सोमवार, दिसंबर 19, 2011

तुम...

तुम्हारे साथ रहता हूं
तो जीता हूं मैं जी भरकर
मैं तुमसे दूर होता हूं
तो याद आती है रह रहकर
इसे चाहत कहो
या तुम इसे कह लो पागलपन
हक़ीक़त ये है कि
तुम बिन कहीं लगता नहीं है मन ।।

शनिवार, दिसंबर 10, 2011

क्रिकेट के ज़रिए नई उम्मीद

इंदौर में जब इतिहास बन रहा था, होलकर स्टेडियम में 22 गज के पिच पर 38 इंच का बल्ला लेकर जब वीरेन्द्र सहवाग गेंद को बॉड्री से बाहर पहुंचा रहे थे, उस वक्त क्रिकेट का रोमांच चरम पर था। भाषावाद, क्षेत्रवाद, देशवाद की तमाम सीमाएं टूट रही थी। महाराष्ट्र से लेकर बिहार तक और दिल्ली से लेकर तमिलनाडु तक हर कोई सहवाग की कारिस्तानी को जेहन में कैद कर रहा था। दुनियाभर के क्रिकेटप्रेमी टेलीविजन से चिपक गये थे। इंग्लैंड से केविन पिटरसन और ऑस्ट्रेलिया में बैठकर न्यूजीलैंड के खिलाड़ी डेनियल विटोरी मैच का लुत्फ उठा रहे थे। ट्विटर पर शुभकामना दे रहे थे। क्रिकेट प्रेमियों को ये क्षण ना चूकने के लिए कह रहे थे। सहवाग का सबसे तेज़ दोहरा शतक लगते ही दुनियाभर से शुभकामनाएं आने लगी। पाकिस्तान से लेकर ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड में भी सहवाग की चर्चा होने लगी। पाकिस्तान के क्रिकेटरों को सहवाग पर ही भरोसा था। यानी एक वक़्त ऐसा लगा मानो दुनिया एक हो गई हो। हर कोई भारतीय क्रिकेट के कायल हो गये थे। सहवाग को शाबासी दे रहे थे। तो इस सब के बीच जेहन में एक सवाल उठने लगा कि क्या अब क्रिकेट के आसरे दुनिया में शांति और सदभाव का भविष्य देखा जा सकता है। क्या क्रिकेट, दुनिया को उस रास्ते पर ले जा सकता है, जहां परमाणु हमले की धमकी की बजाय दूसरे देशों के लोगों को शाबासी और पीठ थपथपाते नज़र आये। ये बात तब और मज़बूती के साथ उभरती है, जब मुम्बई हमले के बाद पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री भारत पहुंचते हैं, और फिर मनमोहन सिंह के साथ बैठकर पूरा मैच देखते हैं।
अगर आप इन बातों से इत्तफाक नहीं रखते तो याद कीजिए कोई मसला, वो कोई मुद्दा, वो कोई बात या वो दिन जब पूरी दुनिया एक साथ जश्न मना रही हो। दिल खोलकर दूसरे देश के लोगों को शाबासी दे रहा हो। वो भी उस वक्त जब सबकुछ प्रतियोगिता के बीच आंका जाता है। जब आगे-पीछे, जीत-हार के नज़रिये से सबकुछ देखा जा रहा हो। पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने भी धोनी की तारीफ की थी, जिसे भारत के लिए नकारात्मक सोच रखनेवालों की श्रेणी में रखा जाता है। किसी वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि टीम इंडिया की हार पर दाऊद इब्राहिम भी रोता है। यानी क्रिकेट में कुछ तो है, जो बाकी किसी और में नहीं।
आईपीएल के ज़रिए क्रिकेट का भूमंडलीयकरण हुआ। धोनी चेन्नई के कप्तान बन गये। गौतम गंभीर दिल्ली के और शेन वार्न राजस्थान के। तमाम घेराबंदी को तोड़ते हुए ऑस्ट्रेलिया के खिलाड़ी राजस्थान के हो गये। इंग्लैंड के खिलाड़ी पंजाब के और वेस्टइंडीज के खिलाड़ी बेंगलुरू की ओर से खेलने लगे। क्रिकेट खेलते खेलते ऑस्ट्रेलिया के एडम गिलक्रिस्ट ने भारतीय बाजार में माल बेचने लगे पता नहीं चला। विज्ञापन के लिए ही सही हिन्दी बोलने लगे। ब्रेट ली ने तो बकायदा गाना तक रिकॉर्ड करवाया। घर बेचने लगे। साइमंड्स दोस्ती की नई परिभाषा गढ़ने आईपीएल के रास्ते बिग बॉस के घर तक पहुंच चुके हैं।
क्रिकेट पहले अंग्रेजों और कंगारुओं की बपौती हुआ करता था। ये उस अंग्रेजों का खेल था, जिसे भारतीय फूटी आंख देखना नहीं चाहते थे। लेकिन समय बदला तो भारत में क्रिकेट धर्म बनता गया। सचिन तेंदुलकर के रूप में क्रिकेट प्रेमियों को नया भगवान मिल गया। अंग्रेज भारतीयों के मुरीद बन गये। क्रिकेट के ज़रिए बंग्लादेश और किनिया जैसे मुल्क विश्व के मानचित्र पर पहचान बनाते हैं। चीन भी क्रिकेट टीम तैयार कर रहा है। हो सकता है कि बाज़ार को भांपते हुए अमेरिका भी जल्द ही अपनी टीम बना ले। यानी क्रिकेट के ज़रिए उम्मीद की नई किरण दिख रही है। जिसे समझने की और परखने की ज़रूरत है।

गुरुवार, दिसंबर 01, 2011

टेंशन लेने का नहीं...देने का

संसद का शीतकालीन सत्र फिर संकट से जूझ रहा है। पहला हफ्ता महंगाई और कालाधन के नाम। दूसरा हफ्ता प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के नाम। विपक्षी नेता हंगामा कर घर चले जाते। सरकार के मंत्री बैठक में चाय-पानी करते हैं। नतीजा कुछ नहीं निकल रहा। ऐसा कोई पहलीबार नहीं हो रहा। हर सत्र में कमोबेश ऐसी ही स्थिति होती है। सांसद महोदय हंगामा करके घर में सोते हैं। और हम आप माथापच्ची करते रहते। 2010 में 23 दिनों का शीतकालीन सत्र था। महज सात घंटे चल सका। पिछली बार जेपीएससी को लेकर झगड़ा हो रहा था। इस बार एफडीआई पर रगड़ा है। हालांकि झगड़ा और रगड़ा से ज्यादा इसे अगर फ्रेंडली फाइट कहें तो बेहतर होगा।
आंकड़े बताते हैं कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर 40,000 रुपये से भी ज्या।दा खर्च होता है। यानी एक घंटे में 24 लाख रुपये। और एक दिन में 1.9 करोड़ रुपये खर्च होते हैं। आप इन आंकड़ों पर मत जाइए। पढ़कर भूल जाइए। नहीं तो शॉक लगेगा। टेंशन होगा। ब्लड प्रेशर बढ़ेगा। पछतावा। और फिर मुंह से निकलेगा- छोड़ो यार। सो पहले ही छोड़ दीजिए। हमारे देश के नेताजी टेंशन लेते नहीं देते हैं। खुद सुबह सदन स्थगित कर घर में मस्ती करते हैं। अखबार वाले लेख छापते रहें। टीवी चैनलवाले बहस करते रहें। आप टीवी चैनल देखकर माथा पच्ची करते रहो। यही वे लोग चाहते हैं।
सरकार के लोग बड़ा चालाक है। कालाधन पर आडवाणी जी चिल्ला रहे थे। महंगाई पर वाम दल बमक रहा था। भ्रष्टाचार को लेकर मीडिया रोज रोज आंकड़े पेश कर रही थी। सबको एक ही बार में एफडीआई का बम फोड़कर तिलमिला दिया। सब एफडीआई-एफडीआई भौंकते रहे। विश्लेषण करते रहे। इस बीच देश के विकास दर कम होने का आंकड़ा आया। सरकार से इसके बारे में पूछने की फुर्सत किसी को नहीं। करूणानिधि ने एफडीआई के मुद्दे पर सरकार के पक्ष में वोट करने का आश्वासन दिया। चुपचाप कनिमोझी को बेल मिल गया। ना तो मीडिया में इस पर विश्लेषण हुआ। और ना ही इस बार विपक्ष ने सबीआई पर सवाल उठाए।
सो, आप भी सिनेमा हॉल जाकर 'द डर्टी पिक्चर' फिल्म देखिए। या फिर कोलावेरी..कोलावेरी सुनिए। नहीं अगर, आपके भीतर देशभक्ति अकुला रही है। तो संसद के बारे में सोचने की बजाए भारत और वेस्टइंडीज के बीच मैच देखिए। भारत की जीत ताली बजाइए। भारतीय होने पर गर्व करिए। हार जाए तो कोई बात नहीं। क्रिकेट में जीत हार होता रहता है- ये सोचकर सो जाइए। और फिर भी अगर संसद और सांसद के बारे में आपके मन में कुछ कुछ होता है तो 2014 का इंतज़ार कीजिए। कुछ बेहतर करिए...सिर्फ एक बार...और जो नेता आपको पांच सालसे टेंशन दे रहे हैं....उन्हें आप टेंशन दे दीजिए ।