बुधवार, जनवरी 27, 2010

करप्शन बिल को मंजूरी


बिहार में घूसखोरों के लिए बुरी खबर है। खासकर बाबुओं के लिए। केन्द्र सरकार ने बिहार सरकार के एंटी करप्शन बिल को मंजूरी दे दी है। इसके तहत भ्रष्टाचार के आरोपियों की संपत्ति जब्त कर ली जायेगी। थोड़ी परेशानी की बात है। लेकिन उन्हें ज्यादा घबराने की जरूरत है। क्योंकि ये सब तभी होगा, जब वो दोषी साबित होंगे।


इस बिल को मंजूरी देकर केन्द्र सरकार ने तो आठ महीना पुराना अपना बोझ हल्का किया है। बिहार सरकार ने दोनो सदनो में मंजूरी के बाद इसे केन्द्र सरकार के पास भेज दिया था। केन्द्र की मंजूरी के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक शगुफा छोड़ दिया। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचारियों को जेल तो जाना ही होगा साथ ही उनके घर में स्कूल खोल दिये जायेंगे। ठीक है। सब कुछ होगा। लेकिन पहले दोष को तो साबित करना होगा।

जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने थे तो भारी संख्या में भ्रष्ट अधिकारी पकड़े गये। 2008 में 78 मामलों में 97 लोगों की गिरफ्तारी हुई। जबकि 2009 में पचास मामले सामने आये जिसमें 62 लोग गिरफ्तारी हुई। 2006 में साठ मामले में 66 की गिरफ्तारी हुई। 2007 में 108 मामले सामने आये जिसमें 131 लोगों की गिरफ्तारी हुई।

लेकिन क्या हुआ। पकड़े गये। सस्पेंड हुए। जेल भी गये। और जमानत मिल गई। और आज या तो वो फिर से काम कर रहे हैं या घर पर हैं। मिलाजुला के ठीकठाक हैं। इतना कमा लिये हैं कि नौकरी पर नहीं भी रखे गये तो भी मस्त हैं। और वो इतना बेवकुफ तो हैं नहीं कि सभी संपत्ति अपने नाम से रखे होंगे।

खैर कानून बना है। ऐसे ही कानून और नियम बनते रहते हैं। इससे पहले भी कई कानून बने और वो किताब के पन्नों में दीमक के साथ खेल रहे है। ये कानून भी किताबों में ही धूल फांकेगा या कुछ गुल भी खिलायेगा ये तो उन्हीं अधिकारियों पर निर्भर करता है, जिनके लिए ये कानून बना है । लेकिन एक लॉ के छात्रों को रट्टा मारने के लिए एक और थ्योरी मिल गयी है।


मंगलवार, जनवरी 26, 2010

मैं गणतंत्र हूं

साठ साल का बूढ़ा


शून्यता में भटकता

कराहता, पुकारता

बीच राह पर पड़ा हूं

निशक्त बन निहारता

असमर्थता की भाव से

लोग मुझे देखता

आन, बान, शान हूं

मैं देश का अभिमान हूं

गण का मैं तंत्र हू

पर गन वाले संभालता

अभ्रदता के साथ जब-जब

वो मुझसे खेलता

तब ये दर्द बहुत सालता ।।

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

आईपीएल, पाकिस्तान और सियासत


यह बिल्कुल गलत है। खेल को सियासत से जोड़कर नहीं देखा जाना चाहिए। भारत-पाकिस्तान के बीच मतांतर के बावजूद खेल जारी रहा। और रहना भी चाहिए। लेकिन आईपीएल की मंडी में पाक क्रिकेटरों की बोली नहीं लगने पर पाकिस्तानियों ने इसे सियासत से जोड़ दिया। वह इसे बडा़ कुटनीतिक मुद्दा मानकर ज़हर उगलना शुरू कर दिया है।

               दरअसल पाकिस्तान पहले से ही वर्ल्ड कप की मेजबानी छिनने का आरोप भारत पर लगा रहा है। अब जब आईपीएल की मंडी उनका खीरीददार नहीं मिला तो वे विफर पड़े। और इसमें उन्हें पाकिस्तान के विभिन्न रजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों का समर्थन मिल रहा है। अफसोस की बात ये है कि वे बीसीसीआई या आईपीएल के फैसले को भारत सरकार के फैसले से जोड़कर देख रहे हैं।
                बीसीसीआई ने खालाड़ियों को बोली के लिए खड़ा कर अपना काम कर दिया। अब ये फ्रेंचाइजी टीम के मालिकों पर निर्भर करता है कि वो किस खिलाड़ी को खरीदे और किसे नहीं। पाकिस्तानी खिलाड़ी की बोली नहीं लगने से एक बात तो साफ है कि आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को नहीं चुना जाना, ये वास्तव में 26-11 का टीस है। क्योंकि आईपीएल के सभी मालिक मुम्बई से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। और मुम्बई के बातवरण से प्रभावित होते हैं। ऐसे में कही न कहीं उनके दिल में दर्द आज भी बाकी है। लेकिन इससे बीसीसीआई की मंशा पर प्रश्न चिह्न लगाना सरासर गलत होगा।            
             आईपीएल में अच्छी-खासी कमाई के साथ-साथ नाम भी हो जाता है। लेकिन उन्हें खरीदने के लिए कोई टीम तैयार नहीं हुआ। ऐसे में बौखलाये पाकिस्तानी खिलाड़ियों की प्रतिक्रिया तो स्वभाविक मानी जा सकती है। पर वहां के हुक्मरानों का बयान बेहद निरशाजनक और शर्मनाक है। एक ऐसे समय जब दोनों देशों के रिश्ते धीरे-धीरे समान्य पटल पर लौटने की कोशिश कर रहा है। उस समय पाकिस्तान सरकार का तीखा बयान तल्खी उत्पन्न कर ही देगा।

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

नस्लवादी आस्ट्रेलिया


आस्ट्रेलिया नस्ली हिंसा की आग में जल रहा है। हर दिन वहां विदेशियों पर हमले हो रहे हैं। साल की शुरूआत होते ही दो भारतीयों को जान से मार दिया गया। आधा दर्जन लोगों पर जानलेवा हमले हुए हैं।
          आस्ट्रेलियाई मानवता को ताक पर रखकर नस्लवाद के पीछे पड़ गये हैं। नस्लवाद के जुनून में अंधे होकर वे इतने क्रूर हो गये हैं कि जान लेने को आतुर हैं। जहां भी मौका मिलता है विदेशियों पर निर्ममतापूर्वक हमला कर देते हैं। घृणा का रूप इतना विकराल है कि इंसानियत शर्मसार हो जाती है। लोगों को जिंदा जला दिया जाता है। चाकुओं से गोद-गोदकर हत्या कर दी जाती है।
    इस तरह घटनाओं में पिछले साल बेहतासा वृद्धि हुई। साल 2009 में एक सौ भारतीयों को जान से मार दिया गया, जबकि 2008 में 17 भारतीयों को मौत के घाट उतार दिया गया। वहां भारतीयों के साथ-साथ दूसरे देशों के लोगों को भी शिकार बनाया जाता है। जिसमें नेपाल, अफ्रिका और यूनान के नागरिक प्रमुख हैं।
       वहां सिर्फ छात्रों या कामगारों पर ही हमले नहीं होते, बल्कि खिलाड़ियों के साथ भी अभद्रता की जाती है। क्रिकेट खेलने गये भारतीय खिलाड़ी जब फिल्डिंग कर रहे थे तो दर्शकों ने उनके उपर इंटा-पत्थर फेंका था। इतना ही नहीं, श्रीलंका की क्रिकेट टीम जब आस्ट्रेलिया पहुंची तो किसी ने मुथैया मुरलीधरन के मुंह पर अंडा फेक दिया था।
         इतना कुछ हो जाने के बावजूद आस्ट्रेलिया की सरकार मौन है। बेशर्मी का आलम तो यह है कि हिंसा रोकने के बजाय सरकार इसे नस्ली मानने से इंकार कर रही है। वह भारत पर ही मामला तूल देने का आरोप लगा रही है। लेकिन सच तो ये है कि आस्ट्रेलिया का इतिहास नस्लवाद की बर्बरता का गवाह रहा है। दरअसल वहां के बहुसंख्य लोग यूरोप से आये हैं। आस्ट्रेलिया आने के बाद उनलोगों ने वहां के मूल निवासी, जो एबोरिजनल थे, उनका दमन करना शुरू किया। यहां तक की उन्हें मौलिक अधिकारों से वंचित कर दिया गया। 1965 तक तो उन्हें वोट देने का अधिकार तक नहीं था। और आज भी वे अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
      इन तमाम बातों से साफ है कि इस स्थिति में वहां की सरकार से न्याय की उम्मीद करना व्यर्थ है। ऐसे में भारत सरकार को ही यथाशिघ्र ठोस उपाय सोचना होगा और चिर निद्रा में सो रही विश्व शांति समुदाय को जगाना होगा। जिससे आस्ट्रेलिया पर दवाब बने। अन्यथा इस तरह के हमले जारी रहेंगे और लोग नस्लवाद के धमनभट्ठी में जलते रहेंगे।


सोमवार, जनवरी 18, 2010

नेताजी का क्या कहिन

क्या से क्या हो गया। कुछ ही पलों में बहुत कुछ बदल गया। अपने बेगाने हो गये। नेता हैं। प्रोफेशन ही ऐसा है कि ये सब होता रहता है। नेता किसी एक का नहीं होता। वो कब किसका हो जाय, खुद को भी पता नहीं रहता। सब कुछ अचानक होता है। पलभर में दोस्त दुश्मन बन जाते हैं, दुश्मन दोस्त बन जाता है। अलग होने के बहाने कई होते हैं। कोई निकाल दिये जाते हैं. कोई खुद निकल जाते हैं।  कुछ ऐसा ही हुआ नेताजी के साथ।
           सब कुछ लुटने के बाद नेताजी को अब समाजवाद याद आया है। इतने दिनों तक परिवारवाद में उलझे हुए थे। अपनी गलती मान रहे हैं। समाजवादियों को इकट्ठा करेंगे। और इसकी शुरूआत वो क्षत्रिय चेतना रथ को हरी झंडी दिखाकर करेंगे। नेताजी ने पार्टी के लिए क्या कुछ नहीं किया। बड़े-बड़े नेता तक को गरिया दिया। बड़ी-बड़ी हस्तियों को पार्टी से जोड़ा। मुम्बई से लाकर चुनावी मैदान में खड़ा किया। पैसा के साथ-साथ भीड़ भी जुटाई। लेकिन एक बार सच क्या बोल दिये अपने ही बेगाने हो गये। जिसको जो मन हुआ बोलने लगे। नेताजी खुद बड़बोलेपन के लिए जाने जाते हैं। उन्हीं के खिलाफ कोई अनाप शनाप बोले तो वो कैसे सहन कर सकते। वो भी जब कोई अपन हो तो टीस ज्यादा होती है। यही हुआ नेताजी के साथ। नेताजी कोई ऐरे-गेरे तो हैं नहीं। क्लिंटन से लेकर शहंशाह तक के किचन में अपनी पहुंच रखते हैं। किसी का रौब कैसे बर्दश्त करते। सो आव देखे ना ताव दे दिया इस्तीफा। मनाने की बहुत कोशिश की गई। पर वो अपने जिद पर अड़े रहे। और आखिरकार इस्तीफा मंजूर कर लिया गया।
           महीनों से जारी किचकिच फिलहाल तो रूक गया है। लेकिन नये समाजावाद के बहाने नेताजी की अगली राजनीतिक पहल के बारे में कयास शुरु हो गया है। नेताजी रंगीन मिज़ाज आदमी हैं। फिल्मी हस्तियों से ज्यादा संपर्क में रहते हैं। जुगाड़ लगा चुके हैं। फिल्मों में काम भी मिल चुका है। हो सकता है बुढ़ापे में कुछ दिन माया नगरी में ही बिताये। कोई बात नहीं। यहां के महफिल में भी किस्मत आजमा के देख लीजिए। हमारा भी शुभकामना आपके साथ है।

शनिवार, जनवरी 16, 2010


हंसते अंधेरे से भयभीत होना छोड़ दो
जीतना है जंग तो आंसू बहाना छोड़ दो।


लूटने आता लुटेरा, आगे बढ़ कर लूट लो़
जिंदा रहने के लिए गिड़गिड़ाना छोड़ दो।


उठने लगता है तो दुश्मन का हाथ काट दो
नपुंसकों की तरह सर झुकाना छोड़ दो।


गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने की ठान लो
बलहीन पशुओं की तरह पुंछ हिलाना छोड़ दो।


बेबसी, लाचारी से तुम तोड़ दो रिश्ता
इंसान बन आये हो तो इतिहास लिखकर छोड़ दो।।

मॉडर्न समाज

आजकल इज्जतदारों के भाव गिर गये हैं
औने-पौने दाम पर इमान बिक रहे है।

लगने लगी है रिश्तों की बोलियां
इंसान सरेआम नीलाम हो रहे है।

लंबी-लंबी कार पर चढ़ने की हसरत में
शहर में तेजी से बेइमान बढ़ रहे हैं।

इस मॉडर्न बाजार में जो शिरकत नहीं करते
वो रइसों की सोसाइटी से दरकिनार हो रहे हैं।

बदलने लगी है अब बेशर्मों की परिभाषा
बिकने वाले लोग अब किताब लिख रहे हैं ।।

बुधवार, जनवरी 06, 2010

आंकड़ों का खेल

पिछले कुछ दिनों में बिहार में दो नये आंकड़े आये है। दो अलग-अलग क्षेत्र में। एक बिहार की गरीबी को दिखा रही है तो दूसरे में बिहार को सबसे तेजी से विकास करने वाला राज्य बताया है। लेकिन इस सब के बीच आम जनता कहां हैं। जहां है परेशान हैं।
सर्दी का सितम जारी है। हाड़ कंपकंपा देने वाली ठंड है। कनकनी ऐसी की कलेजा बाहर निकल जाय। ऐसे में भी हजारों लोग सड़क के किनारे रात काटने को मजबूर हैं। लोगों की समस्यायें सिर्फ इतनी ही नहीं है। और भी कई वाजिब कारण है। आंकड़ें भी है। हकीकत भी। महंगाई चरम पर है। सुखाड़ के कारण खेत खाली है। अपने साथ-साथ पशुओं की भी चिंता है। हजारों लोगों की नौकरी छुटी हुई है। जो लोग राज्य से बाहर रहकर रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं वो भी खुश नहीं हैं। पंजाब में पुलिस पीट रही है तो दिल्ली की मुख्यमंत्री उलहाना दे रही हैं। ये स्थिती कमोबेश सभी दूसरे राज्यों का भी है। इसके साथ आंकड़े भी बताते हैं कि सब कुछ ठीक ठाक नहीं है।
यदि सुरेश तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट को देखें तो उसमें भी स्थिती अच्छी नहीं है। तेंदुलकर की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 75।14 फीसदी लोग गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर कर रही है। आम लोग त्रस्त है।
लेकिन राज्य विकास कर रही है। सरकार खुश है। सरकार इसे साबित करने के लिए नये आंकड़े का सहारा ले रही है। जिसमें कहा गया है कि बिहार का विकास दर 11.03 फीसदी है। यानी देश के विकास दर (8.49) से करीब तीन फीसदी ज्यादा। जबकि देश का सबसे ज्यादा विकसित राज्य गुजरात से महज 0.2 प्रतिशत कम।खैर, जमीनी तौर पर इतनी हकीकत कहीं नहीं दिखती है जिससे इस बात की पुष्टि हो सके कि विकास दर में बिहार दूसरे स्थान पर है। ऐसे में लगता है कि या तो विकास राज्य के महज 25 प्रतिशत लोगों में हुआ है या कागजी है। लेकिन सरकार ढ़िढ़ोरा पिट रही है। कुछ महीनें बाद चुनाव होने वाला है। और वो चुनाव में इस बात को भुनाना चाहते है। और इसी की कोशिश में लगे हैं। क्योंकि नेता जानते हैं कि भूखा सोने को भी तैयार है ये देश मेरा आप परियों का उसे ख्वाब दिखाते रहिये।