सोमवार, जनवरी 19, 2009

राजू के बहाने........

रामलिंगा राजू को सज़ा मिलनी चाहिए। अवश्य मिलनी चाहिए। और सज़ा कठोर भी होनी चाहिए। सज़ा मिले भी क्यों न? आख़िर उसने पब्लिक के साथ धोखा किया है। उसको ऐसी सज़ा मिले, जिससे दूसरों को सीख मिले। लोगों को लगे कि पब्लिक के साथ ग़लत करने पर ऐसा मेरे साथ भी हो सकता है।
कंपनी के शेयर में सिर्फ लोगों का पैसा ही नही लगा रहता है। साथ में उसकी उम्मीदें भी रहती है। वह भी डूब गयी। सिर्फ शेयर धारकों का ही नही। हजारों की संख्या में नौकरी कर रहे लोगों का भी। हतास से भरे लोग आत्महत्या कर रहे है। कौन है इसका जिम्मेदार ? राजू। जो लोगों के साथ सत्य के नाम पर असत्य का धंधा किया। लोगों को आई टी के क्षेत्र में नई तकनीक सिखानेवाला राजू असल में बहूत बड़ा छलिया निकला। लोगों को ऐसे तकनीक से छला कि किसी को पता तक नहीं चला। और जब पता चला, तब तक सब कुछ लूट चुका था। ऐसे छलिये को तो सज़ा मिलनी ही चाहिए।
राजू की अवस्था देखकर अमिताभ अभिनीत फिल्म अग्निपथ याद आया। उसमे भी पब्लिक के साथ कोई अपना ही धोखा करता है। और अंत में पब्लिक ही उस धोखेबाज़ को सज़ा देती है। मौत से बत्तर सज़ा। फिल्म ख़त्म होते होते दर्शकों के हाथों से आवाज़ निकलने लगती है। होठों पर खुशी की मुस्कान उभर जाती है। और आंखों में आशा की किरणे। लोग धोखेवाजों के साथ वैसी सज़ा की आशा करते है। वैसे आम जनता के साथ धोखा करने वालों की फेहरिस्त छोटी नही है। बहूत लम्बी है। बिहार में बाढ़ आती है तो रोटी देने में धोखा किया जाता है। दिल्ली में घर बांटा जाता है तो उसे देने में धोखा किया जता है। कोई प्रत्यक्ष रूप से, तो कोई अप्रत्यक्ष रूप से धोखा देता है। बेचारी जनता। सब जानती है। पर चुप है। क्योंकि लाचार है। फिल्म देखकर तालियाँ बजाते हुए खुश रहने को मज़बूर है। उसी में अपनी जीत को देखकर बेवस है। अब उन्हें राजू के नाम पर न्याय मिलाने की उम्मीद है। यदि राजू को सज़ा मिल गयी तो एक बार नेताओं को अवश्य मंथन करना होगा। जो जनता को बार बार छलता है। कहीं उनके साथ भी ऐसा न हो............जो ज़रूरी है।

शनिवार, जनवरी 17, 2009

माओवादी का सच .....


वैसे
तो नेपाल में राजा का शासन खत्म हो चुका है, पर लोकतंत्र की स्थापना भी नही हो सका हैनेपाल में लोक का तंत्र एक ऐसे हाथ में है जो इसे स्वतंत्र रूप से पनपने नही दे रहा हैजंगल से बाहर निकलकर माओवादी लोकतंत्र की बागडोर तो पकर लिया, परन्तु इसे चलना वह नही सीखायही कारन है कि सत्ता उस के हाथ में आने के बाद वह सुधरने के वजाय और ज़्यादा उग्र हो गयादेश की नेतृत्व कर रहे माओवादी अध्यक्ष पुष्प कमल दहाल प्रचंड अपने पुराने सोच से नही उबर पायें हैउनके मन में अभी भी हथियार उठाने और सत्ता कब्जा करने की बात घर की हुई हैप्रधानमंत्री का कहना है कि सत्ता कब्ज़ा किया जा सकता हैइतना ही नहीं वह कुर्सी छोड़ कर हथियार उठाने की बात करते हैंपता नहीं उनके मन में क्या है? क्योंकि माओवादी का उद्देश्य होता है --"हथियार के बल पर सत्ता कब्ज़ा करना"। और अब जब सत्ता उसके हाथ में है तो फिर हथियार उठाने की बात क्यों की जा रही हैइस सवाल का जवाब पार्टी के दूसरे नेता और देश के जिम्मेबार मंत्री बखूबी दे रहें हैंनेपाल के संस्कृति मंत्री गोपाल किरांती का मानना है कि मानव अधिकारों की रक्षा के लिए हरेक नेपाली के पास हथियार होना चाहिएकिरांती साहब तो यहाँ तक कहते हैं कि हरेक नेपाली को हथियार रखने की संवैधानिक व्यवस्था होना चाहिएमाओवादी के नेता अपने हिसाब से मानवाधिकार की परिभाषा देतें है और कहते हैं कि जब तक राज्य है, तब तक हरेक व्यक्ति को सुरक्षित रहने के लिए बन्दूक चाहिएबात इतना तक ही सीमित नहीं हैमाओवादी नेता अभी भी राजतंत्र के समय कब्ज़ा किए गए घर और ज़मीन वापिस करने के पक्ष में नहीं हैमात्रिका यादव तो वाकायदा इसके विरुद्ध अपनी लड़ाई तक छेड़ दी हैउन्होंने इसके लिए अपना मंत्री पद तक त्याग कर दियाआदमी के घर ज़मीन की बात छोडिये वे भगवान् तक को भी नहीं बखस्ता हैवे भगवान पर विश्वास नही करतेपर भगवान् की पूंजी पर ज़रूर नज़र रखते हैफलस्वरूप विश्वविख्यात पशुपति नाथ मन्दिर में ऐसा विवाद उतपन्न हुआ कि संसार के सम्पूर्ण हिन्दू धर्मावलम्बी हिल गयाइस घटना के बाद एक और ऐसा सच सामने सामने आया कि माओवादी सुप्रीम कोर्ट तक की अवहेलना करने से नही हिचकिचाता है
ये तो हुई पार्टी की वरिष्ठ नेताओं की बातलेकिन जब बात पार्टी की युवा दस्ते की होती है तो माओवादी का चेहरा और ज़्यादा भयावह बनकर सामने आता हैमाओवादी के हाथ में सत्ता आने के बाद से पार्टी का युवा दस्ता यूथ कम्युनिष्ट लिंग नंगा नाच कर रहा हैजो चाहता हैजहाँ चाहता हैवह करता हैव्यापारी रामहरी श्रेष्ठ की हत्या की बात हो या हिमाल मीडिया पर हमले की बात होसभी में माओवादियों की करतूत सामने आता हैऔर सरकार कोई भी ठोस कार्रवाई नही कर पाती हैआम लोग डरे हुए हैंसहमे हैमजबूर भी है सरकार सुनती है और प्रशासन
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे में प्रजातंत्र का मायने क्या है ? जहाँ ख़ुद प्रजा सुरक्षित नही हैइस लोकतंत्र का भविष्य क्या है ? जहाँ की जनता वर्तमान में त्रस्त हैदिशा विहीन हैऐसे में आम जनता के मन में एक बार तो ज़रूर ख्याल आता होगा कि इस से कहीं अछा राजतंत्र था ....................................

शुक्रवार, जनवरी 16, 2009

गिरता हूँ .....उठता हूँ.....

जख्म गहरा है, फिर भी सहता हूँ,
चोट खाता हूँ, पर मुस्कुराता हूँ,
खुश रहने की आदत है,
हंसता रहता हूँ।

दूसरों को छोड़, ख़ुद को ज्यादा सुना,
हमेशा कठिन डगर को चुना,
गिरता हूँ,
थोड़ा घबराता हूँ,
फिर से चल पड़ता हूँ,
चलने की आदत है,
चलता रहता हूँ।
दोस्तों ने बहूत कुछ दिया,
अपना बनकर गैरों ने धोखा दिया,
पतझड़ के मौसम में,
हरियाली को ढूँढता फिरता हूँ,
पाने की इच्छा है,
खोजता रहता हूँ।

परिस्थिति ने भी खूब खेल खेला है,
हमने विश्वास के बल पर इसे झेला है,
शह और मात के इस खेल में,
कभी जीता तो कभी हाडा हूँ,
फिर भी लड़ता हूँ,
जीतने की हसरत है,
लड़ता रहता हूँ॥

रविवार, जनवरी 11, 2009

पंचायती फैसलों की हकीकत .....

एक लड़की के साथ बलात्कार करने की सजा -कान पकड़कर दस बार उठक -बैठक। यह एक पंचायत का फैसला है। यह फैसला द्वापर या सतयुग में नही किया गया है। बल्कि आज के युग में यह फैसला हुआ है। यानी की २१ वीं शताब्दी के महान भारत का फैसला है। घटना राजधानी से सटे नॉएडा की है। जहाँ एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार किया जाता है। बलात्कार के आरोप में दस लड़कों को अभियुक्त बनाया जाता है। परन्तु यह बात उस गाँव वाले को हज़म नही होता है जहाँ का वह आरोपी रहने वाला है। आनन् फानन में गाँव में एक पंचायत बुलाई जाती है। और सभी आरोपियों को मासूम करार दिया जाता है। साथ ही आरोपियों को अनजान बालक बताते हुए सारी गलती पीड़ित लड़की के माथे पर मढ़ दिया जाता है। कहा जाता है कि लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ ग़लत अवस्था में थी। ऐसे ही एक दूसरी घटना में हरियाणा के गाँव में एक लड़की की अस्मत लूटी जाती है। बात आगे बढ़ने पर गाँव में पंचायत बुलाई जाती है। और पंचायत में फैसला किया जाता है कि पीड़ित लड़की को मुआवजे के तौर पर आरोपी २१ हज़ार रुपया देगा। किसी पंचायत का यह अकेला फैसला नही है। पंचायतों में इस तरह के फैसले आमतौर पर देखा जाता है। खासकर महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर। इस तरह फैसला करने में हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्य सब से आगे है। पंचायत के इस पक्षपातपूर्ण और विवेकहीन फैसलों पर मंथन करने से पहले पंचायत की बनावट और उसके महत्व को समझने के लिए इतिहास के पन्नो को थोड़ा पलटते है। दरअसल पंचायत भारतीय ग्राम्य जीवन का पहला और महत्वपूर्ण अदालत होता है। जिसका मुख्य कार्य समाज में घटे विभिन्न घटनाओं का आपस में बैठकर निष्पक्ष रूप से निपटारा करना होता है। shaaब्दीक रूप से पंचायत का मतलव ऐसे समूह से है जिसमे पाँच प्रतिनिधि होता है। यथा -ब्रह्मण, क्षत्रिय, वस्य, सुदर और परमेश्वर। यानी कि समाज के पांचो अंगों का एक- एक प्रतिनिधि। और इन पञ्च परमेश्वर का काम सामाजिक तथा मानवीय हीत को ध्यान में रखकर फैसला करना होता है। इन पंचों के हाथ में ग्रामीण सभ्यता, संस्क्रीती को बचाने का ज़िम्मा भी रहता है। हमारा देश गावों का देश है। इसलीय यहाँ पंचायती अवधारना बहुत पुराणी है। वैदिक काल के आरम्भ से ही पंचायतो कि महक मिलाती है। उस समय गावं का प्रबंध ग्रामीनी करता था और उस के न्रेतित्व में गावं से जुड़ी सभी निर्णय किए जाते थे। उत्तर वैदिक काल में भी रामायण और महाभारत में पंचायतों की अवधारना स्पष्ट होती है। बौधकाल में भी गावं का बुजुर्ग आपस में बैठकर सामाजिक न्याय का फैसला करते थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी उल्लेख है कि स्थानीय विवादों का निर्णय ग्राम व्रीधों एवं सामंतों द्वारा किया जाता था। इस के बाद मुगलकाल और अँगरेज़ के ज़माने में भी ऐसा ही देखने को मिलता है कि गावं के ज़मींदार और बुजुर्ग पंchaयाती फैसला करते थे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इसके लिए कानून बना। और फिर जनता के द्वारा सरपंच का चुनाव होने लगा। जो स्थानीय विवादों को निपटाने में सहयोग करता है।

पंचायत के इस थोड़ी सी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखकर ऐसा लगता है कि पंचायती निर्णय का अधिकार हमेशा से दबंगों और बुजुर्गों के हाथ में रहा है। जो मनुवादी सोच में रहकर फैसला करने के आदी है। धीरे-धीरे समय तो बदला, पर ग्रामीण परिवेश रह रहे लोगों में अभी भी पुरातनवादी सोच हावी रहा है। आज भी पंचायती फैसले लोग उसी सोच से करते है। गावं में अभी भी अशिक्षा, गरीबी और पुरुषवादी मानसिकता चरम पर है। इसी का नतीजा है कि जिस पंचायतों में लोग न्याय की उम्मीद लेकर जाते हैं, वहीं उनको सरे आम बेईज्ज़त होना पङता है। पंचायतो में किसी को डायन बताकर पिटा जाता है तो किसी की अस्मत को चंद रुपयों में निलाम कर दी जाती है। दरअसल ये घटनाएं बेआबरू करती है समाज की उन सोच और विचारों को जो एक तरफ महिलाओं को समान अधिकार देने की बात करता है और समाज के हर क्षेत्र में उसकी सहभागिता की वकालत करता है , जबकि दूसरी तरफ मौत सी ज़िंदगी जीने पर मजबूर करता है
ऐसे में सवाल उठता है कि इस मामलों के बीच सरकार कहाँ है? और क्या कर रही है? सरकार और प्रशासन इस बर्बरतापूर्ण अत्याचारों को रोकने के लिए क्या पहल कर रही है? मानव अधिकार आयोग और महिला आयोग के करता-धरता कहाँ है? हैसब कुछ हैसभी संगठन भी हैऔर सरकार भी हैसरकार महिलाओं के विकास के काम भी कर रही हैवह २४ जनवरी को बालिका दिवस मना रही हैलेकिन पंचायत के इस फैंसलों पर मौन हैक्या होगा इस बालिका दिवस मनाने से? कौन समझता है इस का मतलब ? कम से कम गावं के चौपाल पर बैठकर पंचायतों के ज़रिये ह्रदयविदारक निर्णय लेने वाले वे लोग तो किसी भी हालत में इस का मतलब नही समझते है जो औरत को पैरों की जूती समझते हैइसलिए यदि सरकार बालिका दिवस मनाने के बदले यदि उनपर होने वाले अत्याचारों को रोकने के लिए मजबूत पहल करे तो बेहतर हैसाथ ही तरह के पंचायती फैसला करने वाले पंचों पर भी ज़मीनी तौर पर कर्र्बाई ज़रूरत दिखायी पड़ती है ...........

गुरुवार, जनवरी 08, 2009

ज़िंदगी चलती है..........

आतंकवाद का हमला हो,
या ब्लूलाइन का मामला,
महंगाई की मार हो,
या आर्थिक मंदी का मशला,
ज़िंदगी चलती है, चलती रहेगी

काम पर सुबह जाना है,
देर शाम लौटना है,
हर दिन जान हथेली पर ले,
डी टी सी पर चढ़ना है

हर कोई है भीर में,
पहले पहुचने की चाह में,
दूसरों को गिराकर,
हर किसी को जल्दी जाना है

ठसठस भीर में,
धक्के मुक्के के बीच में,
जालसाजों से बचकर
मीलों का सफर तय करना है,
ये जिंदगी चलती है, चलती रहेगी