रविवार, मई 31, 2009

बाढ़ की तबाही से सरकार सिखाने को तैयार नही

लगता है कि पिछली बार आयी बाढ़ की तबाही से सरकार सीख लेने को तैयार नहीं हैं। मानसून दस्तक देनेवाला है। उधर सरकार की लेटलतीफी के कारण बाढ़ भी कहर बरपाने को तैयार है। गरीब जनता एकबार फिर से त्रासदी की कोख में समाने को विवश है। सरकार योजनाएं बनाकर लोगों को बहला रही है। सरकारी उदासीनता का आलम यह है कि अभी तक आधी योजनाएं भी पूरी नहीं हो पायी है और जिस रफ्तार से काम हो रहा है, उससे नहीं लगता है कि समय पर काम पूरा हो पायेगा। सरकार बाढ़ की तबाही से बचने के लिए तरह-तरह की योजनाएं बना रही है। लेकिन उन योजनााओं पर सख्ती से अमल नहीं किया जा रहा है। परिणाम है कि जलसंसाधन विभाग द्वारा करवाये जा रहे बाढ़ सुरक्षात्मक योजना का आधा काम भी अभी तक पूरा नहीं हुआ है। सरकार बाढ़ की तबाही को ध्यान में रखते हुए 439 करोड़ 96 लाख रूपया खर्च कर तीन सौ 64 योजनाएं बनाई। इन योजनाओं को पंद्रह जून तक पूरा कर लेना था, पर अभी तक महज 106 योजनाओं का काम ही पूरा हो सका है। पचास योजनाओं पर पंद्रह से बीस प्रतिषत काम बांकी है, जबकि 80 योजनाओं पर तो अभी तक पचीस से तीस प्रतिषत काम ही हो पाया है। चैंकाने वाली बात तो यह है कि 128 योजनाओं का काम तो अभी तक आधा भी नहीं हुआ है। इससे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र के लोग काफी डरे हुए हैं। सरकार की इस ढ़ुलमुल रवैये से तो यही लगता है कि वह लोगों को सिर्फ झुठी दिलासा दिला रही है। लेकिन सवाल है कि आखिर कब तक सरकार, लोगों को ठगती रहेगी और बाढ़ के पानी में लोगों की उम्मीदें बहती रहेगी ?

बुधवार, मई 27, 2009

बिहार में छोटी पार्टी

हर कोई नेता बनकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचना चाहत है। इसके लिए उन्हें चुनाव से बेहतर समय भला कौन सा मिल सकता है। चुनाव आते ही बड़े नेता बनने के लिए सब टिकट के जुगाड़ में लग जाते हैं। टिकट नहीं मिलने पर कई लोग निर्दलिय खड़े हो जाते हैं तो कई वकायदा अपनी पार्टी तक बना लेते हैं। कुछ ऐसा ही नजारा देखने को मिला पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में। चुनाव के बाद चुनाव आयोग ने विभिन्न क्षेत्रों से उम्मीदवारों को मिले मतों का जो ब्योरा जारी किया है, उसमें एक बहुत ही रोचक तथ्य सामने आया है। लोकसभा चुनाव में छोटी पार्टियों ने जमकर अपना-अपना भाग्य आजमाया। बिहार में इस बार 61 पार्टियों ने 178 उम्मीदवार खड़े किये थे। इन पार्टियों मे केवल समता पार्टी ही ऐसी थी जिसके 26 उम्मीदवार मैदान में थे। जबकि इंडियन जस्टिस पार्टी के सिर्फ आठ। अधिकांश पार्टियों के सिर्फ एक उम्मीदवार चुनाव लड़ा। क्षेत्र की जनता तक को पता नहीं था कि नेताजी कौन सी पार्टी के उम्मीदवार हैं। कुछ पार्टियां किसी व्यक्ति विशेष के नाम पर, तो कुछ पार्टियां दूसरे राज्य विशेष के नाम पर चुनाव लड़ी। इन पार्टियों में कुछ का नाम तो चैंका देने वाला था। जैसे गांधी लोहियावादी पार्टी, राष्ट्रीय देहात पार्टी, जागो पार्टी, लाल मोर्चा, एकलव्य समाज पार्टी। वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा और मुस्लिम लिग केरल स्टेट कमेटी के नाम पर उम्मीदवारों ने वोट मांगे। ये अलग बात है कि इन पार्टियों के बारे में क्षेत्र की जनता तक को पता नहीं है। परिणाम, एक भी उम्मीदवार अपनी जमानत नहीं बचा पाये। जनता द्वारा नकारे जाने के बावजूद ये उम्मीदवार अपना हौसला नहीं छोड़ रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि अगले चुनाव में अच्छे परिणाम आयेंगे। बहरहाल चुनाव समाप्त हो चुका है। उम्मीदवार भी अपने-अपने कामों में लग गये हैं। लेकिन सवाल ये है कि ये छोटी-छोटी पार्टियां कब तक लोगों को बरगलाती रहेंगी ? और चुनाव आयोग इन दलों की लंबी फेहरिस्त को कब तक संभालता रहेगा ?

शनिवार, मई 16, 2009

जीत का रूका रथ

एक पुरानी कहावत है कि समय बलवान होता है। यदि वह अनुकूल हो तो आदमी को आसमान की ऊंचाई तक पहुंचा देता है और यदि विपरीत हो तो कहीं का नहीं छोड़ता। समय का कुछ ऐसा ही खेल हो रहा है लोजपा सुप्रीमो रामलविलास पासवान के साथ। जो कभी दलित राजनीति के रास्ते प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने का सपना देखते थे। लेकिन पंद्रहवीं लोकसभा में उनका सूपड़ा साफ हो गया।

बुझा हुआ चेहरा और सूनी आंखे। लोजपा सुप्रीमों का ये रूप उनकी आषा के ठीक विपरित है। सूबे में भारी जीत के प्रति आष्वस्त रामविलास की पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। राम विलास भले ही इस बार जीत हासिल नहीं कर पाये, लेकिन उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि उनकी कामयाबी की गाथा को बयां करती है। और इसका गवाह है हाजीपूर। जहां से वह पहलीबार लोकसभा का चुनाव जीते थे। लोजपा सुप्रीमो पासवान बिहार के पहले नेता हैं जिसे जनता ने आठ बार लोकसभा तक पहुंचाया है। चैदहवीं लोसभा चुनाव में चार सीटों के साथ यूपीए गठबंधन में शामिल हुए, लेकिन पंद्रहवी लोकसभा चुनाव में वह यूपीए से अलग होकर लालू और मुलायम के साथ मिलकर चुनाव लडे।़ और उनकी पार्टी को एक भी सीट पर जीत नहीं मिली।

62 वर्षिय रामविलास पासवान अपने छात्र जीवन के समय से ही राजनीति करने लगे थे। वह 1969 में संयुक्त सोषलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में बिहार विधान सभा का चुनाव जीते थे। 1974 के आंदोलन में जयप्रकाष और राजनारायण के काफी करीब रहे पासवान 1975 में इमरजेंसी के दौरान जेल भी गये। 1977 में जब वह जेल से बाहर निकले तो जनता पार्टी का सदस्य बने। और फिर सातवीं लोकसभा चुनाव में वह हाजीपुर लोकसभा सीट से रिकाॅर्ड मतों से जीते। पांच लाख से अधिक मतों से जीत हासिल कर गिनीज बूक आॅफ वल्र्ड रिकाॅर्ड में अपना नाम दर्ज करवा चुके पासवान ने 1980 में दलित सेना का गठन किया। 1984 में हुए लोकसभा चुनाव में पासवान को पहली बार हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन उसके बाद से वह लागातर चैदहवीं लोकसभा चुनाव में जीतते रहे। दलितों की राजनीति करनेवाले रामविलास ने सन् 2000 में लोकजनषक्ति पार्टी बनाई। देष में जब कभी दलित प्रधानमंत्री बनने की बात हुई तो रामविलास ने भी अपनेआप को एक सषक्त उम्मीदवार के रूप में सामने लाया। अभी तक देष के पांच प्रधानमंत्रियों के साथ काम कर चुके पासवान केन्द्रीय मंत्रीमंडल में श्रम एंव सामाजिक कल्याण, संचार, रेल और रसायन एवं उर्वरक जैसे महत्वपूर्ण विभाग देख चुके हैं।भारतीय राजनीति में एक विषेष पहचान बना चुके रामविलास की अगली रणनीति क्या होगी, ये तो बाद में ही पता चलेगा,,,लेकिन एक बात तो साफ है कि किसी का भी समय हमेषा एक समान नहीं होता......

गुरुवार, मई 14, 2009

वरुण एन एस ऐ से मुक्त

आखिरकार उस नाटक का पटाक्षेप हो ही गया....जो प्रायोजित रूप से चुनाव के लिए खेला गया था। इस नाटक में एक अनजान चेहरे को नायक के रूप में सामने लाया गया,,,और और नाटक का अंत होते-होते लोगों ने उसे हिरो बना दिया। चुनाव खतम होने के चार दिन बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने वरूण गांधी के उपर से एन एस ए हटा लिया। वरूण ने जो चाहा था वो उन्हें मिल गया....राजनीति के गलियारों में गांधी-नेहरू परिवार का ये गुमनाम चेहरा अपने भड़काउ भाषण से अचानक चर्चा मे आया.... और लोगों के जेहन में छा गया। इस से पहले साहित्य में रूचि रखनेवाले चंद लोग ही वरूण को जानते थे....लेकिन हिन्दुओं का स्वयंघोषित मसिहा बनकर वरूण ने अपनी पहचान बनाने के लिए लोगों के बीच एक ऐसी चाल चली जो आज के राजनीत के लिए सब से उपयुक्त और अचूक हथियार माना जाता है....उन्होंने इसके लिए लोगों के इमोषन का जमकर इस्तेमाल किया। वरूण राम के रथ पर सवार होकर हिन्दुत्व के रास्ते राजनीति के जिस मुकाम तक पहुंचना चाहते थे....उसमें वह बहुत हद तक सफलता भी पाई....अब देखना होगा के राजनीति में अपनी पहचान बनाने के बाद भगवा वस्त्र धारण करनेवाले वरूण राम को कब तक याद रख पाते हैं....

रविवार, मई 03, 2009

चुनावी नेता

चुनाव की मेला में


भाषणों की बेला में


कई दिग्गजों की जुबान फिसल गये


हाथ कटा, रॉलर चले


खूब बोले बाहुबली


क्रुर बने मॉडल नेता


नेताजी बनाये गये नक्सली


अपने क्षेत्रों का ये विज्ञ


मानवता से अनिभिज्ञ


आदर्शवाद के नाम पर


विवेकहीनता दिखा गये


लोकतंत्र के लिए मरने वाले क्रांतिकारी


जब देखते होंगे मारामारी


कहते होंगे क्या कर रहा है


वोटों का ये भिखारी


और फिर सोचते होंगे


कहां हम दुस्सासनों के हाथ में


द्रौपदी का चीर देकर आ गये।।