गुरुवार, जून 28, 2012

मैं बेटी हूं


मैं बेटी हूं
प्यारी सी
नन्हीं सी
छोटी सी
सब मुझे
दुलारते हैं
पुचकारते हैं
गोद में बिठाते हैं
मेरे साथ खेलना चाहते हैं
मेरी मुस्कान पर, हंसते हैं
मेरी आह पर, तड़पते हैं
फिर क्यों मेरी ही जैसी
मेरी बहनों से
भेदभाव करते हैं
क्यों उन्हें
जन्म से पहले मार देते हैं ........ ?

रविवार, जून 24, 2012

धर्मनिरपेक्षता तो बहाना है.....


पिछले कुछ दिनों में  बीजेपी को लेकर जदयू के  तेवर इतने तल्ख हो चुके हैं कि दोनों के रिश्ते पर बन आई है....सोलह साल का साथ कभी भी खत्म हो सकता है...गठबंधन में धर्मनिरपेक्षता की गांठ पड़ चुकी है...
           आखिर नीतीश कुमार धर्मनिरपेक्षता की वो कौन सी घेरा बना रहे हैं जिसमें लालकृष्ण आडवाणी, डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी और उमा भारती सरीखे नेता तो आते हैं लेकिन नरेन्द्र मोदी नहीं...बाबरी मस्जिद ढांचा गिराने के आरोपी आडवाणी को प्रधानमंत्री बनाने में कोई आपत्ति नहीं है,,,लेकिन नरेन्द्र मोदी बर्दाश्त नहीं....और सबसे अहम बात कि कट्टरवाद के कोख से जनमे बीजेपी के साथ रहने में भी नीतीश कुमार को कोई गुरेज नहीं है.....
          दरअसल नीतीश कुमार जो धर्मनिरपेक्षता की परिभाषा गढ़ रहे हैं, उसे रानीतिक तौर पर समझना होगा...  1996 से लेकर 2005 तक नीतीश के लिए बीजेपी मजबूरी थी...क्योंकि नीतीश कुमार उस हैसियत में नहीं थे कि वो बीजेपी से इतर अपनी पहचान बना सके.....नीतीश उस वक्त पटना का सपना देख रहे थे...बिहार में कांग्रेस की स्थिति बढ़िया थी नहीं....और लालू के  खिलाफ बीजेपी ताल ठोक रही थी...ऐसे में नीतीश कुमार का बीजेपी के साथ गलबहियां करना मजबूरी थी...ऐसे में अगर 2002 में गुजरात दंगे के वक्त रेल मंत्री रहते नीतीश का मोदी के खिलाफ कुछ न बोलना चौंकाता नहीं है....2010 तक मोदी को लेकर नीतीश कुमार के मन में कोई आपत्ति नहीं थी....लेकिन 2010  चुनाव में 242 सीट वाले विधानसभा में 115 सीट हासिल करने के बाद नीतीश कुमार को नरेन्द्र मोदी खटने लगे....गौर करनेवाली बात है कि  2010 में बिहार में ऐतिहासिक जीत के बाद नीतीश कुमार को लेकर प्रधानमंत्री की बात होने लगी,....उन्हें लगने लगा है कि अगर गुजरात के रास्ते मोदी दिल्ली का सपना देख सकते हैं तो फिर बिहार के जरिये मैं क्यों नहीं....और दिल्ली पहुंचने में सबसे बड़ा रोड़ा मोदी बन सकते हैं....राजनीति के शातिर खिलाड़ी नीतीश कुमार गुजरात दंगों का दाग दिखाकर मोदी को रास्ते से अलग करने में लग गये.... 
           जब जब दो मुख्यमंत्रियों की तुलना होती है तो आमने-सामने नीतीश और मोदी होते हैं.....और जानकार दोनों में मोदी को ही बेहतर आंकते हैं...कहीं न कहीं नीतीश को ये बातें  खटकती है....बिहार को बदलने का दावा करनेवाले नीतीश कुमार पिछले सात सालों में कागजी आंकड़ों से इतर वो कुछ नहीं कर पाये जो जिससे गुजरात की जनता से बेहतर बिहार की जनता महसूस कर सके....ऐसे में नीतीश कुमार को लगता है कि  जो छवि बनाना चाहते हैं वो बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने के बाद ही हो सकता है....और इसके लिए कांग्रेस से मिलना ही फायदेमंद रहेगा... 
          एक और अहम बात....नीतीश कुमार ये बात अच्छी तरह जानते हैं कि अगर बिहार में बने रहना है कि मुस्लिमों को नाराज नहीं कर सकते....क्योंकि सामने लालू खड़े हैं...मुस्लिमों के लिए मोदी का विरोध करना भी नीतीश के लिए मजबूरी है......यही कारण है कि धर्मनिरपेक्षा की वो परिभाषा गढ़ रहे हैं,,,,जिसमें दूर दूर तक नरेन्द्र मोदी फिट ना बैठ सके......

सोमवार, जून 18, 2012

मुलाकात ( लप्रेक )


 इको पार्क । रोमांस करने का सबसे फेमस जगह । जहां शहर की कमोबेश हर जोड़ियां पहुंचती है । यहीं तय हुआ था दोनों का  मिलना । लगभग सालभर से दोनों के बीच बातें होती थी । पहलीबार होंगे आमने-सामने ।  मुद्दतों का इंतजार । कोई इन दोनों से पूछे । आमीन ! ।
     दोनों पार्क पहुंचे । एक बेंच पर जाकर बैठ गये । लगभग दो गज की दूरियों के बीच दोनों बैठे थे । दोनों की आंखों में एक अजीब सी चमक । खाने के लिए  चिप्स लाया और फिर फ्रूटी । बातें शुरू हुई । पहली मुलाकात से लेकर अब तक सारी बातें । प्यार, परिवार, पढ़ाई...। और मुस्कुराहटों के बीच शादी तक की बातें । 
       फिर दोनों टहलने लगे । चलते-चलते । दोनों  एक दूसरे में लिटपी जोड़ियों को  देखते । कभी-कभी मुस्कुराते हुए दोनों की नज़रें मिल जाती । दोनों झेंप जाते ।  
         फिर शाम हो गई । घर जाने का वक्त । अचानक दोनों की आंखें सूनी हो गई । क्योंकि ये पहली और आखिरी मुलाकात थी । चंद मिनटों की मुलाकात । दो पल का साथ । छोड़ गई थी जिंदगी भर के लिए सौगात । 
 अब शायद ही कभी मिले- लड़की
हां- लड़का
'आपसे चंद लहमों की मुलाकात का ये अमूल्य तोहफा जिंदगी की गुलदस्ते में ताउम्र सजा के रखूंगा'
मैं भी- लड़की
 दिल में एक अजीब सा अहसास लिये दोनों अपने अपने घरों की ओर चल दिये ।  

बुधवार, जून 13, 2012

बोली का रूतबा



भाषा विनम्र होती है । बोली उदंड ।  भाषा अनुशासित रहती है, अभिभावक की देखरेख में रहनेवाले बच्चों की तरह । और बोली बिना अभिभावक वाले बच्चों की तरह । पूरी तरह से बेलगाम । जो किया वही ठीक है । इयाकरण-व्याकरण से कोई मतलब नहीं ।  जैसा बोला, वैसा ही सही ।  किसी की परवाह नहीं । किसी के बाप के राज में नहीं रहते । क्यों सहेंगे किसी का डंडा । क्यों चलेंगे किसी के कहे मुताबिक । सब कुछ अपने मने से । सीना ठोंककर । पसंद करना है तो करो, वरना भाड़ में जाओ ।
 जिस भाषा से मन हुआ उसी से शब्द उठा लिये । रोक सको तो रोक लो । देख लेंगे । नहीं हुआ तो अपना ही शब्द बना लिये । बोली में  बड़ी खासियत होती है शब्द निर्माण की । ऐसे ऐसे शब्द बनते हैं कि भाषा सोच भी नहीं सकती । सुनकर दंग रह जाती है । बनावटी शब्दों पर बोली ऐसी तगड़ी पॉलिश करती  है कि कुछ दिनों बाद भाषा भी उसकी चमक में खो जाती है । जैसे पहले उद्दंड लड़के को देखकर अनुशासित और तथाकथित पढ़नेवाले बच्चे भी सिगरेट पीने लगते हैं ।
   बोली अपना अस्तित्व खुद बनाती है । इसलिए बेबाक होती है । ठेंठ । मुंहफट्ट । ज्यादा सोचती नहीं । किसी के पीछे भागती नहीं । बोली का इफेक्ट भी जबर्दस्त होता है । पटना में बोली का चलन सबसे ज्यादा है । हर सार्वजनिक जगहों पर बोली का कब्जा है । रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, ऑटो स्टैंड, सरकारी दफ्तर या फिर डॉक्टर के क्लिनिक  पर । व्याकरण पर सवार होकर  भाषा  बोलने से काम नहीं होगा । घिघियाते रहेंगे, कोई नहीं सुनेगा ।  जो काम करवाने में भाषा के पसीने छूट जाते हैं, उसे बोली यूं करवा लेती है । रूतबे में रहती है बोली । और जो बोली का रूतबा रहता है, वहीं इसे बोलनेवालों का । यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता भी जबर्दस्त होती है ।

शनिवार, जून 09, 2012


गिरना पड़ता है संभलने के लिए
लड़ना पड़ता है जीतने के लिए
वक्त किसी का नहीं होता
वक्त के साथ चलना पड़ता है
आगे बढ़ने के लिए...
हर राह पर रोड़े हैं यहां
मुश्किलें ज्यादा,
आराम थोड़े से हैं यहां
हर शब्द बहुअर्थी हैं
सोचना पड़ता है समझने के लिए...
हर चेहरा फरेबी है यहां
हर शख्स मतलबी है यहां
पग पग पे यहां साजिश है
धोखा है,
संभलना पड़ता है मिलने के लिए ....

बुधवार, जून 06, 2012

भरोसे का टूटना....


भरोसा जब टूटता है
तो उम्मीदें बिखरती है
सपने तड़पने लगते हैं
अपने से दिखने वाले
अनजाने लगने लगते हैं
दर्द होता है
अफसोस होता है
और फिर
ख्वाबों का तूफान
अचानक खामोश हो जाता है ।।

रविवार, जून 03, 2012

नज़रों का यूं मिलना..

वो मेरी ओर देखती है
मैं उसकी ओर देखता हूं
फिर जो होता है
वो सुखद अहसास देता है
न हाथ हिलते हैं
न होंठ खुलते हैं
सिर्फ नज़रों से
 नज़र की बात होती है
ये सिलसिला
पल दो पल ही चलती है
मगर बहुत ख़ास होती है
नज़रों का यूं मिलना
इत्तेफाक होता है
पर यही इत्तेफाक तो
इतिहास बनता है ।।

शनिवार, जून 02, 2012

हत्यारों का मुखिया या वीर ब्रह्मेश्वर


वही हुआ जिसकी आशंका थी । ब्रह्मेश्वर नाथ सिंह ऊर्फ ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या कर दी गई । जो जैसा करता है, वो वैसा ही पाता है । ब्रह्मेश्वर सिंह की जो शख्सियत थी, या कहें कि उनकी जो छवि थी, उसका  ऐसा ही अंत होता है । सत्तर साल के बूढे शरीर में चालीस गोलियां  दाग दी गई । 273 हत्याओं का  मुखिया पलभर में ढेर हो गया । 
          आप ब्रह्मेश्वर सिंह को हत्यारों और नरसंहारों का मुखिया कह सकते हैं । आप उन्हें बेदर्द और बेदिल इंसान कह सकते  हैं । लेकिन सवाल उठता है कि आखिर बरमेसर नाम का दीनहीन, दुबला पुतला शरीर वाला इंसान हत्यारों का सरदार कैसे बन गया  ?  आखिर कैसे तथाकथित ऊपरी तबके के लोग उसके पीछे दौड़ पड़े  ?  वो कैसे बुद्धिजीवियों के बड़े तबके का हीरो बन गया ?  बरमेसर मुखिया कोई पेशेवर अपराधी नहीं था । वो पैसों के लिए या फिर स्वयं स्वार्थ पूर्ति के लिए ऐसी सेना नहीं बनाई, जो लोगों की बेरहमी से हत्या करती थी । 
         दरअसल हालात ने बरमेसर को ब्रह्मेश्वर मुखिया बना दिया । शातिर और खौफनाक दिमाग की करतूत एक तरह से प्रतिकार था । जिस समय ब्रह्मेश्वर मुखिया की अगुवाई में रणवीर सेना एक के बाद एक नरसंहारों को अंजाम दे रही थी, उस वक्त बिहार में समाजिक और राजनीतिक समीकरण कुछ यूं थे, जिसका परिणाम मौते होती थी । दरअसल तथाकथित निचले तबकों का एक समूह  सरेआम सत्ता को चुनौती दे रहा था । जमींदारों की जमीन पर जबरन कब्जा कर रहा था । खेतों से फसल लूट लिये जाते थे । जमींदारों की बहू बेटियों की इज्जत खेला जाता था । सरकार मौन थी । प्रशासन बेपरहवाह था । पुलिस कोई कार्रवाई नहीं कर पा रही थी । छोटे छोटे कई संगठन पैदा हो गये थे ।  एमसीसी जैसे संगठनों के हौसले बुलंद होते जा रहे थे । फेल होती व्यवस्था के बीच इन्हीं संगठनों से निपटने और अपनी बहू बेटियों की इज्जत बचाने का बीड़ा उठाया ब्रह्मेश्वर सिंह ने । उन्होंने रणवीर सेना के नाम से एक संगठन बनाया ।  जिसमें कई छोटे छोटे संगठन शामिल हुए । जमीनदार तबके के लोग उसमें शामिल होने लोगे । पैसा और हथियार जमा होने लगा । और फिर एमसीसी के नरसंहार के बाद रणवीर सेना की ओर से नरसंहार होने लगा । 
        जिस तरह से ब्रह्मेश्वर मुखिया की अगुवाई वाली रणवीर सेना कत्लेआम मचाती थी । महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ती थी । एक-एक नरसंहारों को अंजाम दिया । उससे  इतिहास में ब्रह्मेश्वर मुखिया का नाम एक कातिल के रूप में दर्ज होगा, लेकिन जातिगत समीकरण में उलझे बिहार का एक बड़ा तबका ऐसा है, जो उन्हें 'वीर ब्रह्मेश्वर' के नाम से याद रखेगा ।