोदी को ही बेहतर आंकते हैं...कहीं न कहीं नीतीश को ये बातें  खटकती है....बिहार को बदलने का दावा करनेवाले नीतीश कुमार पिछले सात सालों में कागजी आंकड़ों से इतर वो कुछ नहीं कर पाये जो जिससे गुजरात की जनता से बेहतर बिहार की जनता महसूस कर सके....ऐसे में नीतीश कुमार को लगता है कि  जो छवि बनाना चाहते हैं वो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के बाद ही हो सकता है....और इसके लिए कांग्रेस से मिलना ही फायदेमंद रहेगा... 
          एक और अहम बात....नीतीश कुमार ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि अगर बिहार में बने रहना है कि मुस्लिमों को नाराज नहीं कर सकते....क्योंकि सामने लालू खड़े हैं...मुस्लिमों के लिए मोदी का विरोध करना भी नीतीश के लिए मजबूरी है......यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षा की वो परिभाषा गढ़ रहे हैं,,,,जिसमें दूर दूर तक नरेन्द्र मोदी फिट ना बैठ सके......

सोमवार, जून 18, 2012

मुलाकात ( लप्रेक )


 इको पार्क । रोमांस करने का सबसे फेमस जगह । जहां शहर की कमोबेश हर जोड़ियां पहुंचती है । यहीं तय हुआ था दोनों का  मिलना । लगभग सालभर से दोनों के बीच बातें होती थी । पहलीबार होंगे आमने-सामने ।  मुद्दतों का इंतजार । कोई इन दोनों से पूछे । आमीन ! ।
     दोनों पार्क पहुंचे । एक बेंच पर जाकर बैठ गये । लगभग दो गज की दूरियों के बीच दोनों बैठे थे । दोनों की आंखों में एक अजीब सी चमक । खाने के लिए  चिप्स लाया और फिर फ्रूटी । बातें शुरू हुई । पहली मुलाकात से लेकर अब तक सारी बातें । प्यार, परिवार, पढ़ाई...। और मुस्कुराहटों के बीच शादी तक की बातें । 
       फिर दोनों टहलने लगे । चलते-चलते । दोनों  एक दूसरे में लिटपी जोड़ियों को  देखते । कभी-कभी मुस्कुराते हुए दोनों की नज़रें मिल जाती । दोनों झेंप जाते ।  
         फिर शाम हो गई । घर जाने का वक्त । अचानक दोनों की आंखें सूनी हो गई । क्योंकि ये पहली और आखिरी मुलाकात थी । चंद मिनटों की मुलाकात । दो पल का साथ । छोड़ गई थी जिंदगी भर के लिए सौगात । 
 अब शायद ही कभी मिले- लड़की
हां- लड़का
'आपसे चंद लहमों की मुलाकात का ये अमूल्य तोहफा जिंदगी की गुलदस्ते में ताउम्र सजा के रखूंगा'
मैं भी- लड़की
 दिल में एक अजीब सा अहसास लिये दोनों अपने अपने घरों की ओर चल दिये ।  

बुधवार, जून 13, 2012

बोली का रूतबा



भाषा विनम्र होती है । बोली उदंड ।  भाषा अनुशासित रहती है, अभिभावक की देखरेख में रहनेवाले बच्चों की तरह । और बोली बिना अभिभावक वाले बच्चों की तरह । पूरी तरह से बेलगाम । जो किया वही ठीक है । इयाकरण-व्याकरण से कोई मतलब नहीं ।  जैसा बोला, वैसा ही सही ।  किसी की परवाह नहीं । किसी के बाप के राज में नहीं रहते । क्यों सहेंगे किसी का डंडा । क्यों चलेंगे किसी के कहे मुताबिक । सब कुछ अपने मने से । सीना ठोंककर । पसंद करना है तो करो, वरना भाड़ में जाओ ।
 जिस भाषा से मन हुआ उसी से शब्द उठा लिये । रोक सको तो रोक लो । देख लेंगे । नहीं हुआ तो अपना ही शब्द बना लिये । बोली में  बड़ी खासियत होती है शब्द निर्माण की । ऐसे ऐसे शब्द बनते हैं कि भाषा सोच भी नहीं सकती । सुनकर दंग रह जाती है । बनावटी शब्दों पर बोली ऐसी तगड़ी पॉलिश करती  है कि कुछ दिनों बाद भाषा भी उसकी चमक में खो जाती है । जैसे पहले उद्दंड लड़के को देखकर अनुशासित और तथाकथित पढ़नेवाले बच्चे भी सिगरेट पीने लगते हैं ।
   बोली अपना अस्तित्व खुद बनाती है । इसलिए बेबाक होती है । ठेंठ । मुंहफट्ट । ज्यादा सोचती नहीं । किसी के पीछे भागती नहीं । बोली का इफेक्ट भी जबर्दस्त होता है । पटना में बोली का चलन सबसे ज्यादा है । हर सार्वजनिक जगहों पर बोली का कब्जा है । रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, ऑटो स्टैंड, सरकारी दफ्तर या फिर डॉक्टर के क्लिनिक  पर । व्याकरण पर सवार होकर  भाषा  बोलने से काम नहीं होगा । घिघियाते रहेंगे, कोई नहीं सुनेगा ।  जो काम करवाने में भाषा के पसीने छूट जाते हैं, उसे बोली यूं करवा लेती है । रूतबे में रहती है बोली । और जो बोली का रूतबा रहता है, वहीं इसे बोलनेवालों का । यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता भी जबर्दस्त होती है ।